दवा बनी ज़हर : विश्वास का घूँटता गला

कभी दवा पर लिखा होता था—’आपके स्वास्थ्य की रक्षा हेतु। पर आज यही दवा जीवन छीनने का औजार बन चुकी है। देश के कई हिस्सों में बच्चों की मौत का कारण बनी ‘कोल्ड्रिफÓ कफ सिरप की कहानी किसी एक राज्य की दुर्घटना नहीं, बल्कि हमारे स्वास्थ्य तंत्र, दवा नियंत्रण व्यवस्था और उद्योगों के लालच की सामूहिक विफलता का भयावह दस्तावेज़ है।
बीते कुछ हफ्तों में मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा और राजस्थान में 23 से अधिक बच्चों की मौत हुई। इन बच्चों के परिवारों ने बताया कि सामान्य सर्दी-जुकाम के लिए डॉक्टरों ने जो कफ सिरप दी, वही मौत का कारण बन गई। यह घटना केवल चिकित्सा लापरवाही नहीं, बल्कि विश्वास की निर्मम हत्या है। वह विश्वास जो हर गरीब मां अपने बच्चे की दवा में रखती है—कि यह दवा उसके बच्चे को जीवन देगी, न कि लील जाएगी।
तमिलनाडु के श्रीसन फ़ार्मास्युटिकल्स की फैक्ट्री से जुड़े निरीक्षण में जो तथ्य सामने आए हैं, वे चौंकाने वाले ही नहीं, बल्कि शर्मनाक हैं। रिपोर्ट में बताया गया कि कंपनी ने 350 नियमों का उल्लंघन किया, जिनमें 39 ‘क्रिटिकल और 325 ‘मेजर खामियाँ शामिल थीं। बिना क्वालिटी टेस्ट के सिरप तैयार हो रहा था, कच्चे माल की जांच नहीं होती थी, और फैक्ट्री के अंदर गंदगी, जंग लगे उपकरण, कीड़े-मकोड़ों की भरमार थी। सिरप बनाने में डाइएथिलीन ग्लाइकोल (डीईजी) का इस्तेमाल हुआ, जो कार ब्रेक फ्लूइड और पेंट में प्रयुक्त होने वाला जहरीला रसायन है। यही ज़हर बच्चों के शरीर में घुल गया—किडनी फेल्योर और त्वरित मृत्यु का कारण बना।
यही नहीं, निरीक्षण रिपोर्ट में यह भी सामने आया कि कंपनी बिना वैध चालान के प्रोपलीन ग्लाइकोल खरीद रही थी, और विषैले रसायनों को खुले में नालियों में फेंक रही थी। मशीनें टूटी हुई थीं, साफ पानी के टैंक दूषित थे, और किसी भी ‘फार्माकोविजिलेंस सिस्टम यानी दवा के दुष्प्रभावों की निगरानी की व्यवस्था का नामोनिशान नहीं था। यह सिफऱ् एक फैक्ट्री की कहानी नहीं है, यह पूरे देश में फैले नकली और घटिया दवा कारोबार की भयावह झलक है।
क्योंकि दवा अब ‘जीवन रक्षक नहीं, ‘मुनाफ़ा रक्षक उद्योग बन चुकी है। प्रतिस्पर्धा की अंधी दौड़ में कंपनियाँ लागत घटाने के लिए जानलेवा शॉर्टकट अपना रही हैं। और दुर्भाग्य यह कि सरकारी तंत्र तब जागता है जब मौतें हो जाती हैं। छिंदवाड़ा में बच्चों की मौत के बाद प्रशासन ने डॉक्टर, कंपनी संचालक और ड्रग कंट्रोलर के खि़लाफ़ कार्रवाई की, लेकिन यह प्रतिक्रिया नहीं, रस्म-अदायगी है। सवाल यह है कि जब फैक्ट्री में 350 नियम तोड़े जा रहे थे, तब ड्रग इंस्पेक्टर कहाँ थे?
भारत में दवा उद्योग 4.5 लाख करोड़ रुपये का है और दुनिया में सबसे सस्ता जेनेरिक दवा उत्पादक देश कहलाता है। लेकिन इसी चमक के नीचे मिलावटी, नकली और असुरक्षित दवाओं का अंधकार है। 2023 में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने भारत की कई दवा कंपनियों की दवाओं को बच्चों की मौत के लिए जि़म्मेदार ठहराया था—गाम्बिया, उज्बेकिस्तान और इंडोनेशिया में भारतीय सिरप पीकर बच्चे मरे थे। सवाल तब भी वही था, जवाब आज भी वही है—’जांच जारी है।
केंद्र और राज्य सरकारों ने अब कोल्ड्रिफ सिरप के उत्पादन और बिक्री पर रोक लगाई है। मध्य प्रदेश, राजस्थान, तमिलनाडु, केरल में ड्रग निरीक्षण अभियान चलाया जा रहा है। लेकिन ऐसी कार्रवाई मौतों के बाद शुरू होती है, पहले नहीं। स्वास्थ्य मंत्रालय की एडवाइजरी में कहा गया है कि 2 साल से कम उम्र के बच्चों को कफ सिरप न दिया जाए, लेकिन यह सलाह कितनी ग्रामीण माताओं तक पहुंचेगी, जो ‘कफ सिरप को घरेलू इलाज का स्थायी उपाय मान चुकी हैं?
सच्चाई यह है कि देश के ग्रामीण और गरीब तबके में डॉक्टर की पहुँच सीमित है, और दवाओं पर अंधा विश्वास अनंत। मेडिकल स्टोर की चमकती शीशियों में रखी सिरप की बोतल उन्हें किसी चमत्कारी औषधि से कम नहीं लगती। जब वही बोतल ज़हर बन जाए तो यह केवल कंपनी की विफलता नहीं, बल्कि राज्य की जवाबदेही का पतन है।

सुदर्शन फाकिर का एक शेर याद आता है—
‘मेरा क़ातिल ही मेरा मुंसिफ़ है,
क्या मेरे हक़ में फ़ैसला देगा।
यह शेर आज हमारे स्वास्थ्य तंत्र की सच्चाई है। वही उद्योग जो दवा बनाते हैं, वही नियंत्रण तंत्र को फंड देते हैं, वही बाजार नियंत्रित करते हैं। डॉक्टर से लेकर दुकानदार तक, हर स्तर पर एक अदृश्य गठजोड़ है जो लाभ के लिए जोखिम को नजऱअंदाज़ कर देता है।
त्योहारों में नकली घी-खोवा बेचने वाले लालच के उसी तंत्र का विस्तार यह दवा उद्योग है, जहाँ जीवन भी मुनाफ़े की वस्तु बन गया है। फर्क सिर्फ इतना है कि मिठाई खाकर पेट दर्द होता है, लेकिन नकली दवा पीकर जान चली जाती है।
सख़्त जवाबदेही और पारदर्शिता अनिवार्य है। प्रत्येक राज्य में दवा निर्माण इकाइयों का नियमित ऑडिट हो, रिपोर्टें सार्वजनिक हों, और दोषी कंपनियों पर आजीवन प्रतिबंध लगाया जाए। डॉक्टरों और फार्मासिस्टों को भी जवाबदेह बनाना होगा कि वे किन ब्रांडों की दवा क्यों सुझा रहे हैं। और सबसे ज़रूरी—आम जनता में यह समझ विकसित करनी होगी कि हर खांसी-बुखार का इलाज सिरप नहीं, सही चिकित्सक है।
देश में ‘मेड इन इंडिया पर दुनिया भरोसा करे, यह गर्व की बात है। पर जब ‘मेड इन इंडिया दवा ही बच्चों की जान लेने लगे, तो यह राष्ट्रीय शर्म है। दवा में ज़हर घुलना केवल रासायनिक विफलता नहीं, नैतिक पतन की पराकाष्ठा है।
आज ज़रूरत है—दवा बनाने वालों के हाथों से लालच की बोतल छीनने की, ताकि आने वाली पीढिय़ाँ ‘कफ सिरप को ज़हर नहीं, राहत का नाम मान सकें।

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