-सुभाष मिश्र
देश में चल रही जातिगत जनगणना ने आदिवासी समुदायों की धार्मिक, सांस्कृतिक और संवैधानिक पहचान को लेकर एक महत्वपूर्ण बहस को जन्म दिया है। विशेष रूप से सरना धर्म को मानने वाले लगभग दस करोड़ आदिवासियों की मांग है कि उनकी विशिष्ट धार्मिक पहचान को जनगणना में अलग धर्म कोड के रूप में मान्यता दी जाए। उनका तर्क है कि यदि जैन धर्म जैसे छोटे समुदाय को अलग कोड मिल सकता है, तो सरना जैसे प्रकृति-पूजा आधारित धर्म को क्यों नहीं? यह मांग केवल धार्मिक पहचान तक सीमित नहीं है, बल्कि यह संवैधानिक अधिकारों, आरक्षण नीतियों और सांस्कृतिक संरक्षण से गहराई से जुड़ी है। यह मुद्दा न केवल आदिवासियों की अस्मिता का सवाल है, बल्कि भारत की सामाजिक समावेशिता और नीतिगत ढांचे की परीक्षा भी है।
भारत की जनगणना में वर्तमान में केवल छह प्रमुख धर्मों हिंदू, इस्लाम, ईसाई, सिख, बौद्ध और जैन के लिए कॉलम हैं। अन्य धर्मों को अन्य (ओआरपी) श्रेणी में रखा जाता है जो आदिवासियों की विशिष्ट धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान को प्रतिबिंबित नहीं करता। 1951 तक आदिवासियों के लिए अलग धर्म कोड था, जिसे 1961 में हटा दिया गया। इस बदलाव को लेकर आदिवासी संगठन कांग्रेस की नीतियों को जिम्मेदार ठहराते हैं, जबकि केंद्र की बीजेपी सरकार पर इसे लागू न करने का आरोप लगता है। झारखंड विधानसभा ने 2020 में सर्वसम्मति से सरना धर्म कोड को शामिल करने का प्रस्ताव पारित किया, लेकिन केंद्र सरकार की निष्क्रियता ने आदिवासी समुदायों में असंतोष को बढ़ाया है।
संवैधानिक रूप से आदिवासियों को अनुसूचित जनजाति (एसटी) के रूप में मान्यता प्राप्त है और उनकी गणना हिंदू या अन्य धर्मों से अलग होती है। फिर भी, सरना धर्म कोड की अनुपस्थिति के कारण उनकी धार्मिक पहचान अक्सर अन्य श्रेणी में खो जाती है। राष्ट्रीय आदिवासी समाज सरना धर्म रक्षा अभियान जैसे संगठन और स्कॉलर जैसे कार्तिक उरांव तर्क देते हैं कि उनकी प्रकृति-पूजा आधारित परंपराएँ हिंदू धर्म से अलग हैं। इसके विपरीत आरएसएस के कुछ नेता, जैसे कृष्णगोपाल, दावा करते हैं कि आदिवासी सनातन धर्म का हिस्सा है। यह वैचारिक टकराव मांग को जटिल बनाता है। बंधन टिग्गा जैसे आदिवासी नेता कहते हैं, जनगणना में एक अलग सरना कोड हमारी पहचान की कुंजी है। वहीं, सोशल मीडिया पर हंसराज मीना जैसे कार्यकर्ता जोर देते हैं, आदिवासी हिंदू या ईसाई नहीं, हमें पृथक धर्म कोड चाहिए।
जातिगत जनगणना से आदिवासियों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति का सटीक डेटा मिल सकता है जो शिक्षा, रोजगार और विकास योजनाओं में उनके लिए लक्षित नीतियाँ बनाने में मददगार होगा। सरना कोड की मान्यता से उनकी सांस्कृतिक विरासत, भाषाएँ और परंपराएँ संरक्षित होंगी, विशेष रूप से हिंदूकरण जैसे प्रभावों से। यदि यह मांग पूरी होती है तो आदिवासी समुदायों में सरकार के प्रति विश्वास बढ़ेगा। लेकिन यदि इसे नजरअंदाज किया गया तो झारखंड, ओडिशा और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में विरोध प्रदर्शन और सामाजिक अशांति बढ़ सकती है।
राजनीतिक दलों की रणनीति भी इस मुद्दे को जटिल बनाती है। कांग्रेस और झारखंड मुक्ति मोर्चा इसे आदिवासी अस्मिता का सवाल बनाकर समर्थन जुटा रहे हैं। जेएमएम नेता हेमलाल मुर्मू कहते हैं, सरना धर्म कोड आदिवासी अस्मिता और सांस्कृतिक पहचान का सवाल है। दूसरी ओर बीजेपी पर इसे विभाजनकारी बताने का आरोप है। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने इस मुद्दे पर विचार करने का आश्वासन दिया है, लेकिन ठोस कार्रवाई का अभाव आदिवासियों के असंतोष को बढ़ा रहा है।
जातिगत जनगणना का एक व्यापक प्रभाव यह हो सकता है कि यह अन्य जातिगत समूहों (जैसे ओबीसी, एससी) के साथ संसाधनों के बंटवारे को लेकर तनाव पैदा करें। फिर भी सटीक डेटा नीति-निर्माण को और समावेशी बना सकता है। सरकार को चाहिए कि वह केंद्र और राज्यों के बीच समन्वय बढ़ाए, सरना कोड को लागू करें और आदिवासी समुदायों की मांगों को संबोधित करे। यह न केवल उनकी पहचान को संरक्षित करेगा, बल्कि सामाजिक न्याय और समावेशिता को भी मजबूत करेगा।