Reality of the Body : जो भोगी होता है वह रोगी अवश्य होता है, यह नियम है
Reality of the Body : 🔸 जो साधन-सामग्री है उसके द्वारा साधक किसी प्रकार के सुख की आसक्ति में बँधे नहीं, इसी कारण प्यारे परमात्मा रोग के स्वरूप में प्रकट होते हैं । पर साधक यह रहस्य जान नहीं पाता कि मेरे ही प्यारे रोग के वेश में आये हैं ।
🔸 शारीरिक बल का आश्रय तोड़ने के लिए रोग आया है । उससे डरो मत अपितु उसका सदुपयोग करो । रोग का सदुपयोग देह की वास्तविकता का अनुभव कर उससे असंग हो जाना है ।
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🔸 चित्त में प्रसन्नता, मन में निर्विकल्पता ज्यों-ज्यों सबल तथा स्थायी होती जायेगी त्यों-त्यों स्वतः आरोग्यता आती जायेगी, इसमें लेशमात्र भी संदेह नहीं है ।
🔸 निश्चितता तथा निर्भयता आने से प्राणशक्ति सबल होती है, जो रोग मिटाने में समर्थ है । उसके लिए हरि-आश्रय तथा विश्राम (विश्रांति) ही अचूक उपाय है ।
🔸 शरीर का पूर्ण स्वस्थ होना शरीर के स्वभाव से विपरीत है । जिस प्रकार दिन और रात दोनों ही काल की सुंदरता होती है उसी प्रकार रोग और आरोग्यता दोनों से ही शरीर की वास्तविकता प्रकाशित होती है ।
🔸 जो रोग औषधि से ठीक नहीं होता उसका कारण अदृष्ट (भाग्य, पूर्व के कर्मों का फल) की मलिनता होती है । अदृष्ट की मलिनता शुभ कर्म आदि से दूर होती है, औषधि से नहीं ।
🔸 रोग-निवृत्ति का एक सर्वोत्तम उपाय यह भी है कि यदि रोगी रोगी-भाव का सद्भाव अपने में से निकाल दे तो फिर रोग बेचारा निर्जीव हो जाता है क्योंकि ‘मैं’ की सत्ता से सभी सत्ताएँ प्रकाशित होती हैं । सद्भाव से प्रतीति में सत्यता आ जाती है जो दुःख का मूल है ।
🔸 रोग यही है कि ‘मैं रोगी हूँ ।’ औषधि यही है कि ‘मैं सर्वदा निरोग हूँ, मैं साक्षात् आरोग्य हूँ ।’ आरोग्यता से अपनी जातीय एकता है । यदि एक बार भी अपनी पूरी शक्ति से यह आवाज लगा दो कि ‘मैं निरोग हूँ, मैं ही आरोग्य हूँ’ तो रोग भाग जायेगा ।
🔸 मन में स्थिरता, चित्त में प्रसन्नता और हृदय में निर्भयता ज्यों-ज्यों बढ़ती जायेगी त्यों-त्यों आरोग्यता स्वतः आती जायेगी कारण कि मन तथा प्राण का घनिष्ठ संबंध है । अतः मन के स्वस्थ होने से शरीर भी स्वस्थ हो जाता है ।
🔸 रोग से अशुभ कर्म के फल का अंत होता है और तप से अशुभ कर्म का अंत होता है । जिस प्रकार तपस्वी को तप के अंत में शांति मिलती है । उसी प्रकार रोगी को भी रोग के अंत में शांति मिलती है ।
🔸बाधाएँ आती है तो…🔸
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