स्त्री का मौन और विनोद कुमार शुक्ल की कोमल पितृसत्ता

ज्योति शर्मा

विनोद कुमार शुक्ल का साहित्य सतह पर अत्यंत शांत, विनम्र और लगभग पारलौकिक प्रतीत होता है। जैसे बारिश के बाद किसी छोटे शहर के आकाश में हल्की धूप उतर आई हो। वहां किसी बड़ी दुर्घटना का शोर नहीं, बस धीरे-धीरे चलती जीवन की वह आभा है जो मामूली चीज़ों को भी कविता बना देती है। यही उनकी भाषा की सबसे बड़ी शक्ति है और शायद, सबसे बड़ा छल भी। क्योंकि उसकी इस अत्यधिक कोमलता में स्त्री की उपस्थिति एक प्रतीक बन जाती है, मनुष्य नहीं।
विनोद कुमार शुक्ल का पुरुष पात्र हमेशा सोचने वाला है वह ईमानदार है, उदार है, लेकिन उसके पास घर है, समय है और एक गृहिणी है जो उसके संसार को स्थिर रखती है। यह स्त्री ही है जो पति के विचारों की पृष्ठभूमि में गहना बनकर रहती है- गहना इसलिए क्योंकि वह सुंदर है, पर भारी भी और उसका भार वह स्वयं नहीं उठाती, समाज उसके लिए उठाता है।

  1. खिड़की से आती रोशनी नहीं, द्दड्ड5द्ग (नजऱ)
    दीवार में एक खिड़की रहती थी का शीर्षक ही अपने भीतर एक रूपक है-एक दीवार और उसके भीतर एक छोटी-सी खिड़की। यह खिड़की जीवन में खुली संभावना का प्रतीक मानी जाती है। पर इस संभावना पर दृष्टि पुरुष की है, वह स्त्री की दृष्टि नहीं। स्त्री इस दीवार का हिस्सा है, पर खिड़की नहीं खोलती; वह बस उस रोशनी को ग्रहण करती है जो खिड़की से आती है। यहां एक सूक्ष्म बात दिखाई देती है- शुक्ल का संसार बदलना चाहता है, पर उसकी गति स्थिर है। वह परिवर्तन की कल्पना तो करता है, पर उसकी व्यवस्था में स्त्री की सक्रिय उपस्थिति नहीं। जैसे कविता में केवल प्रेरणा होने का अधिकार है, निर्णय का नहीं।
  2. कविता में घर-पर घर किसका?
    विनोद कुमार शुक्ल की कविताओं में घर बार-बार आता है। कविता में घर उनकी सबसे भावनात्मक रचनाओं में से है। पर यहाँ जो घर है, वह गृहस्थी नहीं, एक भाव है। इस घर में स्त्री की मौजूदगी अनिवार्य है, पर उसका रूप अस्पष्ट है। वह बोलती नहीं, पर उसका काम सब कुछ
    साफ़ रखता है – जैसे शब्द कविता को चमकाते हैं, पर पाठ में अदृश्य रहते हैं।
    स्त्री यहां कवि की संवेदना का सहज आलंकारिक विस्तार बन जाती है। वह अपनी उपस्थिति से कविता में गुनगुनाहट जोड़ती है, पर उसके भीतर की खामोशी लेखक का विषय नहीं। वह प्रेम की छाया में है, पर स्वयं प्रेम नहीं कहती। विनोद कुमार शुक्ल की स्त्रियाँ हवा की तरह हैं- जीवन को चलाए रखती हैं, पर हवा का अपना रास्ता पुरुष तय करता है। इस हवा में सौंदर्य है, पर स्वतंत्रता नहीं।
  3. पितृसत्ता की कोमल तकनीक
    पारंपरिक पितृसत्ता स्त्री से आदेश में बात करती थी-घर से बाहर मत जाओ, इतनी ऊँची मत हँसो, इतना मत सोचो। लेकिन आधुनिक साहित्य की कोमल पितृसत्ता उसे धीरे से यह कहती है, तुम्हारी मासूमियत ही दुनिया की सुंदरता है। यह कहकर वह स्त्री को फिर से एक आदर्श रूप में बाँध देती है जहां उसकी परिपक्वता, जटिलता और आत्मनिर्णय असुविधाजनक ठहराए जाते हैं। विनोद कुमार शुक्ल का साहित्य इसी कोमल पितृसत्ता का उदाहरण है। वहाँ स्त्री को पीडि़त नहीं दिखाया जाता बल्कि इतना सहेया जाता है कि वह अपने अनुभवों की जरुरत ही भूल जाती है। भारती, सावित्री, मीरा या महादेवी की परंपरा यह स्त्री अब सहानुभूति की पुतली बन जाती है। उसे तर्क की ज़रूरत नहीं, वह अनुभव बनकर मौजूद है और इस रूप में वह मुक्त नहीं, बल्कि और गहराई से परिभाषित है।
  4. मनुष्य की परिभाषा में स्त्री का अभाव
    विनोद कुमार शुक्ल का साहित्य जब मनुष्य की बात करता है, तो वह मानो एक साझा स्थिति बना देता है जैसे कि संवेदना सबकी समान है। पर इस समानता में लिंग का फर्क घुला नहीं है, बस ढँक गया है। मनुष्य का यह स्वरूप अभी भी लिंग निरपेक्ष नहीं, पुरुष है जो सोचता है, अनुभव करता है और स्त्री को अपनी करुणा के विस्तार के रूप में देखता है।
    इस दृष्टि में स्त्री बराबर नहीं, बल्कि प्रिय है। और यही प्रिय सबसे अधिक खतरनाक है, क्योंकि यह प्रेम में अधिकार छिपा देता है। शुक्ल के संसार में स्त्री को जो सम्मान मिलता है, वह उसके त्याग और निस्सहाय करुणा, उसके मौन या मात्र कोमल कोमल बोलने की कीमत पर निर्मित है। वह इसलिए पूज्य है, क्योंकि वह प्रतिरोध नहीं करती।
  5. समकालीन नारीवादी दृष्टि से
    अगर समकालीन स्त्री-विमर्श की दृष्टि से देखें जैसे कि सिमोन द बोउवार, गायत्री स्पिवाक या नयनतारा सहगल की विचारधाराओं के आलोक में तो शुक्ल की स्त्री द अदर की परंपरा से निकल नहीं पाती। वह समाज की परिधि पर मौजूद है; कवि उसे देखता है, पर वह अपने देखे जाने की क्रिया पर सवाल नहीं उठाती। आज की स्त्री-लेखन की धाराएँ इस प्रश्न को उलट देती हैं वे कहती हैं, स्त्री सिर्फ आह्लाद या करुणा का प्रतीक नहीं वह विचार की वाहक है, निर्णय की एजेंट है। जबकि विनोद कुमार शुक्ल का साहित्य अभी भी भावना के नैरेटिव में अटका पड़ा है, जहाँ पुरुष संवेदना का सूत्रधार है और स्त्री उसकी सजीव प्रतीक।
  6. भाषा की राजनीति
    शुक्ल की भाषा अत्यंत सुंदर है वह शब्दों को इस तरह सजाती है जैसे कोई किसान खेत में पानी छोड़ता हो। पर यह भाषा भी वर्णनात्मक करुणा की भाषा है, अनुभव की नहीं। उसकी संरचना

इतनी नम्र है कि उसमें स्त्री के भीतर उठता कोई छोटा विद्रोह, कोई आत्म सुनाई देना तक गुम हो जाता है। भाषा का यह नम्र व्यवहार भी एक सत्ता-तंत्र है। यहाँ पितृसत्ता शोर से नहीं, मौन की सज्जनता से काम करती है। साहित्य में इसे सांस्कृतिक पितृसत्ता कहा जा सकता है जो हिंसा की नहीं, स्वीकृति की भाषा बोलती है।

  1. एक स्त्री की दृष्टि से
    स्त्री होकर जब मैं विनोद कुमार शुक्ल को पढ़ती हूँ, तो मुझे लगता है, वे जगत को बहुत निष्कपट प्रेम से देखते हैं लेकिन यह प्रेम एकतरफ़ा है। वह पिता की तरह है, जो स्नेह में अपना नियंत्रण नहीं पहचानता। और मैं सोचती हूँ क्या स्नेह, अपने आप में, मुक्त करता है? या वह भी बाँधता है, बस रेशमी डोर से?
    उनकी कविताओं में मैं अपने लिए जगह ढूँढती हूँ- पर वहाँ मुझे या तो फूल बनना पड़ता है, या बारिश की बूँद। मैं न गुस्सा हो सकती हूँ, न असहमति प्रकट कर सकती हूँ। यहाँ असहमति का अर्थ असुंदर हो जाना है, या प्रेम में असहमति जैसे असहमतियाँ ही सह्य रही आती है। और यही सबसे गहरी कारावास की दीवार है – सौंदर्य के भीतर की कैद ।
  2. निष्कर्ष – कोमलता की आलोचना
    विनोद कुमार शुक्ल का संसार किसी वैचारिक शत्रुता का नहीं, बल्कि संवेदना की अच्छाई का संसार है। पर यही अच्छाई जब निरपेक्ष होती है, तो पितृसत्ता की सर्वाधिक स्थायी भूमि तैयार करती है- क्योंकि कोई उससे प्रश्न नहीं करता। उनकी कोमलता इसलिए संशयास्पद है कि वह परिवर्तन से अधिक संतोष को महत्व देती है।
    इस दृष्टि से देखें तो उनकी स्त्री-दृष्टि मौन की सौंदर्यशास्त्र से गढ़ी गई है – जिसमें कोई चीख नहीं है, कोई असहमति नहीं, और इसलिए कोई मुक्ति भी नहीं। शुक्ल के यहाँ स्त्री एक ख़ामोश उजाला है – जो रोशनी तो देता है, पर दिखाई नहीं देता।
    यही वह क्षण है जहाँ साहित्य की करुणा और समाज की पितृसत्ता एक दूसरे में विलीन हो जाती है और हम देख नहीं पाते कि संवेदना कैसे सत्ता का रूप ले लेती है।

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