Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – चुनाव की नब्ज़ टीआरपी और सट्टे में नहीं, मतदाता के मन में है

बिहार विधानसभा चुनाव की सरगर्मी चरम पर है। गांव की चौपाल से लेकर शहरों की कॉफी टेबल तक, हर जगह यही चर्चा है इस बार सत्ता किसके हाथ आएगी? 6 और 11 नवंबर को पडऩे वाले मतदान से पहले ज़मीनी हवा टटोलने के साथ-साथ टीवी स्क्रीन, सोशल मीडिया और अब सट्टा बाजार भी अपने-अपने अंदाज़ परोस रहे हैं। राजनीति जैसे-जैसे आम जनमानस के जीवन का प्राथमिक विमर्श बनती जा रही है, वैसे-वैसे चुनाव एक राज्य का नहीं, पूरे देश का उत्सव और संघर्ष प्रतीत होता है।
टीवी चैनलों पर बहसें धधक रही हैं। विश्लेषक, एंकर और राजनीतिक प्रवक्ता मिलकर ऐसा माहौल बनाते हैं मानो उनकी थ्योरी ही अंतिम सत्य हो। लेकिन विडंबना यह है कि इन बहसों का झुकाव अक्सर सत्ता की ओर दिखता है विज्ञापन और राजनीतिक समीकरण कई बार ‘तटस्थताÓ को धुंधला कर देते हैं। पत्रकार और प्रवक्ता में फर्क मिटता जा रहा है। नरेटिव गढ़े जाते हैं, हवा बनाई जाती है और मतदाता को बताया जाता है कि जनता क्या सोच रही है। कई बार यह भी एक तरह से पेड न्यूज़ का हिस्सा होता है। अपने पक्ष में हवा बनाने के लिए अनेक दल इस तरह की डिबेट प्रायोजित करते हैं।
इसी बीच राजस्थान का मशहूर फलोदी सट्टा बाजार भी मैदान में उतर चुका है। उसने बिहार के लिए सीटों का अनुमान बांट दिया है। उसके मुताबिक हवा एनडीए के पक्ष में है और 243 सीटों में उसे 128-134 सीटें मिल सकती हैं। बीजेपी 66-68 और जेडीयू 54-56 सीटों पर नजऱ गड़ाए बैठी है। तेजस्वी यादव के नेतृत्व वाले महागठबंधन को 93-99 सीटों के बीच माना जा रहा है। इतना ही नहीं, सट्टा बाजार ने नीतीश कुमार की वापसी पर भी भारी भरोसा जताया है।
बेशक, यह बाजार वर्षों से कई चुनावों में अपनी सटीकता का दावा करता है और उसके अनुमान कई बार चौंकाने वाले और सही भी साबित हुए हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या लोकतंत्र का भविष्य अब टीवी स्टूडियो और सट्टा बाजार में तय होगा? क्या जनभावना का आईना अब टीआरपी और रेट्स दिखाएंगे? याद रखना चाहिए कि अनुमान और वास्तविकता में जमीन-आसमान का अंतर होता है। चुनाव सिर्फ रणनीति, प्रचार और हवा का खेल नहीं, यह उस मतदाता का निर्णय है जो दरवाजे पर आने वाले नेता से पूछता है—पांच साल में आपने मेरे लिए क्या किया?
मीडिया का एक हिस्सा आजकल जिस तरह सत्ता का मुखपत्र लगने लगा है, उससे लोकतांत्रिक विमर्श कमजोर होता है। अखबार विज्ञापन के बोझ तले तथ्य और सत्य के बीच झूलते दिखते हैं। ऐसे में चुनाव नतीजे तय करने की भूमिका मतदाता के हाथ से छीनकर स्क्रीन और सट्टे के सौदागरों को सौंप दी जाए—यह खतरनाक स्थिति होगी। चुनाव का असली फैसला बिहार की जनता करेगी न कि टीवी डिबेट, न स्पॉन्सर्ड सर्वे और न ही सट्टा बाजार। मतदाता ने सरकारों का काम देखा है, प्रतिनिधियों का व्यवहार देखा है, वादों और हकीकत का फर्क महसूस किया है और सभी लोग यह अच्छी तरह से जानते हैं कि इतिहास में ऐसा कई बार घटित हुआ है कि मतदाता खामोश रहता है और एकाएक बड़ा उलटफेर करता है।
14 नवंबर को जब नतीजे आएंगे, तब यह भी साफ होगा कि किसका अनुमान जीतता है-फलोदी का हिसाब, टीवी स्टूडियो की थ्योरी या आम मतदाता की चुप्पी। मगर लोकतंत्र में अंतिम आवाज़ हमेशा मतदान केंद्र से निकलनी चाहिए, न कि बाजार और मीडिया की डेस्क से। आखिरकार, लोकतंत्र की प्रतिष्ठा यही है कि सत्ता जनता देती है—और जनता से बड़ी कोई भविष्यवाणी नहीं होती।

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