सरकार के तमाम दावों, योजनाओं, आरक्षण और सुविधाओं के बावजूद आदिवासी क्षेत्रों में आदिवासी उपेक्षित है। आदिवासी समुदाय के लोगों की आर्थिक स्थिति खऱाब है। उनके जल जंगल ज़मीन पर माफियाओं , कॉरपोरेट की गिद्घ दृष्टि है। विकास के सारे रास्ते अंतत: शोषण के उपकरण क्यों सिद्ध हो रहे हैं। जो लोग इस वर्ग से पढ़ लिख जाते हैं, अच्छी नौकरी, जीवन स्तर में चले जाते हैं, उनकी संवेदना अपने समाज के प्रति क्यों भोथरी हो जाती है। ऐसे बहुत से सवाल हैं जिनको लेकर विश्व आदिवासी दिवस पर विमर्श की ज़रूरत है।
9 अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस मनाया जाता है, जो संयुक्त राष्ट्र द्वारा आदिवासी समुदायों की सांस्कृतिक विविधता, अधिकारों और चुनौतियों को उजागर करने के लिए स्थापित किया गया है। वर्ष 2024 का थीम ‘राइट टू सेल्फ-डिटरमिनेशन था, जो आदिवासियों के आत्मनिर्णय के अधिकार पर केंद्रित था, और इसमें भारत जैसे देशों में आदिवासी अधिकारों पर चर्चा हुई। 2025 की थीम: ‘आदिवासी लोग और कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई): अधिकारों की रक्षा, भविष्य को आकार देना है। भारत में अनुसूचित जनजाति (एसटी) आबादी कुल जनसंख्या का लगभग 8.6फीसदी है, जो 2011 की जनगणना के अनुसार 10.4 करोड़ से अधिक है। ये समुदाय मुख्य रूप से मध्य भारत, पूर्वोत्तर राज्यों और अन्य क्षेत्रों में निवास करते हैं। हालांकि, संवैधानिक प्रावधानों के बावजूद, आदिवासियों की आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक स्थिति में गंभीर असमानताएं बनी हुई हैं। इस लेख में हम इन पहलुओं का तथ्य-आधारित विश्लेषण करेंगे, साथ ही संविधान की पांचवीं और छठी अनुसूची के क्रियान्वयन तथा आदिवासी बहुल राज्यों में उनकी स्थिति पर ध्यान केंद्रित करेंगे।
भारत में आदिवासी समुदायों की आर्थिक स्थिति अत्यंत कमजोर है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-5, 2019-21) के अनुसार, एसटी परिवारों में गरीबी दर सामान्य आबादी की तुलना में 45फीसदी अधिक है। ग्रामीण क्षेत्रों में, जहां अधिकांश आदिवासी रहते हैं, उनकी औसत मासिक आय 5,000 रुपये से कम है, जबकि राष्ट्रीय औसत 10,000 रुपये से ऊपर है। रोजगार के मामले में, एसटी युवाओं में बेरोजगारी दर 20 फीसदी से अधिक है, मुख्य रूप से कृषि और वन-आधारित कार्यों पर निर्भरता के कारण। वन अधिकार अधिनियम के तहत, आदिवासियों को वन भूमि पर अधिकार दिए गए हैं, लेकिन 2024 तक केवल 50 फीसदी दावों का निपटारा हुआ है, जिससे आर्थिक असुरक्षा बढ़ी है। खनन और औद्योगिक परियोजनाओं के कारण विस्थापन ने स्थिति को और खराब किया है। उदाहरणस्वरूप, छत्तीसगढ़ और झारखंड में कोयला खनन से हजारों आदिवासी बेघर हुए हैं। सरकारी योजनाएं जैसे प्रधानमंत्री आदिवासी आदर्श ग्राम योजना ने 36,428 गांवों को लक्षित किया है, लेकिन बजट वृद्धि (2024 में 14,925 करोड़ रुपये) के बावजूद, क्रियान्वयन में कमी है। आर्थिक असमानता का परिणाम यह है कि आदिवासी क्षेत्रों में कुपोषण दर 40फीसदी से ऊपर है, जो राष्ट्रीय औसत से दोगुना है।
सामाजिक रूप से आदिवासी समुदायों को बहिष्कार और हिंसा का सामना करना पड़ता है। स्वास्थ्य संकेतकों में एसटी महिलाओं में मातृ मृत्यु दर (एमएमआर) 200 प्रति लाख है, जबकि राष्ट्रीय औसत 113 है। कोविड-19 महामारी के दौरान, आदिवासी क्षेत्रों में टीकाकरण दर कम रही, जिससे मृत्यु दर बढ़ी। सामाजिक हिंसा के मामले में, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) 2023 के अनुसार, एसटी के खिलाफ अत्याचार के 9,000 से अधिक मामले दर्ज हुए, मुख्य रूप से भूमि विवादों से संबंधित। पूर्वोत्तर राज्यों में, जैसे मणिपुर, 2023-24 में जातीय हिंसा ने 200 से अधिक आदिवासियों की जान ली, जिसमें कूकी और मेइती समुदायों के बीच संघर्ष प्रमुख है। सामाजिक बहिष्कार के कारण, आदिवासी महिलाएं और बच्चे विशेष रूप से प्रभावित हैं। उदाहरणस्वरूप, ओडिशा के पीवीटीजीएस (विशेष रूप से कमजोर जनजाति समूह) में स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच केवल 30 फीसदी है। सरकारी प्रयास जैसे आयुष्मान भारत योजना ने कुछ राहत दी, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में बुनियादी ढांचे की कमी बनी हुई है।

शैक्षणिक रूप से आदिवासी बच्चों की स्थिति चिंताजनक है। डीआईएसई प्लस 2023-24 डेटा के अनुसार, एसटी छात्रों का नामांकन प्राथमिक स्तर पर 10.5 फीसदी है, लेकिन माध्यमिक स्तर पर यह घटकर 6फीसदी रह जाता है, ड्रॉपआउट दर 30 फीसदी से अधिक है। साक्षरता दर 2011 जनगणना में 59 फीसदी थी, जो 2023 तक मामूली सुधार के साथ 65 फीसदी पहुंची है, लेकिन सामान्य आबादी के 74फीसदी से काफी कम। केरल जैसे राज्यों में आदिवासी छात्रों का प्रदर्शन गैर-आदिवासी से पीछे है, जहां सांस्कृतिक पूंजी की कमी एक प्रमुख बाधा है। सरकारी छात्रावासों की संख्या 1,470 है, लेकिन ये अपर्याप्त हैं। महामारी के दौरान ऑनलाइन शिक्षा की कमी ने असमानता बढ़ाई, क्योंकि केवल 24फीसदी आदिवासी परिवारों के पास इंटरनेट पहुंच है। योजनाएं जैसे एकलव्य मॉडल आवासीय स्कूल ने कुछ प्रगति की, लेकिन भाषाई और सांस्कृतिक बाधाएं बनी हुई है।
संविधान की पांचवीं अनुसूची अनुसूचित क्षेत्रों (मुख्य रूप से मध्य भारत) के प्रशासन और आदिवासी हितों की रक्षा के लिए है। इसमें जनजातीय सलाहकार परिषद का प्रावधान है जो भूमि अधिग्रहण और विकास पर सलाह देती है। पेसा अधिनियम (1996) ने ग्राम सभाओं को शक्तियां दीं, लेकिन क्रियान्वयन कमजोर है। 2024 तक, केवल 50फीसदी राज्यों ने पेसा नियम लागू किए हैं। टीएसी ने कुछ भूमि विवादों में हस्तक्षेप किया, जैसे राजस्थान में। राज्यपालों की शक्तियां अप्रयुक्त रहती हैं और खनन
परियोजनाएं बिना सहमति के चलती हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कई मामलों में अनुसूची की रक्षा की, लेकिन राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी है। छठी अनुसूची पूर्वोत्तर राज्यों (असम, मेघालय, त्रिपुरा, मिजोरम) में स्वायत्त जिलों के लिए है, जहां स्वशासी परिषदें भूमि, वन और न्याय पर नियंत्रण रखती हैं। यह आदिवासी स्वशासन को बढ़ावा देती है। क्रियान्वयन में बोदोलैंड टेरिटोरियल काउंसिल जैसे उदाहरण सफल हैं, लेकिन मणिपुर हिंसा ने कमजोरियां उजागर कीं। लद्दाख की मांग छठी अनुसूची के तहत सुरक्षा की है। केंद्रीय हस्तक्षेप और जातीय संघर्ष, जैसे असम में। 2024 तक, चार राज्यों में यह लागू है, लेकिन संसाधन कमी एक समस्या है।
झारखंड (एसटी आबादी 26 फीसदी) में मुंडा और संथाल जैसे समुदाय विस्थापन से प्रभावित हैं। 2024 में, भूमि अधिकार उल्लंघनों के 1,000 मामले दर्ज हुए। छत्तीसगढ़ (32फीसदी एसटी) में नक्सल प्रभाव से सुरक्षा खतरा है, लेकिन पीएमएएजीवाय ने कुछ गांवों में विकास किया। ओडिशा (22फीसदी एसटी) में पीवीटीजीएस की स्वास्थ्य स्थिति खराब है, जहां 67 अध्ययनों से पता चला कि 2000-2023 में सुधार न्यूनतम है। मध्य प्रदेश (21फीसदी एसटी) में भिल और गोंड समुदायों में गरीबी 50फीसदी है, और वन संरक्षण संशोधन अधिनियम (2023) ने वन अधिकारों को कमजोर किया। इन राज्यों में, विकास परियोजनाएं आदिवासियों को विस्थापित करती हैं, जिससे 55 फीसदी विस्थापित एसटी हैं।
विश्व आदिवासी दिवस हमें याद दिलाता है कि आदिवासियों के अधिकारों की रक्षा आवश्यक है। हालांकि, सरकारी योजनाओं ने कुछ प्रगति की, लेकिन अनुसूचियों का अपूर्ण क्रियान्वयन और सामाजिक-आर्थिक असमानताएं बनी हुई है। सुधार के लिए, पेसा और एफआरए का पूर्ण क्रियान्वयन, शिक्षा और स्वास्थ्य में निवेश, तथा आदिवासी भागीदारी बढ़ानी होगी। अन्यथा ये समुदाय विकास की मुख्यधारा से अलग रहेंगे।
लाला जगदलपुरी की कविता
बस्तर दशहरा
पारंपरिक
फूल-गंध बिखेरता
हर बार चलता है
फूल-रथ,
पहन ओढ़ कर
सज-संवर कर
अपने नगर में
गोल-गोल
अर्वाचीन-रथ
प्राचीन जन-पथ
वही जगदलपुर
वही चढ़ाव
वही-उतार
वे ही चौराहे
वही घुमाव
वही सिरासार
वही सिंह द्वार,
राजतंत्र से लेकर
प्रजातंत्र तक की
फूल-रथ की
यह लंबी उत्सव-यात्रा
लगती है, कितनी संक्षिप्त
गोल-मोल
पेड़ कट-कट कर
कहां के कहां चले गये
पर
फूल-रथ
रैनी-रथ
हर रथ
जहां का वहीं खड़ा है
अपने विशालकाय रथ के सामने
रह गये बौने के बौने
रथ-निर्माता बस्तर के
और खिंचाव में हैं
प्रजातंत्र के हाथों
छत्रपति-रथ की
राजसी-रस्सीयाँ
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अँधेरे का जश्न
मुश्किल तो यह है
कि चारों ओर
देती है दिखाई
रोशनी ही रोशनी
परन्तु दिखाई नहीं देते
कहीं भी
रोशनी के लक्षण
दरअसल
रोशनी के भ्रम को ही
सारा माहौल
समझ बैठा है
रोशनी
रोशनी के दावेदारों
दिखाई जो दे रही है
चकाचौंध
यह रोशनी की नहीं
यह, चकाचौंध है
अंधेरे की
रोशनी को सम्मोहित करता
रोशनी की समझ देता
सर्व-व्यापक
सर्व-ग्राही
अद्भुुत अंधेरा
बाहर से भीतर तक
इस कदर छा गया है
कि बस छा ही गया है
जिसके सम्मोहन में
रोशनी जकड़ कर रह गयी है
सावधान
फहरा रही है
अँधेरे के प्रभुत्व की
विजय-पताका
जश्न यह अँधेरे का है
रोशनी का नहीं।