महिला सशक्तिकरण या चुनावी सौदा?

बिहार की महिलाओं के खाते में पहुँचे 10-10 हज़ार, सवाल यह कि राहत स्थायी है या वोटों की रिश्वत। भारतीय राजनीति का इतिहास नारों की कब्रगाह है। कभी गरीबी हटाओ ने कांग्रेस की नैया पार लगाई, तो कभी अच्छे दिन और सबका साथ-सबका विकास ने उम्मीदों का कारोबार किया। कभी नोटबंदी को अच्छे कल का सपना बताया गया, कभी राममंदिर और धारा 370 हटाने को ऐतिहासिक बताया गया। दरअसल, हर चुनाव के पहले कोई नया नारा, कोई नई सौग़ात जनता की थाली में परोसी जाती है। अब बारी महिलाओं की है, जिनकी ताक़त को राजनीतिक दलों ने अंतत: वोट बैंक के रूप में समझ लिया है। आधी आबादी का मतलब अब आधा सत्ता समीकरण है।
बिहार इसका ताज़ा मंच है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना का शुभारंभ किया और ऐलान हुआ कि 75 लाख महिलाओं के खातों में सीधे 10-10 हज़ार रुपये डाले जाएंगे। कुल 7,500 करोड़ रुपये का पैकेज—सुनने में कितना बड़ा, लेकिन असल सवाल उतना ही पुराना: यह सशक्तिकरण है या चुनावी सौदा?
बिहार की हकीकत सामने रखिए। महिला श्रम भागीदारी राष्ट्रीय औसत से आधी है। महामारी ने बेरोजग़ारी को और गहरा दिया। ऐसे में 10,000 रुपये की मदद छोटी दुकानों या सिलाई-कढ़ाई जैसे कामों के लिए सहारा हो सकती है। लेकिन जो सरकार 20 साल से सत्ता में है, उसे यह ख्याल चुनाव से ठीक पहले क्यों आता है? क्या महिलाओं की तकलीफ़ें सिफऱ् चुनावी कैलेंडर में दिखाई देती हैं?
प्रधानमंत्री ने इसे महिलाओं के सपनों को पूरा करने का शक्तिशाली माध्यम कहा और विपक्ष को जंगलराज की याद दिलाई। लेकिन विपक्ष का पलटवार और भी तीखा रहा—तेजस्वी यादव ने इसे सामूहिक रिश्वत बताया। सोशल मीडिया पर भी सवाल यही उठा कि क्या चुनाव से ठीक पहले खाता भरना लोकतांत्रिक भलाई है या वोटों की खरीद-फरोख्त?
योजना का सकारात्मक पहलू नजऱअंदाज़ नहीं किया जा सकता। बिहार जैसे गरीब राज्य में यह पैसा महिलाओं के लिए संबल बन सकता है। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि महंगाई में यह रकम ज़्यादा दिन टिकने वाली नहीं। बिना प्रशिक्षण, बाज़ार से जुड़ाव और निगरानी व्यवस्था के यह योजना एक बार की राहत बनकर रह जाएगी। चयन प्रक्रिया की पारदर्शिता पर भी प्रश्नचिह्न है—क्या वाकई यह सबकी पहुँच तक पहुँचेगी या केवल राजनीतिक लाभार्थियों तक सीमित रह जाएगी? 2020 के चुनावों में भी ऐसी घोषणाओं का तांडव देखा गया था, जिनकी याद अब धुंधली हो चुकी है। जनता ने वादों की फाइलें बंद कर दीं, लेकिन सत्ता का गणित चलता रहा। यही डर है कि यह योजना भी उन्हीं अधूरी कहानियों का हिस्सा न बन जाए।
सच यह है कि महिलाओं की आर्थिक भागीदारी बढ़ाए बिना बिहार का विकास संभव नहीं। यदि इस योजना को ईमानदारी, सख़्त निगरानी और निरंतरता के साथ लागू किया गया, तो यह समाज में वास्तविक बदलाव ला सकती है। लेकिन अगर यह केवल चुनावी गोटी बिछाने की चाल निकली, तो यह लोकतंत्र को और खोखला करेगी, जहाँ गऱीबी और ज़रूरत को वोट की बोली में तौला जाता है।
अंतत: यह फ़ैसला बिहार की महिलाएँ ही करेंगी क्या यह 10-10 हज़ार उनके सपनों का बीज बनेंगे या राजनीति के आईने में सिफऱ् एक और परछाईं। सत्ता को याद रखना चाहिए कि कल्याणकारी योजनाओं का मक़सद चुनाव जीतना नहीं, बल्कि समाज बदलना होना चाहिए। महिला सशक्तिकरण सत्ता का सौदा नहीं, बल्कि समाज का बदलाव होना चाहिए। यही लोकतंत्र की सच्ची परीक्षा है।

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