Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – मोबाइल में कैद बचपन और जवानी

Editor-in-Chief सुभाष मिश्र

-सुभाष मिश्र

मोबाइल अब व्यक्ति की जरूरत से ज्यादा लत में बदल चुका है। इसके सबसे ज्यादा शिकार बच्चे और युवा हो रहे हैं। जरूरत आदत में बदली और आदत एडिक्शन (लत) में बदल चुकी है। घर में मां-बाप का रखा हुआ मोबाइल पहले बच्चे उत्सुकता में चलाते थे,फिर उनको इसमें आनंद आने लगा। अब स्कूल से घर लौटते ही माँ या पिता का मोबाइल उठा लेते हैं। बच्चों से मोबाइल वापस लौटाने का कहना या उनके हाथ से मोबाइल लेना उनको उत्तेजित कर देता है।
कभी निदा फाजली ने लिखा था –
बच्चों के छोटे हाथों को चाँद सितारे छूने दो
चार किताबें पढ़ कर ये भी हम जैसे हो जाएँगे।।

अब मामला किबातों से आगे का है। पहले बच्चों की देखभाल की बात होती थी, किन्तु अब देखभाल और बच्चों को चुप कराने के नाम पर उनके हाथों में मोबाईल पकड़ा दिया जाता है। अब इन्हें देखभाल नहीं मोबाईल बिगाड़ रहा है। आदिल मंसूरी का शेर है-
चुप-चाप बैठे रहते हैं कुछ बोलते नहीं
बच्चे बिगड़ गए हैं बहुत देख-भाल से।।

पहले संयुक्त परिवार थे। बच्चे नानी, दादी से कहानी सुनते थे लेकिन अब ये कहानी मोबाइल के हवाले हो गई है। एक से एक एप, गेम आ गये हैं जो बच्चों में एक तरह के एडिक्शन को जन्म दे रहे हैं। मकसूद बस्तवी का एक शेर है-
एक हाथी एक राजा एक रानी के बग़ैर
नींद बच्चों को नहीं आती कहानी के बग़ैर।।

देश विदेश में ऐसी अनेक घटनाएं हैं, जिनमें मां-बाप द्वारा बच्चों से मोबाइल वापस लेने से या रख देने के लिए डाँटने पर बच्चे उत्तेजित हो गए हैं। यहां तक कि माता-पिता पर हिंसक हमला करने पर उतारू हो गए। कुछ बच्चों ने तो इस हिंसक उत्तेजना में मां-बाप को मार दिया या आत्महत्या कर ली। विदेशों में तो सामाजिक संगठनों से लेकर सरकार तक ने एक गंभीर समस्या की तरह इसको सुलझाने के प्रयास शुरू कर दिए हैं। भारत की लापरवाही ऐसे मामलों में जग जाहिर है। भारत में इसे बच्चों की जिद या पालकों का अकारण का गुस्सा समझा जा रहा है। स्थिति बहुत गंभीर हो गई है। विदेशी कंपनियां धंधे में धुत हो गई हैं। अपना उत्पाद बेचने के लिए सभी प्रकार की नैतिकता और सामाजिक जिम्मेदारी की तरफ जरा भी ध्यान नहीं दे रही है। उनके लिए आर्थिक लाभ और व्यापार सबसे पहले है। बच्चों को आकर्षित करने के लिए अनेक तरह के एप्स आ गए हैं। बच्चों को अपना निजी मोबाइल रखने के लिए नए तरह से उकसाया जा रहा है। किशोर और युवा तो मोबाइल रखने भी लगे हैं। निजी मोबाइल होने से अब उसमें अश्लील वीडियो से लेकर हिंसा से भरी फि़ल्में और सीरीज भी शामिल हो गई हैं। किसी भी देश की रीढ़ या उसका आधार उस देश के युवा होते हैं। अनेक देशों को कमजोर करने के लिए वहां के युवाओं को इस तरह से अनेक तरह के नशों का एडिक्ट बनाया जा रहा है। मोबाइल पर आसानी से उपलब्ध होने वाली अश्लील और हिंसक सामग्री भी इसी तरह का एक आयातीत नशा है। भारत में एकाएक जो अवैध ड्रग्स का व्यापार बढ़ा है, अश्लीलता और हिंसा से भरी विदेशी फिल्मों और सीरीज का जिस तेजी से आगमन हुआ है, यह एक तरह का विदेशी आक्रमण है। मोबाइल दरअसल एक तरह का छोटा-मोटा बम है जो बच्चों के हाथ में भी पहुंच गया है। यह बम बच्चों के बचपन को ध्वस्त कर रहा है। उनके विचार, व्यवहार और भाषा बदल रहा है।
आज का युग डिजिटल क्रांति का युग है। स्मार्टफोन, टैबलेट और इंटरनेट ने हमारे जीवन को सुगम बनाया है, लेकिन इस तकनीकी वरदान ने हमारे बच्चों और युवाओं के बचपन को कैद कर गलत राह पर डाल दिया है। गलियों में खेलने की जगह मोबाइल स्क्रीन पर गेम्स, बाग-बगीचों की सैर की जगह सोशल मीडिया की स्क्रॉलिंग और दोस्तों के साथ हंसी-मजाक की जगह वर्चुअल चैटिंग ने ले ली है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की चेतावनी के अनुसार, पांच में से एक बच्चा मानसिक तनाव और डिप्रेशन का शिकार हो रहा है।
राज्यसभा सांसद स्वाति मालीवाल ने हाल ही में बच्चों के घटते बचपन पर गंभीर चिंता जताई है। उन्होंने अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) की एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए बताया कि पिछले एक दशक में 5 से 19 वर्ष की आयु के बच्चों में मोटापे की दर दोगुनी हो गई है। इसका प्रमुख कारण है बढ़ता स्क्रीन टाइम और शारीरिक गतिविधियों में कमी। बच्चे अब खेल के मैदानों में दौडऩे-कूदने के बजाय मोबाइल स्क्रीन पर गेम खेलना पसंद करते हैं। इस बदलाव ने न केवल उनके शारीरिक स्वास्थ्य को प्रभावित किया है, बल्कि उनकी मानसिक सेहत पर भी गहरा असर डाला है।
डब्ल्यूएचओ की एक रिपोर्ट के अनुसार, 13 वर्ष से कम उम्र के बच्चों में स्क्रीन टाइम की अधिकता उनके मानसिक स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव डाल रही है। छोटे बच्चे भी सोशल मीडिया और इंटरनेट की चकाचौंध में फंस रहे हैं, जिसके कारण उनमें चिंता, तनाव और अवसाद के लक्षण देखे जा रहे हैं। मोबाइल पर खाना खाते समय ध्यान भटकने से बच्चे जरूरी पोषण से वंचित रह जाते हैं, जिससे मोटापा और पाचन संबंधी समस्याएं बढ़ रही हैं।
मोबाइल देखते हुए खाना खाने की आदत से मेटाबॉलिज्म कमजोर होता है, क्योंकि बच्चे खाने को ठीक से चबाए बिना निगल लेते हैं। इससे पाचन शक्ति पर असर पड़ता है और मोटापे की समस्या बढ़ती है। एम्स की रिपोर्ट के अनुसार, मोटापा न केवल शारीरिक स्वास्थ्य को प्रभावित करता है, बल्कि आत्मविश्वास और मानसिक स्वास्थ्य पर भी नकारात्मक असर डालता है। मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि सोशल मीडिया और इंटरनेट पर अनुचित सामग्री, जैसे हिंसक वीडियो और ग्लोरिफाइड कंटेंट, बच्चों के व्यवहार को प्रभावित कर रहे हैं। झारखंड के सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ साइकियाट्री (सीआईपी) के मनोचिकित्सक डॉ. निशांत गोयल के अनुसार, इंटरनेट की आसान पहुंच के कारण बच्चे ऐसी सामग्री देख रहे हैं, जो उनके व्यक्तित्व विकास में बाधा बन रही है। इससे बच्चे स्कूल से दूरी बनाने, अकेले रहने और असामान्य व्यवहार करने लगते हैं।
मोबाइल की लत ने बच्चों को परिवार और दोस्तों से भी दूर कर दिया है। पहले जहां बच्चे माता-पिता के साथ खाना खाते समय बातचीत करते थे, वहीं अब उनका ध्यान मोबाइल स्क्रीन पर रहता है। इससे पारिवारिक रिश्तों में दूरी बढ़ रही है और बच्चे भावनात्मक रूप से कमजोर हो रहे हैं। डब्ल्यूएचओ के अनुसार, छोटे बच्चों में स्क्रीन टाइम की अधिकता उनके सामाजिक और भावनात्मक विकास को बाधित कर रही है।
इस गंभीर समस्या से निपटने के लिए समाज, अभिभावकों और नीति-निर्माताओं को मिलकर प्रयास करने की जरूरत है। स्वाति मालीवाल ने सुझाव दिया है कि स्कूलों में शारीरिक गतिविधियों और खेलकूद को बढ़ावा देना चाहिए। अभिभावकों को बच्चों के स्क्रीन टाइम पर नजर रखनी चाहिए और उन्हें बाहरी गतिविधियों में शामिल करने के लिए प्रेरित करना चाहिए। डब्ल्यूएचओ की गाइडलाइंस के अनुसार, 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को स्क्रीन टाइम एक घंटे से अधिक नहीं देना चाहिए।
इसके अलावा, सरकार और शैक्षणिक संस्थानों को डिजिटल साक्षरता और मानसिक स्वास्थ्य जागरूकता कार्यक्रम शुरू करने चाहिए। माता-पिता को बच्चों के साथ समय बिताने और उनकी भावनात्मक जरूरतों को समझने पर ध्यान देना चाहिए। तकनीक का उपयोग सीमित और नियंत्रित तरीके से हो, ताकि बच्चे वास्तविक दुनिया के अनुभवों से जुड़ सकें।
बचपन और जवानी का असली आनंद मैदानों में दौडऩे, दोस्तों के साथ हंसने और प्रकृति के साथ समय बिताने में है। मोबाइल स्क्रीन की चमक में कैद बचपन को आजाद करने की जिम्मेदारी हम सबकी है। यह समय है कि हम समाज को सच का आईना दिखाएं और अपने बच्चों को डिजिटल दुनिया की कैद से निकालकर वास्तविक दुनिया की खुशियों से जोड़ें।

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