Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से- परलोक के साथ अब इस लोक की भी चिंता

-सुभाष मिश्र

भारतीय समाज में व्याप्त धार्मिक और मिथक कथाओं में शरीर को नश्वर और आत्मा को अमर माना है। बहुत सारे लोग इस लोक को सुधारने की चिंता या प्रयास करने की बजाय परलोक सुधारने की चिंता करते हैं। यही वजह है की वे पृथ्वी लोक की बजाय आकाश लोक को देखते हैं। अपना बहुत सारा समय अपने आसपास के पर्यावरण को बेहतर करने की बजाय ईश्वर आराधना, पूजा-पाठ, कर्मकांड में बिताते हैं। राम नाम सत्य है, सबकी यही गत है का मंत्र दोहराते हुए मरने वाली की अर्थी को कांधा देकर श्मशान, मुक्तिधाम तक पहुँचाते हैं। वहां जितने देर रहते हैं वैराग्य भाव से यह भी कहते सुने जाते हैं की एक दिन सब यहां छूट जाना है।
कुछ लोगों के ज़ेहन में यह लाइन भी गुंजती है
‘ये ना भूल सिकंदर के हौसले तो आली थे
जब गया था दुनिया से, दोनों हाथ ख़ाली थे।
भारतीय समाज बड़ा विचित्र है हम आत्मा के अमरत्व में इतना यकीन रखते हैं कि शरीर के नश्वर होने की गंध हमें नाक तक नहीं चढ़ती। जीवन का सारांश कुछ यूँ बना दिया गया है कि परलोक की चिंता करो, इस लोक की क्या ज़रूरत! मानो यह धरती कोई वेटिंग रूम हो, जहाँ बस मृत्यु की टिकट कटने तक भजन-कीर्तन, कथा-प्रवचन और कर्मकांड में समय काटना ही उद्देश्य हो।
राम नाम सत्य है की धुन पर हम किसी की अर्थी को कांधा देते हुए श्मशान तक पहुँचते हैं, और रास्ते में यह ज्ञान भी बाँटते चलते हैं कि सब कुछ यहीं छूट जाना है। पर जैसे ही लौटते हैं, वही पुराना संसार, वही गली-कूचे, वही अंधविश्वास और वही गंदगी-सब जस का तस। कोई यह सोचने की फुरसत नहीं लेता कि जहाँ आज किसी की चिता जल रही है, कल वहीं हमारी भी राख उड़ सकती है।
श्मशान या मुक्तिधाम, जिनका नाम ही मुक्ति का प्रतीक है वे खुद बदइंतजामी और दुर्गंध की गिरफ्त में हैं। कहीं प्लास्टिक की थैलियाँ उड़ती हैं, कहीं अधजली लकडिय़ों के ढेर, कहीं सीवेज बहता है और कहीं तो बैठने की भी जगह नहीं। परलोक की यात्रा शुरू करने से पहले इस लोक की सड़कों का हाल देखकर आत्मा भी शायद लौट जाने को कहे—मुझे तो अभी नहीं जाना।
कई जगह समाजसेवी संस्थाओं ने पेड़ लगाए, पेयजल की व्यवस्था की, कुछ बेच डाली पर यह अपवाद है। ज़्यादातर मुक्तिधाम अब भी गंदगी, अतिक्रमण और प्रशासनिक लापरवाही के प्रतीक हैं। जिन जगहों को हम मोक्षस्थल कहते हैं, वहाँ जाने के बाद किसी को भी मोक्ष की जगह चिढ़ मिलने की गारंटी है।
देर से ही सही, सरकार को भी आखिर एहसास हुआ कि मुक्ति की जगहों को कम से कम मानवीय तो बनाया जाए। निकायों को 15 दिन में साफ-सफाई की रिपोर्ट मंगाई गई है, नोडल अफसरों की नियुक्ति होगी, बिजली-पानी-शौचालय जैसी सुविधाओं का इंतज़ाम होगा। यह सब सुनने में अच्छा लगता है। पर सवाल यह है कि क्या मुक्तिधाम को भी योजना और फंड की सूची में जगह मिलने के लिए कोर्ट का हस्तक्षेप ज़रूरी था?
दरअसल, यह कहानी यहीं से शुरू होती है। बिलासपुर हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस जब एक अंतिम संस्कार में शामिल होने बिल्हा तहसील के रहंगी ग्राम पहुँचे, तो उन्होंने मुक्तिधाम की हालत देख ली। न बाउंड्री, न पानी, न शेड, न सड़क—बस गंदगी और सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट का ढेर। चीफ जस्टिस लौटे तो वे सिफऱ् संवेदना लेकर नहीं, बल्कि संज्ञान लेकर लौटे और तभी सरकार की नींद टूटी।
अब शासन निर्देश दे रहा है कि मुक्तिधामों में पुरुषों और महिलाओं के लिए अलग शौचालय बनें, सफाई पर निगरानी रखी जाए, 15वें वित्त आयोग और सीएसआर फंड से खर्च हो। यानी अब मृत्यु के बाद कम से कम ‘सम्मानजनक माहौल मिलेगा। विडंबना यह है कि अनुच्छेद 21 में जीवन के अधिकार के साथ सम्मानजनक मृत्यु का भी उल्लेख है पर हम उसे भी कोर्ट के आदेश से याद करते हैं, मानवता से नहीं।
सोचिए, जिस समाज में मौत के बाद भी आदमी को सुविधा न मिले, वहाँ जीवन की क्या गारंटी होगी? हम मंदिरों में दीप जलाते हैं, पर मुक्तिधाम में अंधेरा पसरा होता है। हम मूर्तियों पर फूल चढ़ाते हैं, पर उसी धरती के नीचे सो रहे व्यक्ति की स्मृति तक को कूड़े में दबा देते हैं। हमारा धर्म कहता है कि आत्मा अमर है, पर शायद आत्मा यह भी चाहती होगी कि जब तक शरीर है, तब तक उसका परिवेश थोड़ा सभ्य, थोड़ा स्वच्छ और थोड़ा मानवीय हो। आखिर परलोक की चिंता करने से पहले इस लोक को तो ठीक कर लें। वरना खाया पीया अंग है, दीया लिया संग है जैसी पंक्तियाँ बस श्मशान की दीवारों पर लिखी रह जाएँगी, और मुक्तिधामों में ‘मुक्तिÓ शब्द एक सरकारी योजना का नाम बनकर रह जाएगा।
परलोक की चिंता अपनी जगह है, पर इस लोक की सुध लेना भी धर्म है। क्योंकि गंदे मुक्तिधाम में आत्मा नहीं, व्यवस्था की आत्मा ही तड़पती है।
प्रसंगवश ग़ालिब और फिऱाक़ ये शेर
‘हुए मर के हम जो रुस्वा हुए क्यूँ न ग़कऱ्-ए-दरिया
न कभी जनाज़ा उठता न कहीं मज़ार होता – मिर्जा ग़ालिब।
( ग़कऱ्-ए-दरिया के मायनी हैं दरिया में डूबना, रुस्वा होना के मानी हैं बेइज्ज़त होना।)
‘ये माना जि़ंदगी है चार दिन की
बहुत होते हैं यारो चार दिन भी।
-फिऱाक़ गोरखपुरी

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