दिल्ली : मई 1988 में दादर-नागपुर एक्सप्रेस पर ड्यूटी कर रहे TTE VM सौदागर पर रेलवे सतर्कता दल ने इल्ज़ाम लगाया था कि उन्होंने तीन मुसाफिरों से सीट देने के बदले 50 रुपये की रिश्वत मांगी। विभाग ने केस दर्ज किया, जांच चली और 1996 में उन्हें नौकरी से बर्खास्त कर दिया। यही वह पल था जब एक नेक अधिकारी की जिंदगी हमेशा के लिए बदल गई।
बर्खास्तगी के बाद सौदागर ने अपना पक्ष केंद्रीय प्रशासनिक अधिकरण में रखा। साल 2002 में अधिकरण ने फैसला सुनाया कि रिश्वत के दावों के लिए कोई पुख्ता प्रमाण नहीं हैं और उनकी नौकरी बहाल होनी चाहिए। मगर रेलवे ने इस आदेश को बॉम्बे हाईकोर्ट में चुनौती दी। मामला सालों तक वहीं लटका रहा और इसी दौरान सौदागर का देहांत हो गया। परिवार ने हिम्मत नहीं हारी और इंसाफ की आस में सुप्रीम कोर्ट पहुंचा।
सुप्रीम कोर्ट की दो जजों वाली बेंच ने रिकॉर्ड की गहन समीक्षा की और पाया कि जांच अपूर्ण थी। यात्रियों के बयानों पर भरोसा नहीं किया जा सकता क्योंकि एक की गवाही ली ही नहीं गई और बाकी दोनों ने भी रिश्वत की कोई तस्दीक नहीं की। कोर्ट ने यह भी स्वीकार किया कि सौदागर ने यात्रियों से सिर्फ इतना कहा था कि दूसरे कोचों की जांच पूरी होने पर उनकी रकम लौटा देंगे यह रेलवे की सामान्य नीति है। इसी आधार पर अदालत ने कहा कि बर्खास्तगी गलत और गैरकानूनी थी।
फैसले में साफ निर्देश दिया गया कि सौदागर के वारिसों को सभी बकाया वित्तीय लाभ, पेंशन और ग्रेच्युटी फौरन मिलनी चाहिए। कोर्ट ने ज़ोर दिया कि जब किसी कर्मचारी के खिलाफ पक्के सबूत न हों तो महज शक की बिना पर की गई कार्रवाई न्याय नहीं, ज़ुल्म है।