विवेचना रंगमंडल जबलपुर के ज़रिए अपनी लंबी और यादगार रंगयात्रा तय करके एक बड़ी रंगबिरादरी खड़े करने वाले अरूण पांडेय के रंगकर्म, संबंधों और नाटक के प्रति उनके जुनून को याद करने जबलपुर के शहीद स्मारक भवन में आयोजित स्मृति उत्सव ‘अलबेले अरूण की गरिमामयु आयोजन कर उन्हें श्रद्धांजलि दी गई। अरूण के छोटे भाई विवेक पांडेय (बॉबी) ने एकल नाट्य प्रस्तुति मग किस्साएं बड़के दा के ज़रिए अनोखे अलबेले अरूण की याद दिलाई। अरूण पांडे से जुड़े तीस से अधिक कलाकारों ने रंगसंगीत के ज़रिए अरूण को उनके द्वारा तैयार की गई देश के ख्यातिनाम कवियों की कविताओं के ज़रिए याद किया।
डॉ सुयोग पाठक, रायपुर श्रीधर नागराज, विवेक पांडेय, प्रगति पांडेय, संतोष राजपूत, मनीष तिवारी ,प्रियंका ठाकुर सहित बहुत से रंगकर्मियों ने इसमें हिस्सा लिया।
बतकही के ज़रिए अलबेले अरूण पांडे की बात मंच से साझा करने वालो में सुभाष मिश्र रायपुर,डॉ योगेन्द्र चौबे खैरागढ़, अंशपायन सिंहा भोपाल,
गौरव मुम्बई, कमलेश सक्सेना होशंगाबाद, अजय काकोनिया, कुमुद पटेल पूना ,राकेश दीक्षित जबलपुर, नवीन चौबे, विनय अम्बर जबलपुर शमिल थे। मंच का संचालन सुप्रसिद्ध संगीतकार मुरलीधर नागराज ने किया।
इस अवसर पर विवेचना रंगमंडल से जुड़े अभिषेक गौतम मुंबई, प्रियंका ठाकुर (भोपाल) वरिष्ठ रंगकर्मि हिमांशु राय, बाँके बिहारी ब्यौहार, तपन बैनर्जी, सूरज राय सूरज, अवधेश बाजपेयी, संजय पटैरिया, बाबूशा कोहली, दिनेश चौधरी, पंकज स्वामी, आशुतोष द्विवेदी, संतोष राजपूत, के के नायकर, इरफ़ान झांस्वी, नवीन चतुर्वेदी, ननरोत्तम बेन, संजय पटेरिया, मनीष तिवारी अरूण पांडे की पंत्नी मीनू पांडे सहित परिवार जन, बड़ी संख्या में रंगकर्मी, साहित्यकार, पत्रकार उपस्थित थे।
बाबुषा ने कविता के ज़रिए याद किया
विदाई हो तो ऐसी, जैसी हुई अरुण पांडे की
याद किया जाए तो ऐसे, जैसे याद किया जा रहा है
अरुण पांडे को
वाह उस्ताद ! वाह ! वाह !
दिल जुड़ा गया
आत्मा जुड़ा गई
जुड़ गए मृत्यु से तार फिर एक बार
पाँच दिनों से यही सोच रही हूँ कि अरुण पांडे ने
जीवन को जिया
या जीवन ने जिया अरुण पांडे को —
मृत्यु ने अरुण पांडे का वरण किया या अरुण पांडे ने कहा
ले चल रे ! हूँ अब तैयार !
कहाँ कोई संघर्ष के निशान थे चेहरे पर
कहाँ खींचातानी ?
जैसे देह-घट में भर गया हो? !
या कोई बच्चा सोया हो दिनभर खेलने के बाद
या करता हो सोने का नाटक कि बेवजह
कोई न करे बात
पूछे न हालचाल
सबको चाहिए बिना ख़लल की नींद
किस-किस को मिलती है
नींद वाली गोली के बिन
देखती हूँ रच लिया हो जिसने अपने भीतर
तिनका बराबर भी शून्य; मृत्यु उसे ले भर जाती है
मार नहीं पाती
देखा मैंने कल की रात
लोगों की आँखों से बहते हुए अरुण पांडे
लोगों के भीतर रहते हुए अरुण पांडे
सबने देखा अरुण पांडे नाटक के लिए जगह बना रहे थे
नाटक खेल रहे थे; नाटक दिखा रहे थे
किस-किस ने देखा
अरुण पांडे दुनिया के मेले में तफऱीह कर रहे थे
कभी मौत के कुएँ की टिकिट लेकर फाड़ दे रहे थे
तो कभी बैलून पर निशाना लगाकर दागऩे के पहले छोड़ दे रहे थे
कभी छल्ला फेंककर इनाम जीत जा रहे थे
जीता हुआ सब-कुछ इर्द-गिर्द के लोगों में बाँटे चले जा रहे थे
चमक-दमक वाली दुकानों को देखे बिना आगे बढ़ जा रहे थे
सूने आकाश के नीचे एकाएक थम जा रहे थे
अकेले !
चुपचाप !
कभी गुमशुदा की रपट वाले काउंटर पर खड़े रह जा रहे थे
मेले के बाहर
जब-तब शून्य के घर में रहने चले जा रहे थे अरुण पांडे
एक ऐसा घर
जिसके दरवाज़े पर ताला पड़ा हुआ था
चुप्पियों के दराज में जिसकी चाबी रखी हुई थी
सबने देखा अरुण पांडे राह बना रहे थे; राह दिखा रहे थे
किस-किस ने देखा अरुण पांडे राह हो जा रहे थे
लोग उस राह पर चलकर
आगे बढ़ जा रहे थे
सबने देखा अरुण पांडे को नाटक ओढ़ते-नाटक बिछाते
नाटकों के भँवर में डूबते-उतराते
नाटकों के सहारे पार पाते
नाटक के बीचोंबीच मोक्ष पाते
किस-किस ने देखा अरुण पांडे को नाटक के बाहर से
नाटक देखते ?
सबने देखा कल जमा हुए लोग
अरुण पांडे को याद करते
अरुण पांडे के प्रिय जनगीत सुनाते
नाटक खेलते
कि़स्से बताते
फफक कर रो पड़ते
किस-किस ने देखा वहाँ मौजूद थे अरुण पांडे
बैठे थे वहीं
ए क द म
वहीं !
बाबुषा
तुझे हम वली समझते, जो न
सितम्बर,25