monopoly politics भूपेन्द्र गुप्ता
monopoly politics महात्मा गांधी के जीवन में ऐसे कई अवसर आए जब तार्किकता के आधार पर उन्हें सत्य अहिंसा के मार्ग से विचलित करने की कोशिश की गई । किंतु शांति और धैर्य पूर्वक वह हमेशा ऐसे समाज के निर्माण के लिए अपनी प्रतिबद्धता जाहिर करते रहे जिसमें सह अस्तित्व ,शांति ,स्वावलंबनऔर सरलता ही मुख्य गुण हों।
monopoly politics आज ऐसे समाज के निर्माण की तरफ राजनीति अग्रसर हो रही है ,जहां धर्म सत्ताएं तथा समाज विज्ञानी भी राजनीति के सम्मुख असहाय खड़े हैं। उससे समाज व्यवस्था दूषित हो रही है। बारीकी से अध्ययन करें तो उन्माद पूरे मानव व्यवहार को चपेट में ले रहा है ।
समाज धर्मोन्माद से,कामोन्माद से भरा हुआ है ।अबोध बेटियां ,दिव्यांग बच्चियां अपने ही निकटतम लोगों, रिश्तेदारों, पड़ोसियों के दुर्व्यवहार और व्यभिचार की शिकार हो रहीं हैं ।डाक्टर सेवाओं के बदले टकसाल लगा रहे हैं,दवायें पचास गुना कीमत पर मिल रहीं हैं।
monopoly politics शिक्षक कोचिंग माफिया के पोषक बन गये हैं।सेवा करने वाले लोग मुनाफाखोरों से पिछड़ रहे हैं। यह उन्माद कहां से आ रहा है,और क्यों आ रहा है? इस पर विचार करना जरूरी है ।
जब हम हिंसाचार को न्यायसंगत ठहराने की कोशिश करते हैं तब धीरे-धीरे यह उन्माद हमारे व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाता है और हमारी हर गतिविधि में अभिव्यक्त होने लगता है।एक व्यापारी जो लाभ अर्जित करता है उसमें उसे संतोष नहीं है । लाभ कमाने का उन्माद छाया हुआ है ।वह सारे व्यवसाय पर एकाधिकार करना चाहता है । उसके इस कृत्य से व्यापक समाज अभावग्रस्त हो रहा है । समाज के खाने-पीने के जीवन के संसाधन सिकुड़ रहे हैं ।
monopoly politics जब हम राजनीति की तरफ देखते हैं तो वहां भी संपूर्ण सत्ता पर कब्जा करने का उन्माद छाया हुआ है । जनता अगर चुनाव हराकर सत्ता से हटा देती है तो प्रलोभन देकर जनता के द्वारा चुनी हुई सरकारों को गिराया जा सकता है।
सत्ता पर एकाधिकार कर लेने का यह उन्माद भी उसी का विस्तार है, जिसमें हम अबोध बच्चों को भी स्कूल भेजने से पहले अपने अपने रंग की टोपी पहनाना चाहते हैं। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए हम इस उत्तेजकता को न्यायसंगत ठहराते हैं।
फिर धीरे-धीरे उन्माद की यह वृत्ति समाज में पनपती है तो विकृति को पुष्ट करती है। जब यही वृत्ति व्यापार में प्रविष्ट होती है तो लोभ को पुष्ट करती है, और जब राजनीति में प्रवेश करती है दो एकाधिकार का उन्माद पैदा करती है । समाज के ताने-बाने को नष्ट कर देती है ।
monopoly politics यह उन्माद हजारों सालों में विकसित की गई एक व्यवस्थित समाज व्यवस्था को स्वेच्छाचारी समाज के रूप में बदल रही है ।
महात्मा गांधी से हजारों लोगों ने यह प्रश्न किया था कि जब अंग्रेजों ने हिंसा के बल पर, हमें गुलाम बनाया है तो हम उनसे अहिंसा के रास्ते आजादी कैसे हासिल कर सकते हैं? गांधीजी बार-बार कहते थे कि आपका तर्क तर्क है समाधान नहीं।
monopoly politics अंग्रेजों के पास जितना असला, जितना गोला- बारूद है उससे लडऩे के लिए हमें भी उतना ही गोला बारूद और असला इकठ्ठा करना पड़ेगा। क्या यह प्राप्त करने के लिए गरीब भारत के पास धन है ? क्या इसे इकठ्ठा करने के लिए 50-100 साल तक इस काम में जुटे रहने का हमारे पास धैर्य है? क्या ऐसी एक निष्ठा है?
अगर नहीं तो हथियारों के खिलाफ निशस्त्र संघर्ष का रास्ता ही जीत का रास्ता है।वे कहते थे कि जिन अंग्रेजों के राज में सूरज अस्त नहीं होता उनसे हथियारों से लडऩे का अर्थ है कि अपने लोगों को जागरूक किए बिना ही मौत के कुएं में ढकेलना ।अंग्रेजों ने हिंसा के बल पर जो भी प्राप्त किया है वह उन्हें संतोष देने वाला नहीं है ।
आज नहीं तो कल अंग्रेजों का सब कुछ हासिल कर लेने का भ्रम टूट जाएगा। हथियारों से जिस तरह का समाज प्राप्त होता है वह स्वत: नष्ट हो जाता है लेकिन नैतिक बल से बनाया गया समाज ,एक संस्कृति और एक पूरी नागरिकता का निर्माण करता है।
monopoly politics समाज में फैल रही उन्माद की प्रवृतियां आगाह कर रही हैं कि अगर शिखर पर बैठे हुए लोग इसे बढ़ावा देते रहेंगे, तो यह उन्माद समाज के ताने बाने को दीमक की तरह चट कर जायेगा।फिर घुन लगे समाज को ठीक करने के लिये सैकड़ों साल का धैर्य किसके पास है?
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)