-सुभाष मिश्र
पूरी दुनिया आज एक-दूसरे से सघन रूप से जुड़ी हुई है। व्यापार हो या युद्ध, महामारी हो या वैश्विक मंदी, हर घटना सीमाएं लांघकर असर छोड़ती है। इस परस्पर निर्भरता ने ही ‘ग्लोबल विलेजÓ की अवधारणा को जन्म दिया, जहाँ वैश्विक हलचल अब किसी एक भूभाग की राह नहीं रह गई। शक्ति संतुलन के इस रंगमंच पर कुछ देश आर्थिक, सैन्य और तकनीकी संसाधनों में शीर्ष पर विराजमान हैं, जिनमें सबसे अग्रिम पंक्ति में यूनाइटेड स्टेट खड़ा दिखाई देता है। वहीं, परंपरागत वैश्विक संतुलन का दूसरा ध्रुव कभी सोवियत यूनियन रहा, तो आज उसकी उत्तराधिकारी शक्ति के रूप में चाइना सामरिक प्रतिस्पर्धा की मुख्य धुरी बन चुका है। यूरोप में फ्रांस और यूनाइटेड किंगडम जैसी ताकतें भी वैश्विक नीतियों और सैन्य समीकरणों में निर्णायक भूमिका निभाती हैं।
दुनिया की निगाह जहां सामरिक हितों पर टिकी है, वहीं बाज़ार की आँखें आबादी की भीड़ पर। भारत और चीन की विशाल जनसंख्या ने दोनों देशों को वैश्विक उपभोक्ता बाज़ार की प्रमुख प्रयोगशालाओं में तब्दील कर दिया है, जहाँ हर उत्पाद, हर सेवा, हर रणनीति पर दुनिया की कंपनियों और शक्तियों की नजऱ रहती है। शीत युद्ध के दौर में भारत की सबसे सघन कूटनीतिक मैत्री मिखाइल गोर्बाचेव की सत्ता वाले सोवियत संघ से बनी, जिसकी छाप हमारी औद्योगिक और रक्षा संरचनाओं में आज भी दर्ज है। भिलाई स्टील प्लांट जैसी महायोजना इसी भरोसे और सहयोग की देन है, जिसने न केवल छत्तीसगढ़ में औद्योगिक क्रांति की नींव रखी, बल्कि भारत-सोवियत मित्रता की अमिट मिसाल भी गढ़ी।
लेकिन राजनीति और कूटनीति स्थायी मित्रताओं की नहीं, स्थायी हितों की भाषा बोलती हैं। सोवियत संघ के विघटन के बाद दुनिया की शक्ति-धुरी बदली, और भारत की विदेश नीति ने भी करवट ली। सामरिक आवश्यकताओं, तकनीकी सहयोग, और वैश्विक मंचों पर बढ़ती भूमिका ने भारत को अमेरिका की ओर निकट आने को प्रेरित किया। 2005 के 123 एग्रीमेंट ने इसी नज़दीकी को संस्थागत शक्ल दी, और 1998 के परमाणु परीक्षण के बाद लगे प्रतिबंधों के दौर से बाहर आकर भारत ने अमेरिका को रणनीतिक भागीदार के रूप में स्वीकारा। फिर 2025 में भारत-अमेरिका रक्षा सहयोग को दस-साल के विस्तारित फ्रेमवर्क में बदलने वाला इंडिया-यूएस डिफेंस फ्रेमवर्क एग्रीमेंट इस बात का ऐलान पत्र बना कि अब रक्षा तकनीक, खुफिया साझेदारी और हिंद-प्रशांत सामरिक संतुलन में भारत को नजऱअंदाज़ नहीं किया जा सकता।
चीन के साथ हमारे रिश्तों का इतिहास भी एक नाटकीय पटकथा जैसा रहा है—कभी ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई के रोमांटिक संवाद, तो कभी सीमाओं पर तनावपूर्ण विराम। 1954 का पंचशील समझौता भरोसे की इबारत लेकर आया था, लेकिन 1962 के युद्ध ने संबंधों में संशय की स्थायी दरार डाल दी। आज भी सीमा विवाद, भू-रणनीतिक असंतुलन, और एक-दूसरे के राजनीतिक-सांस्कृतिक नैरेटिव्स को प्रभावित करने की होड़, रिश्तों को मित्रता और तनाव के दो छोर पर झुलाते रहती है।
इसी वैश्विक शतरंज के बीच, जब ब्लादिमीर पुतिन दिसंबर 2025 को इंडिया-रशिया एनुअल समिट-2025 के लिये भारत आ रहे हैं, तो यह महज़ दो देशों की मुलाक़ात नहीं—बल्कि एक नए शक्ति-संवाद की प्रस्तावना है। यूक्रेन-रूस युद्ध के बाद दुनिया जिस तरह दो खेमों के संघटन में विभाजित दिख रही है, उसमें भारत का रुख़ अब मल्टी-अलाइनमेंट का है, यानी एक साथ कई ध्रुवों से संवाद, कई शक्तियों से सहयोग, और फिर भी अपनी स्वतंत्र नीति का स्वर कायम रखने की क़वायद। भारत गुट निरपेक्षता की उस परंपरा से आता है, जिसने सिखाया था कि किसी भी एक ध्रुव की छाया में खड़े होने से ज़्यादा ज़रूरी है अपने हितों की धूप-छांव खुद तय करना।
अब सवाल यह नहीं कि भारत किसका दोस्त है। सवाल यह है कि भारत अपने लिए कितना उपयोगी दोस्त चुन सकता है और उस दोस्ती का नक्शा उसके राष्ट्रीय हित, सुरक्षा, तकनीकी आत्मनिर्भरता और वैश्विक संतुलन में उसकी भूमिका को कितना मजबूत बनाता है। पुतिन की यह यात्रा भारत को ऊर्जा, रक्षा सहयोग, भू-राजनीतिक संतुलन और वैश्विक मंचों पर सामरिक मोल-भाव की जगह को विस्तारित करने का अवसर दे सकती है। रूस के साथ संबंध जहाँ परंपरागत भरोसे की नींव पर टिके हैं, वहीं यह दौरा बतायेगा कि वह भरोसा नई दुनिया में किस नई परिभाषा से पुष्ट हो सकता है।
भारतीय राजनीति में भी तकनीक और नैरेटिव्स की लड़ाई अब सीमित नहीं रह गई। मीम्स हों, कार्टून-प्रचार हो, या आर्टिफिशियल कंटेंट से तैयार किए गए राजनीतिक विमर्श—हर मंच पर भाषा से ज़्यादा तेज़ तस्वीरें और दृश्य बोलते दिखाई देते हैं। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि तकनीक चाहे जितनी परिष्कृत हो—उसके पीछे का इरादा हमेशा मनुष्य का ही होगा। नैरेटिव्स की होड़ में छवि बनाना आसान होता जा रहा है, छवि बचाना मुश्किल—और इसी में भविष्य की सतर्कता भी छुपी है कि इस माध्यम का नियंत्रण लोकतांत्रिक चौकसी, क़ानूनी ढांचे और सामाजिक-नैतिक मर्यादा के हाथ में बना रहे, वरना राजनीतिक विमर्श सिफऱ् दृश्य-जनित आक्षेपों का अखाड़ा बनकर रह जाएगा।
भारत की विदेश नीति का बदलता नक्शा दरअसल इसी आत्मबोध का नक्शा है कि भाषा हमारी अपनी हो, धुरी कई हों, लेकिन दिशा सिफऱ् एक भारत का हित।