Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – देशभक्ति की कसौटी या जिम्मेदारी की याद?

देशभक्ति की कसौटी या जिम्मेदारी की याद?

-सुभाष मिश्र
सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी सीधे तौर पर राहुल गांधी की देशभक्ति पर सवाल नहीं उठाती, बल्कि एक विपक्षी नेता के रूप में उनकी जिम्मेदारी पर जोर देती है। कोर्ट का तर्क यह है कि जब सीमा पर तनाव हो-जैसे गलवान घाटी संघर्ष (2020) में 20 भारतीय सैनिक शहीद हुए थे, तो ऐसी बयानबाजी सेना का मनोबल गिरा सकती है या राष्ट्रीय सुरक्षा को प्रभावित कर सकती है। ‘सच्चे भारतीय’ का जिक्र यहां एक नैतिक अपील की तरह है, जो नेताओं को याद दिलाता है कि राजनीतिक लाभ के लिए राष्ट्रीय मुद्दों पर बिना ठोस आधार के दावे नहीं किए जाने चाहिए। यह टिप्पणी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे में है, लेकिन कोर्ट ने स्पष्ट किया कि ऐसे बयान संसद में उठाए जाने चाहिए, न कि सार्वजनिक मंचों पर जहां वे विवादास्पद हो सकते हैं।

यह पहली बार नहीं है जब सुप्रीम कोर्ट ने राजनीतिक नेताओं पर ऐसी टिप्पणियां की हैं। पहले भी, मोदी उपनाम मानहानि मामले में राहुल गांधी की सजा पर स्टे देते हुए कोर्ट ने उनकी भाषा पर सवाल उठाए थे। इसका मतलब यह है कि न्यायपालिका राजनीतिक बयानबाजी को राष्ट्रीय हित की कसौटी पर परख रही है, खासकर जब वे विदेश नीति या सुरक्षा से जुड़े हों। हालांकि, आलोचक इसे कोर्ट की ‘ओवररीच’ मान सकते हैं, क्योंकि देशभक्ति की परिभाषा व्यक्तिगत है और इसे अदालत द्वारा तय नहीं किया जाना चाहिए। फिर भी, यह टिप्पणी नेताओं को सतर्क करती है कि उनके शब्दों का वजन सिर्फ वोट बैंक तक सीमित नहीं है।

देश के नेताओं पर अदालती टिप्पणियों का असर मिश्रित रहा है। एक ओर, ये टिप्पणियां नैतिक दबाव बनाती हैं और कई बार नेताओं को अपनी गलती मानने या बयान वापस लेने पर मजबूर करती हैं। उदाहरण के लिए, 2023 में राहुल गांधी की संसद सदस्यता बहाल होने के बाद उन्होंने अपनी भाषा में संयम बरता, जो सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप का परिणाम माना जा सकता है। इसी तरह, अन्य मामलों में जैसे अरविंद केजरीवाल या अन्य नेताओं पर कोर्ट की फटकार ने सार्वजनिक छवि को प्रभावित किया और राजनीतिक रणनीति में बदलाव लाया।
दूसरी ओर, राजनीतिक ध्रुवीकरण के इस दौर में ऐसी टिप्पणियां अक्सर पार्टी लाइनों पर बंट जाती हैं। केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू ने इस टिप्पणी पर राहुल गांधी की आलोचना की, जबकि कांग्रेस ने इसे कोर्ट की राय मात्र बताया। इतिहास बताता है कि नेताओं पर असर तभी पड़ता है जब टिप्पणी कानूनी परिणामों से जुड़ी हो, जैसे सजा या अयोग्यता। अन्यथा, वे इन्हें ‘राजनीतिक हमला’ करार देकर नजरअंदाज कर देते हैं। आंकड़ों से देखें तो, सुप्रीम कोर्ट की 70फीसदी से अधिक टिप्पणियां मीडिया में सुर्खियां बनती हैं, लेकिन केवल 30फीसदी मामलों में ही नेताओं के व्यवहार में स्थायी बदलाव आता है (अनुमानित, विभिन्न अध्ययनों के आधार पर)। इसका कारण है कि भारतीय राजनीति में अदालतें सम्मानित हैं, लेकिन अंतिम शक्ति वोटर के हाथ में है।

सुप्रीम कोर्ट की भूमिका न्याय सुनिश्चित करने की है, न कि राजनीतिक बहस में शामिल होने की। फिर भी, जब नेता राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे संवेदनशील मुद्दों पर बयान देते हैं, तो कोर्ट का हस्तक्षेप जायज है क्योंकि यह संविधान की रक्षा करता है। राहुल गांधी के मामले में, कोर्ट ने मानहानि कार्यवाही पर स्टे दिया, जो उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान दर्शाता है। लेकिन टिप्पणी एक चेतावनी है। विपक्ष को सवाल उठाने का हक है, लेकिन सबूतों के साथ। नेताओं को यह समझना चाहिए कि ऐसी फटकार उनकी विश्वसनीयता पर असर डालती है, और अंतत: जनता ही फैसला करती है।
निष्कर्ष में, ‘सच्चे भारतीय’ वाली टिप्पणी एक याद दिलाती है कि राजनीति में जिम्मेदारी सर्वोपरि है। अगर नेता अदालती सलाह को गंभीरता से लें, तो यह लोकतंत्र को मजबूत करेगी; अन्यथा, यह सिर्फ एक और विवाद बनकर रह जाएगी। समय बताएगा कि इस टिप्पणी का राहुल गांधी या अन्य नेताओं पर क्या दीर्घकालिक असर पड़ता है।

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