-सुभाष मिश्र
साहित्य किसी मंच की सजावट नहीं, समाज की अंत:शक्ति का उद्गम है। वही वह बीज है जिससे मनुष्य अपने भीतर न्याय, करुणा, असहमति और उम्मीद का अंकुर उगाता है। जब दुनिया केवल उधार लिये विचारों का लोहा पीटती है, तब साहित्य ही कहता है—रुको, सोचो, सवाल करो। बेहतर मनुष्य बनो, बेहतर समाज बनाओ। कविता की यही जिद्द, नाटक की यही बग़ावत, और शब्दों की यही आत्मा हमें बार-बार रास्ता दिखाती आई है।
इसी परंपरा में नागार्जुन की पंक्तियाँ गूंजती हैं— किसका जनवरी, किसका अगस्त / कौन यहाँ सुखी, कौन यहाँ मस्त? यह प्रश्न केवल महीनों का नहीं, व्यवस्थाओं का भी है। मुक्तिबोध अँधेरे में चमकीले ताबीज़ों पर भरोसा न कर, ज्ञान के शिल्प की बात करते हैं। बिलासपुर की साहित्य-चेतना को काव्य-लोक में प्रतिष्ठा देने वाले श्रीकांत वर्मा कहते हैं कि ‘मगध में विचारों की कमी है और यह बात हर उस समय का सच बन जाती है जब विमर्श सतही हो जाए।
छत्तीसगढ़ की साहित्यिक आत्मा और लोक-स्मृति में बसे विनोद कुमार शुक्ल निराश मनुष्य का नहीं, हताशा का परिचय देते हैं—हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था / मैं व्यक्ति को नहीं, हताशा को जानता था, हम दोनों साथ चले, साथ चलने को जानते थे। यही वह साहित्य है, जो मनुष्य को धैर्य देता, और ‘साथ चलने की सभ्यताÓ सिखाता है।
रायपुर से लेकर बस्तर तक, रंगमंच और लोककथा की जो परंपरा है, उसका उजाला हिन्दी नाट्य संसार में फैलाने वाले हबीब तनवीर ने चरणदास चोर जैसे नाटक से यह साबित किया कि सत्य चुरा लेने की नहीं, उसे निर्भय मंच पर रखने की चीज़ है। जब नैतिकता को लोक गायन में नदी-सा प्रवाह मिला, तब तीजन बाई ने पांडवानी के जरिए साहित्य को जनजातीय गलियारों से राष्ट्रीय स्मृति तक पहुंचाया।
यह लंबी धारा बताती है कि छत्तीसगढ़ में साहित्य आयोजन का विषय नहीं, जीवन का स्रोत रहा है। परंतु आज की विडंबना यह है कि ज्ञान की भंडारण-इमारतें तो बन रही हैं, पर वे केवल कैरियर के लिये प्रशिक्षण केंद्र बनती जा रही हैं। पुस्तकालयों की अलमारियाँ भरी हैं, पर किताबें धूल में हैं, क्योंकि पाठक का मन अब प्रतियोगी का मन बन चुका है। किताब जरूर खरीदी जा रही है, पर जरूरी नहीं कि वह पढ़ी जा रही हो।
ऐसे दौर में रायपुर में दोबारा साहित्य उत्सव का आयोजन होना निश्चित ही एक शुभ संकेत है। यह पहला भी हुआ था, और दूसरा भी अब होने जा रहा है। और संयोग देखिए, दोनों ही अवसर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी नेतृत्व वाली सरकार के समय आये हैं। मंच का पुन: सजना उम्मीद जगाता है पर इसी मंच से यह भी पूछे जाने की ज़रूरत है कि क्या हम केवल प्रकाशन और पुस्तक-खरीदी का उत्सव मना रहे हैं, या पठन की चेतना भी जगा रहे हैं?
मुख्यमंत्री विष्णु देव साय ने अपने निवास पर साहित्य उत्सव के लोगो का अनावरण करते समय भरोसा दिलाया कि यह आयोजन प्रदेश को साहित्यिक दुनिया में नई पहचान देगा। यह स्वागत योग्य है, और इसके लिये उन्हें साधुवाद भी मिलना चाहिए, क्योंकि मंच वही बना सकता है, जिसमें सुनने, पढऩे और संवाद की संभावना हो।
पर आशंका भी वहीं से उठती है जहाँ साहित्य की साधना मौन में चली जाती है, और सतही ट्रेंड साहित्य की रील चीख में बदल जाता है। यदि साहित्य गंगा है, तो आज उसके घाट ही नहीं, उसके स्नान करने वाले मन भी तैयार करने होंगे। न हो कि आयोजन 11 सत्रों का हो, संवाद 3 मंचों पर हो, पर असर केवल फोटो-गैलरी तक सिमटकर रह जाए।
ज़रूरत यह है कि छत्तीसगढ़ साहित्य उत्सव में वही विमर्श हो जो यह पूछे कि पुस्तकालय में रखी किताबें क्यों जारी नहीं हो रहीं? गंभीर साहित्य से युवा क्यों कट रहे हैं? शोधपरक लेखन के पाठक क्यों कम हो रहे हैं? और सबसे बड़ी बात—क्या साहित्य उत्सव पुस्तक-खरीद के कारोबार की धूम है, या साहित्य की सामाजिक भूख का पुनर्जागरण?
इन्हीं सवालों के उत्तर में साहित्य उत्सव की सार्थकता छिपी है। यह आयोजन तभी सफल कहा जाएगा जब मंच पर केवल लेखक न बोलें, बल्कि पाठक और समाज के बीच खोया संवाद भी लौट आए। जब शब्द उधार के ताबीज़ नहीं, बल्कि आत्मा की मशाल बनें। जब कविता प्रश्न भी बने और उत्तर की तैयारी भी कराए।
साहित्य हमें याद दिलाता है कि जीवन में सब कुछ उधार नहीं चलता—कुछ अपना मौलिक होना भी ज़रूरी है, कुछ स्वतंत्र लिखना भी उतना ही जरूरी है, जितना स्वतंत्र पढऩा। रायपुर साहित्य उत्सव की यह पहल उम्मीद की लौ जलाती है। अब देखना यह है कि क्या यह लौ किताब की अलमारियों की धूल तक पहुँच पाएगी, क्या यह प्रतियोगी-मन को पाठक-मन में बदलने की शुरुआत कर पाएगी, और क्या यह महोत्सव आयोजन नहीं, साहित्य की भूमिका बन पाएगा।
Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से- रायपुर साहित्य महोत्सव गंभीर विमर्श का मंच बने

02
Dec