बिहार की राजनीति इन दिनों जिस उथल-पुथल से गुजर रही है, वह सिर्फ एक चुनावी हार का परिणाम नहीं, बल्कि उस बड़े संक्रमण का संकेत है जिसमें राजनीतिक वंशवाद, पारिवारिक नेतृत्व और संगठनात्मक संतुलन तीनों सवालों के घेरे में आ गए हैं। राष्ट्रीय जनता दल की करारी पराजय के बाद जिस तरह से पार्टी के भीतर असंतोष खुलकर सामने आया और उसके बाद लालू प्रसाद यादव के परिवार में गहरा विवाद उभरकर आया, उसने यह चर्चा तेज कर दी है कि क्या अब बिहार की राजनीति में लालू परिवार का वर्चस्व कमजोर पड़ रहा है, या यह सिर्फ कुछ समय का पारिवारिक तनाव है जो अपने आप सुलझ जाएगा।
चुनाव परिणामों के तुरंत बाद तेजस्वी यादव के आवास पर हुई लंबी बैठक में हार की समीक्षा की गई, प्रत्याशियों का रिपोर्ट कार्ड देखा गया और ईवीएम के दुरुपयोग से लेकर चुनावी रणनीति तक पर तीखे सवाल उठे। विधायकों ने सर्वसम्मति से तेजस्वी को नेता तो चुन लिया, लेकिन इस फैसले के पीछे छिपा दबाव साफ दिख रहा था कि हार का ठीकरा कहीं तो फूटना ही था। तेजस्वी के सलाहकारों, विशेषकर संजय यादव को लेकर उठी कार्यकर्ताओं की नाराज़गी ने यह संकेत भी दे दिया कि चुनाव प्रबंधन पर पार्टी के भीतर गंभीर असंतोष है।
इसी असंतोष ने अब सबसे बड़ा विस्फोट परिवार के भीतर कर दिया। लालू प्रसाद यादव की बेटी रोहिणी आचार्य द्वारा लगाए गए आरोपों ने पूरे राजनीतिक परिदृश्य को हिलाकर रख दिया। जिस बेटी ने अपने पिता को किडनी दी, वही यह कहने लगे कि उसके सामने उस किडनी को “गंदी” कहा गया, उस पर करोड़ों रुपए लेने और टिकट मांगने जैसे आरोप लगाए गए, गालियां दी गईं और चप्पल उठाकर मारने की कोशिश की गई। इसकी प्रतिक्रिया इतनी तीखी थी कि सिर्फ रोहिणी ही नहीं, बल्कि रागिनी, चंदा और राजलक्ष्मी भी घर छोड़कर दिल्ली चली गईं। तेज प्रताप यादव ने खुलकर बहन का पक्ष लेते हुए सीधे संकेत दे दिया कि परिवार के भीतर की यह लड़ाई मामूली नहीं है।
इस पूरे घटनाक्रम में सबसे अधिक सवाल खड़े कर रही है लालू प्रसाद और तेजस्वी की चुप्पी। जिस परिवार का हर विवाद अब तक सार्वजनिक होता रहा, उसी परिवार में आज जब सारी बेटियाँ घर छोड़कर जा रही हैं, तब पिता और नेता दोनों कुछ नहीं बोल रहे। यह चुप्पी राजनीतिक रूप से और भी भारी पड़ रही है, क्योंकि इससे यह संदेश जा रहा है कि RJD का नेतृत्व सिर्फ चुनावी नहीं, पारिवारिक संकट से भी जूझ रहा है। विपक्ष ने यह सवाल भी उठा दिया है कि आखिर लालू प्रसाद अपनी बेटी के मुद्दे पर मौन क्यों हैं।
लेकिन यह सवाल कि क्या इससे लालू परिवार का राजनीतिक अध्याय समाप्त हो जाएगा, इसका जवाब इतना सरल भी नहीं है। भारतीय राजनीति में परिवारों के भीतर उठने वाले ऐसे विवाद कोई नई बात नहीं। समाजवादी पार्टी में मुलायम-अखिलेश-शिवपाल संघर्ष, महाराष्ट्र में अजित पवार की बगावत, दक्षिण भारत में कई राजनीतिक घरानों की तोड़-फोड़—यह सब दिखाता है कि ऐसे संघर्ष अक्सर अस्थायी होते हैं। सत्ता का संतुलन जब भी बदलता है, परिवारों के समीकरण भी बदल जाते हैं। राजनीति में अंततः वही टिकता है जिसे जनता और संगठन दोनों स्वीकार करें, और परिवारों में अक्सर सामूहिक हित व्यक्तिगत मतभेदों से ऊपर आ जाते हैं।
लालू परिवार का मौजूदा विवाद चाहे जितना बड़ा और गंभीर दिखे, लेकिन इसे अंतिम सत्य मान लेना जल्दबाज़ी होगी। हाँ, यह जरूर है कि यह विवाद RJD की विश्वसनीयता पर चोट करता है, संगठन का मनोबल गिराता है और तेजस्वी की नेतृत्व क्षमता पर सीधे सवाल खड़े करता है। यदि आने वाले समय में नेतृत्व ने ठोस कदम नहीं उठाए, परिवार में संवाद बहाल नहीं हुआ और संगठन को पुनर्गठित नहीं किया गया, तो इसका राजनीतिक नुकसान गहरा हो सकता है।
फिर भी राजनीति का इतिहास बताता है कि परिवारवाद जितना आलोचित है, उतना ही टिकाऊ भी है। आज जो बिखराव दिख रहा है, वह कल समझौते में भी बदल सकता है। बिहार की राजनीति में लालू परिवार का असर तुरंत खत्म नहीं होने वाला, लेकिन यह भी स्पष्ट है कि उनके सामने अब चुनौती सबसे बड़ी है—परिवार को एकजुट रखना और पार्टी को पुनः खड़ा करना। आने वाले महीनों में यह तय होगा कि यह विवाद एक क्षणिक तूफान था या वास्तव में एक ऐसे दौर की शुरुआत, जिसमें RJD को अपनी राजनीतिक विरासत का नया अर्थ गढ़ना होगा।