Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – हसदेव अरण्य की हंसी गायब 

Editor-in-Chief

-सुभाष मिश्र

हसदेव अरण्य की आज हंसी गायब है। आखिर किसी भी जंगल या अरण्य की हंसी क्यों गायब हो जाती है? जंगल हमको इसलिए अच्छा लगते हंै, क्योंकि वहां तरह-तरह के पशु-पक्षी और पेड़-पौधे होते हैं। जंगल में हरियाली होती है। जंगल में ताजा हवा मिलती है। जंगल हमें आकर्षित करते हैं। यही वजह है कि जब भी लोगों को ताज़ी हवा लेनी हो तो जंगल के नजदीक जाते है। जंगल हमें बहुत सी चीजे देता है। जंगल से आदिवासी जीवन भी जुड़ा है। वे जंगल पर आश्रित हैं। जल-जंगल-जमीन उनके लिए जरुरी है। वे उस पर अपना अधिकार समझते हैं और वे जंगल से उतना ही लेते हैं, जितना उनको जरूरत होती है। वे ना तो जंगल की अवैध कटाई करते हैं, ना जंगल का दोहन करते हैं और ना जंगल की जमीन के नीचे दबे खनिज संपदा को उस तरह से निकालते हैं, जैसे आमतौर पर खुदाई की जाती है पर जिन लोगों की नजर जंगल के अंदर और जमीन के भीतर पड़े खनिज संपदा को निकालने की हो। वे कारपोरेट और बड़े कारपोरेट हों तो सरकार किसी की भी आँख मूंद लेती है। जंगल में हो रही कटाई की अनदेखी करती है। स्थानीय नेता भी निजी लाभ के कारण इसका उस तरह का विरोध नहीं करते हैं, जैसा कि जन संगठन के लोग करते हैं या आदिवासी कर सकते हैं।
छत्तीसगढ़ के हसदेव अरण्य जंगल को काटे जाने का विरोध तेज होता जा रहा है। तीन राज्यों की सीमा क्षेत्र में फैले हसदेव अरण्य को बचाने के लिए बुद्धिजीवी और पर्यावरण प्रेमी भी इस आंदोलन में शामिल हो गए हैं। हसदेव अरण्य क्षेत्र के नीचे कोयले का भंडार पाया गया है, जिसके चलते यहां परसा ईस्ट केते बासेन खदान बनाए जाने का निर्णय लिया गया है। 1 लाख 70 हजार हेक्टेयर में से 137 एकड़ जंगल के क्षेत्र के पेड़ों की कटाई हो चुकी है। ऐसे में ग्रामीण इस जंगल को काटे जाने का विरोध कर रहे हैं। माना जा रहा है कि यहां 9 लाख पेड़ों की कटाई की जानी है, जिसके बाद 23 कोल ब्लॉक बनाए जाएंगे। पेड़ों की कटाई के विरोध में ग्रामीणों द्वारा 2 साल से ये आंदोलन किया जा रहा है, जिसकी तुलना पेड़ों को बचाने के लिए किए गए चिपको आंदोलन से की जा रही है। इस जंगल को बचाने के लिए ग्रामीणों द्वारा हर प्रयास किया जा रहा है। ग्रामीणों का आरोप है कि खदान के लिए पेड़ों की इतनी बलि ले ली गई है कि पूरा इलाका एक जंगल से मैदान में तब्दील हो गया है। लगभग एक दशक से ये कटाई जारी है। कांग्रेस की सरकार में भी खदान का विरोध हुआ लेकिन पेड़ों की कटाई का काम नहीं रुका और अब ग्रामीणों का ये विरोध बीजेपी सरकार में भी जारी है।
एक रिपोर्ट में दावा किया गया कि परसा कोयला खदान के लिए वन और पर्यावरण मंजूरी फर्जी दस्तावेजों का सहारा लिया गया है। हरिहरपुर, साल्ही, फतेपुर गांवों की ग्राम सभाओं ने कभी भी परसा परियोजना के लिए वन मंजूरी के लिए सहमति नहीं दी है। लिहाजा, इस खदान के लिए सभी मंजूरी को तत्काल रद्द करने की मांग ग्रामीण कर रहे हैं। पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील हसदेव अरण्य क्षेत्र में खनन से 1,70,000 हेक्टेयर जंगल नष्ट हो जाएगा और मानव-हाथी संघर्ष शुरू हो जाएगा।
सरगुजा जिले के अंतर्गत हसदेव अरण्य क्षेत्र में पेड़ों की कटाई को लेकर यह विरोध गत दिनों हिंसक हो गया। ग्रामीण और पुलिसकर्मी आमने-सामने आ गए। ग्रामीणों ने तीर-धनुष, गुलेल और पत्थरों से पुलिसकर्मियों पर हमला कर दिया। इसमें दो निरीक्षक सहित 13 पुलिसकर्मी घायल हो गए। ग्रामीणों के हमले से कोटवार भी जख्मी हुआ है। उग्र भीड़ को पुलिस द्वारा खदेड़े जाने पर कुछ ग्रामीणों को भी चोटें आई हैं। इस दौरान घायल पुलिसकर्मियों का उदयपुर अस्पताल में उपचार कराया गया। एक आरक्षक को रामकृष्ण केयर हॉस्पिटल रायपुर भेजा गया, उसकी जांघ में तीर लगा था। प्रशासन ने इस विरोध के लिए शांतिपूर्ण प्रदर्शन की अनुमति दी थी। मगर प्रदर्शनकारी तीर, धनुष, डंडा, गुलेल, पत्थर, कुल्हाड़ी लेकर विरोध करने आए थे। उन्हें शांतिपूर्वक तरीके से विरोध करने को कहा गया तो पुलिस बल पर हमला किया गया। भीड़ को वहां से हटा दिया गया। अब स्थिति सामान्य है। इससे पहले 2021 में 30 गांवों के 350 से अधिक ग्रामीण 300 किमी लंबी पदयात्रा कर रायपुर पहुंचे थे, जहां तत्कालीन राज्यपाल ने मामले की जांच का आश्वासन दिया था। छत्तीसगढ़ विधानसभा ने 2022 में (कांग्रेस शासन के दौरान) सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित किया था कि हसदेव क्षेत्र में खनन गतिविधियाँ नहीं की जाएंगी। इस साल छत्तीसगढ़ राज्य अनुसूचित जनजाति आयोग ने परसा खदान के लिए कथित फर्जी ग्राम सभा प्रस्ताव की जांच शुरू की है।
राहुल गांधी या कांग्रेस के अन्य नेता भाजपा पर अडानी का पार्टनर होने का आरोप लगाते रहे हैं। कांग्रेस का कहना था कि केंद्र सरकार पेड़ कटवा रही है, लेकिन जब प्रदेश में कांग्रेस की सरकार आई तो भूपेश बघेल के नेतृत्व वाली सरकार में भी पेड़ काटे गये। केंद्र द्वारा दी गई पर्यावरणीय स्वीकृति में कांग्रेस सरकार का भी उतना योगदान था, जितना केंद्र की भाजपा सरकार का था। हम यहां देखते हैं कि जब कोई बड़ा कारपोरेट समूह किसी काम में हाथ लगाता है तो सरकार किसी की भी हो उनके हित के लिए सरकार या सरकार के प्रतिनिधि और आमतौर पर मुखर रहने वाले जनप्रतिनिधि भी अपनी आवाज दबा लेते हैं या किसी प्रकार की बहानेबाजी करने लगते हैं। यही हाल हसदेव अरण्य में भी देखने को मिला। यहां पेड़ों की कटाई निर्बाध गति से जारी थी और अभी भी जारी है। जब हसदेव में विवाद बढ़ा तो तत्कालीन डिप्टी सीएम टीएस सिंहदेव हसदेव पहुंचे। उन्होंने आंदोलन का समर्थन किया। बात राहुल गांधी तक पहुंची। तब राहुल गांधी देश से बाहर थे, वहां अपने इंटरव्यू में राहुल ने फिर हसदेव को बचाने की बात कही, लेकिन शायद वो अपने मुख्यमंत्री को नहीं समझ पाए और पुलिस के पहरे में पेड़ कटवा दिए गए। पूर्ववर्ती भाजपा की सरकार में भी वही स्थिति थी, तब भी पेड़ काटे गए। आम लोग यही समझते रहे कि सता और शासन बदलेगा तो हालात बदलेगा और पेड़ों की कटाई रुक जाएगी, पेड़ बच जाएंगे। पर हसदेव में कटाई के लिए भाजपा कांग्रेस को जिम्मेदार बताती है तो भाजपा कांग्रेस को दोषी बताती है, जबकि कोल ब्लॉक आबंटन से लेकर जंगल कटाई की अनुमति तक केंद्रीय मंत्रालयों से मिलती है। अब कभी केंद्र के पाले में बॉल होती है तो कभी राज्य के पाले में होती है। अब तो प्रदेश में डबल इंजन की सरकार है। सियासी अखाड़े में नूरा कुश्ती तो दोनों ही दलों ने की है। पेसा कानून की धज्जियां उधर भी उड़ी और इधर भी उड़ रही है। जिस ग्राम सभा को अधिकार है, उसकी कार्यवाही को फर्जी बताया जा रहा है। लेकिन जब चुनाव आया तो यह मुद्दा गायब हो जाता है। इसके विपरीत बाक़ी दिन बड़े और लंबे समय तक आन्दोलन होता है। कांग्रेस बीजेपी को अडानी का मित्र बताती है। कभी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी मंच से कहते हैं कि अडानी ने कांग्रेस को भर-भर कर पैसे दिए हैं। जाहिर है सभी राजनीतिक पार्टियां कारपोरेट से जुड़ी होती हैं।
वाइल्ड लाइफ इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया द्वारा साल 2021 में पेश की गई रिपोर्ट के अनुसार, हसदेव अरण्य में गोंड, लोहार और ओरांव जैसी आदिवासी जातियों के 10 हजार लोग निवास करते थे। इसके अलावा यहां 82 तरह के पक्षी, दुर्लभ प्रजाति की तितलियां और 167 प्रकार की वनस्पतियां हैं। जिनमें से 18 वनस्पतियां ऐसी हैं जो लुप्त होने की कगार पर है। साथ ही इस क्षेत्र में हसदेव नदी भी बहती है और हसदेव जंगल इसी नदी के कैचमेंट एरिया में स्थित है। इन्ही वजहों के चलते इस जंगल को मध्य भारत का फेफड़ा भी कहा जाता है। ऐसे में यदि इस पूरे जंगल को काट दिया जाता है तो आने वाले समय में लोगों को भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है। इससे जल-जंगल-जमीन तीनों प्रभावित होगी। देश की विकास की बहुत बात होती है। सारी राजनीतिक पार्टियां विकास करने का दावा करती हैं। मगर आखिर विकास किस कीमत पर हो रहा है। दिनों-दिन शहरी या नगरीय क्षेत्र बढ़ रहा है। आबादी का घनत्व बढ़ रहा है। इसका सीधा दुष्प्रभाव जंगल पर पड़ता है। जंगल अब सड़कों के किनारे तो दिखते हैं, लेकिन अंदर ही अंदर जंगल की कटाई हो चुकी है और जंगल खोखले हो चुके हैं। जंगल चाहे बस्तर का हो या अंबिकापुर-सरगुजा का हो। पूरे देश में छत्तीसगढ़ को घने जंगलों के लिए जाना जाता है। यहां की अब तक की सरकारें आदिवासी कल्याण और लघु वनोपज की समर्थन मूल्य पर अधिकतम खरीदी का दावा करती रही है, लेकिन जब जंगल ही नहीं बचेगा तो लघु वनोपज कैसे बचेंगे? जंगल के भीतर रहने वाले आदिवासियों के जीवन का आधार ही जंगल है। पेड़ उनके बड़का देवता हैं। वे अपनी प्रकृति को पूजते हैं, अगर उनकी प्रकृति को ही नष्ट करेंगे तो जंगल में असंतुलन पैदा होगा। अभी ताजा मामला है कि जंगली हाथी बांबे-हावड़ा रोड पर आ गए और ट्राफिक को रोकना पड़ा। जब जंगल नहीं होगा तो जंगल के जानवर सड़क पर आएँगे, बस्ती में आएँगे, गाँव में आएंगे और शहरों में आएंगे। इसका दुष्परिणाम सामने आने लगा है। हाथियों का उत्पात आए-दिन देखने-सुनने को मिल रहे हैं, क्योंकि हाथियों के रहने की जगह भी जंगल ही है। मनुष्य लगातार जंगल की ओर जा रहा है और जंगल काटे जा रहे हैं। जंगल का दायरा सिमट रहा है। जंगलों के सिमटने से जंगली जानवर आबादी तक पहुंच रहे हैं। जंगलों की कटाई कारपोरेट सेक्टर को फायदा पहुँचाने के लिए की जा रही है। एक बार चिपको आन्दोलन के जरिए पेड़ों को बचाने की कोशिश की गई थी। हम पेड़ों और पर्यावरण को लेकर उतने सचेत नहीं हैं, जितना कि होना चाहिए। दिल्ली के आसपास जब पराली जलाई जा रही है तो वहां का प्रदूषण का स्तर बढ़ जाता है। यह संकेत है कि अगर हमने अपने पर्यावरण की रक्षा नहीं की, हमने अपने पेड़ों को नहीं बचाया तो बरसात भी कम होगी, नदियों का कटाव भी होगा। अगर जंगल नहीं रहेंगे तो उससे मिलने वाले जीवनदायिनी वस्तु नहीं मिलेगी। आक्सीजन नहीं मिलेगा। जंगल केवल आदिवासी के जीवन से नहीं, बल्कि सबके जीवन से जुड़ा है। इसलिए सबको देखना होगा कि जंगल की कटाई को कैसे रोका जाए।

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