-सुभाष मिश्र
भारतीय न्याय व्यवस्था में अब क्रूरता के अर्थ और संदर्भ बदल रहे हैं। दैहिक क्रूरता के अलावा मानसिक क्रूरता भी तलाक की वजह बन रही है। तलाक के संदर्भ में सिर्फ स्त्री को ही विक्टिम की तरह नहीं देखा जाता है इसलिए पिछले एक दशक में तलाक के लिए अदालत में आए मुकदमों में स्त्री द्वारा दायर किए गए विक्टिम के अधिकतर मुकदमे झूठे पाए गए। अदालतें अब तलाक के संदर्भ में अनेक विकल्प प्रस्तुत करने की कोशिश कर रही है। यह तो आप स्पष्ट हो गया है कि समझौते के बाद भी दंपत्ति का साथ रहना मुश्किल ही रहता है ऐसे में प्राय: ऐसे सद्भाव रखने वाले उत्साही जज को तो लोकप्रियता मिल जाती है लेकिन दांपत्य तो फिर भी मुश्किल में ही रहता है। नए विकल्पों को कानूनी मान्यता दर्शाती है कि समाज में वैकल्पिक रिश्तों को स्वीकार करने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। इस संदर्भ में दुर्ग (छत्तीसगढ़) फैमिली कोर्ट और हाई कोर्ट से संबंधित एक महत्वपूर्ण फैसले की बहुत चर्चा है। इस फैसले में हाई कोर्ट ने पति को पत्नी से तलाक की अनुमति दी है। दरअसल, पति और पत्नी दोनों बार-बार घर के ग्राउंड फ्लोर और फस्र्ट फ्लोर पर रहने और संयुक्त यात्राओं को लेकर बार-बार झगड़ा कर रहे थे। यह मामला तलाक के आधार पर मानसिक क्रूरता को रेखांकित करता है और भारतीय समाज में विवाह संस्था के बदलते स्वरूप को दर्शाता है।
पति ने तलाक की याचिका दायर की थी, जिसमें उसने पत्नी पर बार-बार ग्राउंड फ्लोर और फस्र्ट फ्लोर पर रहने के लिए दबाव बनाना तथा आपसी सहमति से संयुक्त यात्राएं करने की जिम्मेदारी लेने का आरोप लगाया। इसके अलावा पत्नी ने पति पर बेबुनियाद आरोप लगाए, जैसे सास के साथ अवैध संबंध और दहेज उत्पीडऩ और कार्यस्थल पर उत्पात मचाया। हाई कोर्ट ने पत्नी के व्यवहार को मानसिक क्रूरता माना और पति को तलाक की अनुमति दी। कोर्ट ने कहा कि पति और पत्नी दोनों अपने व्यक्तिगत खर्च, बैंक खाते, पेंशन, वेतन और आय से संबंधित जिम्मेदारी आपस में बाँट रहे थे, लेकिन पत्नी के व्यवहार ने पति को मानसिक रूप से प्रभावित किया।
यह फैसला कई मायनों में भारतीय समाज में विवाह और तलाक से संबंधित बदलते दृष्टिकोण को दर्शाता है। पारंपरिक रूप से तलाक के लिए शारीरिक क्रूरता को आधार माना जाता था। लेकिन इस मामले में हाई कोर्ट ने पत्नी के बेबुनियाद आरोपों और उसके व्यवहार को मानसिक क्रूरता माना, जो पति के मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित कर रहा था। यह दर्शाता है कि कोर्ट अब व्यक्तिगत कल्याण और मानसिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता दे रहे हैं।
यह फैसला सुप्रीम कोर्ट के पिछले निर्णयों (समर घोष वर्सेस जया घोष, 2007) के अनुरूप है, जहां मानसिक क्रूरता को तलाक का आधार माना गया था। कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि पति और पत्नी दोनों अपनी-अपनी आय, संपत्ति, और खर्चों को स्वतंत्र रूप से संभाल रहे थे। यह दर्शाता है कि विवाह में आर्थिक और व्यक्तिगत स्वायत्तता को अब अधिक महत्व दिया जा रहा है जो पारंपरिक पति-पत्नी एक इकाई की अवधारणा से हटकर है।
कोर्ट ने यह भी नोट किया कि पति और पत्नी के बीच आपसी सहमति से संयुक्त यात्राएं करना और बार-बार ग्राउंड फ्लोर व फस्र्ट फ्लोर पर रहने की व्यवस्था करना वैवाहिक संबंधों में संतुलन की कमी को दर्शाता है। यह एक तरह से रिश्ते में अनडिफाइंड कैजुअल रिलेशनशिप की ओर इशारा करता है जहां पारंपरिक वैवाहिक प्रतिबद्धता कमजोर हो रही है। इस फैसले और ओटीटी प्लेटफॉम्र्स पर दिखाए जा रहे रिश्तों के आधार पर यह स्पष्ट है कि भारत में विवाह नामक संस्था में बदलाव आ रहा है। ये बदलाव सामाजिक, कानूनी, और सांस्कृतिक स्तर पर देखे जा सकते हैं। पारंपरिक रूप से, भारत में विवाह को एक पवित्र और अटूट बंधन माना जाता था, जहां तलाक को सामाजिक कलंक के रूप में देखा जाता था। लेकिन इस फैसले और बढ़ते तलाक के मामलों से पता चलता है कि अब विवाह को एक अनुबंध के रूप में देखा जा रहा है जो टूट सकता है यदि वह व्यक्तिगत खुशी और कल्याण को प्रभावित करता है।
इस फैसले में पति और पत्नी की स्वतंत्र आय और संपत्ति को हाइलाइट किया गया है। यह भारत में बढ़ती आर्थिक स्वतंत्रता, खासकर महिलाओं की स्वतन्त्रता को दर्शाता है। इंडिया टुडे सेक्स सर्वे 2017 के अनुसार, 41 प्रतिशत पुरुष और 29 प्रतिशत महिलाएं वन-नाइट स्टैंड्स के प्रति खुले विचार रखते हैं जो व्यक्तिगत स्वायत्तता की बढ़ती स्वीकार्यता को दिखाता है। कोर्ट अब मानसिक क्रूरता, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और वैवाहिक संबंधों में संतुलन की कमी जैसे आधारों पर तलाक को मंजूरी दे रहे हैं। अर्थात् कानूनी ढांचा भी बदलते सामाजिक मूल्यों के साथ कदम मिला रहा है। लिव-इन रिलेशनशिप्स को सुप्रीम कोर्ट ने कुछ शर्तों के साथ वैध माना है (तुलसा बनाम दुर्गथीया, 2008) और इस तरह के रिश्तों में महिलाओं को मेंटेनेंस का अधिकार भी दिया गया है। यह विवाह के अलावा अन्य रिश्तों को सामाजिक और कानूनी मान्यता देने की ओर एक कदम है।
हालांकि, छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट ने लिव-इन रिलेशनशिप को भारतीय संस्कृति के लिए कलंक कहा (दा वायर, 2024) जो दर्शाता है कि समाज में अभी भी इस मुद्दे पर मतभेद है। पहले विवाह को बनाए रखने के लिए व्यक्तिगत कल्याण को अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता था। छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट का यह फैसला और ओटीटी प्लेटफॉम्र्स पर दिखाए जा रहे नए रिश्तों के स्वरूप से स्पष्ट है कि भारत में विवाह संस्था में बदलाव आ रहा है। विवाह अब केवल एक सामाजिक या धार्मिक बंधन नहीं रहा, बल्कि एक ऐसा रिश्ता बन गया है जिसमें व्यक्तिगत खुशी, स्वतंत्रता और मानसिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता दी जा रही है। तलाक के बढ़ते मामले, कानूनी सुधार और वैकल्पिक रिश्तों की स्वीकार्यता इस बदलाव के संकेत हैं। हालांकि, यह बदलाव शहरी और ग्रामीण भारत में असमान रूप से हो रहा है और सामाजिक तनाव भी पैदा कर रहा है।
आजकल ओटीटी प्लेटफॉम्र्स जैसे नेटफ्लिक्स, अमेजऩ प्राइम, और डिज़्नी+ हॉटस्टार पर भारतीय सीरीज़ और फिल्में रिश्तों के नए और गैर-पारंपरिक रूपों को दर्शा रही है। इनमें अनडिफाइंड कैजुअल रिलेशनशिप (बिना किसी औपचारिक प्रतिबद्धता के रिश्ते), ओपन रिलेशनशिप (जहां पार्टनर एक-दूसरे को अन्य लोगों के साथ रोमांटिक या यौन संबंधों की अनुमति देते हैं) और वन-नाइट स्टैंड्स (एक रात के लिए यौन संबंध) जैसे विषय प्रमुखता से दिखाए जा रहे हैं।
भारतीय समाज, विशेष रूप से शहरी युवा, वैश्विक संस्कृति और पश्चिमी विचारों से प्रभावित हो रहा है। ओटीटी सीरीज़ जैसे परमानेंट रुम मेट्स और लिटिल थिंग्स कैजुअल रिलेशनशिप और लिव-इन रिलेशनशिप को सामान्य रूप से दर्शाते हैं जो शहरी भारत में बढ़ती स्वीकार्यता को दिखाता है। ये शो रिश्तों में व्यक्तिगत स्वतंत्रता और आत्मनिर्णय को प्राथमिकता देते हैं।
महिलाओं की स्वायत्तता के तहत इन कहानियों में महिलाओं को अपनी यौन और रोमांटिक पसंद चुनते हुए दिखाया जाता है जो पारंपरिक लैंगिक भूमिकाओं से हटकर है। उदाहरण के लिए मैड इन हेवन जैसी सीरीज़ में ओपन मैरिज और एक्स्ट्रा-मैरिटल अफेयर्स को जटिल मानवीय दृष्टिकोण से दिखाया गया है। फिर यह भी सच है कि इस तरह की फि़ल्में और सीरीज का असली मकसद सामाजिक बदलाव के यथार्थ को दिखाने की अपेक्षा व्यावसायिक लाभ ज्यादा होता है। समाज में जो मौजूद है उससे कहीं आगे जाकर संभावना को घटित की तरह दिखाने की कोशिश भी एक तरह से समाज को दूषित करने की कोशिश है। निश्चित रूप से भारतीय समाज में खुलापन आया है और भारतीय युवा वर्ग में पश्चिमी समाज की तरह खुलेपन के प्रति ललक बढ़ी है लेकिन जो कुछ पश्चिमी समाज में हो रहा है, वह भारतीय समाज में अभी पूरी तरह से स्वीकार नहीं है और न समाज में इस सीमा तक खुलापन आया है लेकिन ऐसी फि़ल्में और सीरीज यह बताने की कोशिश करती है कि भारतीय समाज में यह सब कुछ घटित हो रहा है बल्कि भारतीय समाज इसको स्वीकार भी कर रहा है। यह एक बाजारू षड्यंत्र है। व्यावसायिक लोभ में एक किस्म की धूर्तता है और इसमें ओटीटी पर मौजूद कोई भी चैनल संकोच नहीं कर रहा है।
भारत में 41 प्रतिशत पुरुष और 29 प्रतिशत महिलाएं वन-नाइट स्टैंड्स के प्रति खुले विचार रखते हैं (इंडिया टुडे सेक्स सर्वे 2017) जो एक खतरे की संभावना है। दरअसल, समाज में विचारों के स्तर पर खुलापन आना चाहिए लेकिन देह के स्तर पर आ रहा है। यदि व्यक्ति की जीवन शैली से समाज का एक बड़ा हिस्सा दूषित हो रहा है तो इसे गलत मानने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए।
ओटीटी पर मौजूद सीरीज और फिल्में विवाह को एकमात्र वैध रिश्ते के रूप में प्रस्तुत करने के बजाय वैकल्पिक रिश्तों की वैधता पर चर्चा करती हैं। उदाहरण के लिए फोर मोर शाट्स प्लीज! में महिलाएं अपनी यौन स्वतंत्रता और गैर-मॉनोगैमस रिश्तों को अपनाती है जो दर्शकों को विवाह की अनिवार्यता पर सवाल उठाने के लिए प्रेरित करता है। ओपन रिलेशनशिप को दर्शाने वाली कहानियां, जैसे कि मसाबा मसाबा में कुछ किरदारों के रिश्ते, यह संदेश देती है कि मॉनोगैमी सभी के लिए जरूरी नहीं है। यह समाज में विवाह की पवित्रता के पारंपरिक विचार को चुनौती देता है। हालांकि शहरी दर्शक इन विषयों को प्रगतिशील मानते हैं, ग्रामीण और रूढि़वादी समुदायों में इन्हें अनैतिक माना जाता है। छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट ने लिव-इन रिलेशनशिप को भारतीय संस्कृति के लिए कलंक और आयातित दर्शन कहा जो सामाजिक तनाव को दर्शाता है।
भारत में तलाक के मामले बढ़ रहे हैं जो सामाजिक और कानूनी बदलावों का संकेत है। दी लीगल क्रूसेडर (2025) के अनुसार, प्रतिदिन लगभग 100 तलाक के मामले दर्ज हो रहे हैं जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता, आर्थिक स्वायत्तता और बदलते लैंगिक भूमिकाओं को दर्शाता है। ये बदलाव विवाह संस्था को भी प्रभावित कर रहे हैं। तलाक के कारणों में महिलाओं की आर्थिक स्वतंत्रता भी है जिसके कारण वे असंतोषजनक विवाह से बाहर निकलने का साहस दिखा रही हैं। तलाक अब पहले की तरह सामाजिक कलंक नहीं रहा, खासकर शहरी क्षेत्रों में। म्यूचुअल कंसेंट डिवोर्स की प्रक्रिया को सरल करने वाले कानूनी सुधार (हिंदू मैरिज एक्ट 2020) ने भी तलाक को आसान बनाया है।
एक आधार यह भी है कि हिंदू मैरिज एक्ट 1955 और स्पेशल मैरिज एक्ट 1954 में इर्रेट्रीवेबल ब्रेकडाउन ऑफ मैरिज को तलाक के आधार के रूप में जोड़ा गया है, जिससे जोड़े बिना किसी को दोष दिए तलाक ले सकते हैं। तलाक के बाद मेंटेनेंस और बच्चों की कस्टडी में महिलाओं को समान अधिकार देने पर जोर दिया जा रहा है। कोर्ट ने लिव-इन रिलेशनशिप में महिलाओं को प्रोटेक्शन ऑफ़ वूमेन फ्रॉम डॉमेस्टिक वायलेंस एक्ट 2005 के तहत संरक्षण और मेंटेनेंस का अधिकार दिया है, जो विवाह के समान अधिकारों को दर्शाता है। इस तरह का फैसला विवाह में पारस्परिक सम्मान और संचार की आवश्यकता को रेखांकित करता है। यह यह भी दिखाता है कि कोर्ट अब पारंपरिक रूप से विवाह को बनाए रखने के बजाय व्यक्तिगत कल्याण को महत्व दे रहे हैं। विवाह को पवित्र और अटूट मानने की धारणा कमजोर हो रही है। दी लीगल क्रूसेडर (2025) में कहा गया कि विवाह अब अनब्रेकेबल इंस्टीट्यूशन नहीं माना जा रहा, बल्कि व्यक्तिगत खुशी और स्वायत्तता को प्राथमिकता दी जा रही है।
इसके अलावा वेलुसेमी व्ही. डी. पैचियाममल (2010) में कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि लिव-इन रिलेशनशिप को विवाह की प्रकृति में रिश्ता माना जा सकता है, बशर्ते वह स्थायी और गंभीर हो। वैकल्पिक रिश्तों को कानूनी मान्यता मिलने के बावजूद, इनके लिए स्पष्ट कानूनों की कमी है। उदाहरण के लिए ओपन रिलेशनशिप्स और वन-नाइट स्टैंड्स को कानूनी रूप से परिभाषित नहीं किया गया है जिसके कारण इन रिश्तों में शामिल लोगों को सामाजिक और कानूनी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। लिव-इन रिलेशनशिप्स में पार्ट्नर्स की भावनात्मक और वित्तीय निर्भरता उन्हें ब्रेकअप के बाद कमजोर स्थिति में छोड़ सकती है, खासकर अगर कानूनी सुरक्षा स्पष्ट न हो।
इसके अलावा ऐसे रिश्तों में बच्चों के अधिकार, संपत्ति के बंटवारे और सामाजिक स्वीकार्यता जैसे मुद्दे अभी भी अनसुलझे हैं। यह विवाह की तुलना में वैकल्पिक रिश्तों को कम स्थिर और जटिल बनाता है। दुर्ग के तलाक के इस केस से कईं बातें पुनर्विचार के लिए तैयार होती है। व्यक्तिगत स्वतंत्रता जीवन में बहुत महत्वपूर्ण है लेकिन विवाह के उपरांत एक दूसरे की भावनाओं का सम्मान, एक दूसरे की स्वतंत्रता का आदर, एक दूसरे के विचारों के लिए सम्मान और एक दूसरे के लिए घर परिवार में पर्याप्त स्पेस बनाकर रखना पति और पत्नी दोनों की जिम्मेदारी है। पश्चिमी समाज में ऐसा होता है इसलिए वहां तलाक बहुत सामान्य बात है। भारतीय समाज में सिर्फ मध्यम वर्ग ही नहीं बल्कि एलीट क्लास में भी आधुनिकता विचारों में नहीं जीवन शैली और पहनावे में आई है। बढ़ती हुई संपन्नता ने व्यक्ति को पहनावे और जीवन शैली में फैशन के लिए उकसाया है लेकिन फैशन और विचारों में आधुनिकता दोनों अलग-अलग चीजें हैं। बाजार के कारण भारतीय समाज में एकाएक दाखिल हुई आधुनिकता ने विचार संपन्न नहीं बनाया। एक दूसरे की स्वतंत्रता को आदर देना नहीं सिखाया इसलिए ऐसी आधी-अधूरी आधुनिकता ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता को जिद की तरह मान लिया। जीवन फैशन के नियमों से नहीं चलता है। भारतीय समाज की संरचना जिस तरह से तैयार हुई है वह बहुत वैज्ञानिक चेतना संपन्न संरचना है। भारतीय संस्कृति में विवाह के पश्चात पति-पत्नी दोनों में परिवार के प्रति जिम्मेदारी और एक दूसरे के प्रति प्रेम आधार बिंदु रहा है। दीर्घ दाम्पत्य जीवन और बढ़ते परिवार की देखभाल और सुरक्षा के लिए भारतीय विवाह की अवधारणा को पश्चिम भी उम्मीद और आश्वस्ति से देखता है।