Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – कितने प्रासंगिक हैं प्रेमचंद

Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से - कितने प्रासंगिक हैं प्रेमचंद

-सुभाष मिश्र

मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास उनकी कहानियां उनके पूरे रचना संसार को आज के प्रसंग में किस तरह देखा जाए। आज हम प्रेमचंद को क्यों पढ़े क्या सिर्फ साहित्यिक तृष्णा को बूझाने या फिर हमारे सामाजिक सांस्कृतिक अवचेतना को और सुघर बनाने में प्रेमचंद आज भी कारगर है तो इस सवाल का जवाब है हां प्रेमचंद ने जो साहित्य पिछले सदी के शुरुआती दशकों में रची है वो आज इस सदी में भी पूरी तरह प्रासंगिक है। आज जब कवि राजेश जोशी कहते हैं- कठघरे में खड़े कर दिये जाएंगे जो विरोध में बोलेंगे। जो सच-सच बोलेंगे, मारे जाएँगे। हमें बताता है कि आज भी सत्ता या किसी ताकत के खिलाफ अगर सच कहा जाए तो उसके गुस्से का शिकार आप हो सकते हैं। सत्ता या पॉवर सेंटर का चरित्र प्रेमचंद के दौर में भी वैसा ही थी। हो सकता है कि कुछ ज्यादा ही निरंकुश रहा होगा। तब प्रेमचंद कहते हैं कि क्या बिगाड़ के डर से न्याय की बात नहीं करोगे मुझे लगता है कि प्रेमचंद का यह वाक्य आज बहुत प्रासंगिक है और सच बोलने वालों के लिए, कलम के सिपाहियों को प्रेरित करते रहे हैं और आगे भी किसी भी तानाशाही के खिलाफ खड़े होने की ताक़त देते रहेंगे। साथ ही साथ प्रेमचंद ने उस दौर में महिलाओं के हक में कलम चलाई उनकी रचनाओं में स्त्रियों को अलग ही मुक़ाम दिया। उन्होंने बड़ी शिद्दत से समाज की समस्याएं उजागर की।
प्रेमचंद कहते हैं- बड़ा आश्चर्य होता है कि जिस कोख ने पुरुषों को जनम दिया उस नारी को पुरुषों ने कैसे अबला बना दिया। जो जन्म के लिए भी स्त्री की कोख के लिए मोहताज़ है उन्होंने उस स्त्री को सर्वथा महत्वहीन बना दिया । जब पुरुष में नारी के गुण आ जाते हैं तो वो महात्मा बन जाता है लेकिन यदि नारी में यह गुण आ जाए तो वो कुलटा बन जाती है। गोदान में लिखी ये पंक्तियां प्रेमचंद का नारी को देखने का अलग नज़रिया प्रस्तुत करती है।
प्रेमचंद के साहित्यिक अवदान पर कथाकार आनंद हर्षुल कहते हैं—
प्रेमचंद उर्दू से हिंदी में आए और हिंदी के कथा सम्राट बन गए उनके पास कफन, ईदगाह, पूस की रात जैसी कहानियां थी इन पर कोई भी कथाकार इर्श्या कर सकता था। उन्होंने प्रचुर मात्रा में लिखा, उन्हें कथा सम्राट यूं ही नहीं कहा जाता वे जनता से घुले-मिले और बहुत ज्यादा पढ़े जाने वाले लेखक थे।
प्रेमचंद एक दृढ़ राष्ट्रवादी थे, जिसकी झलक उनकी रचनाओं में बखूबी देखने को मिलती है। लेकिन प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं में राष्ट्रवादी नेताओं की स्वार्थ लिप्सा एवं कमज़ोरियों को भी उजागर किया। उन्होंने रंगभूमि एवं कर्मभूमि उपन्यास के ज़रिये शिक्षित राष्ट्रवादी नेताओं को उनकी कमजोरियों का एहसास कराते हुए उन्हें सुधारने का प्रयास भी किया। इन शिक्षित एवं स्वार्थी प्रकृति के लोगों पर व्यंग्य करते हुए ‘आहुति में एक स्त्री कहती है- ”अगर स्वराज्य आने पर भी संपत्ति का यही प्रभुत्व रहे और पढ़ा-लिखा समाज यूँ ही स्वार्थान्ध बना रहे, तो मैं कहूंगी, ऐसे स्वराज्य का न आना ही अच्छा। अंग्रेज़ी महाजनों की धनलोलुपता और शिक्षितों का स्वहित ही आज हमें पीसे डाल रहा है। प्रेमचन्द आज भी उतने ही प्रासंगिक है जितने अपने दौर में रहे हैं, बल्कि किसान जीवन की उनकी पकड़ और समझ को देखते हुए उनकी प्रासंगिकता और अधिक बढ़ जाती है। किसान जीवन के यथार्थवादी चित्र्ण में प्रेमचन्द हिन्दी साहित्य में अनूठे और लाजवाब रचनाकार रहे हैं।
आलोचक जयप्रकाश प्रेमचंद की रचनाओं को लेकर किस तरह की नजरिया पेश करते हैं आइये सुनते हैं-
प्रेमचंद हिंदी कथा साहित्य के शिखर पुरुष हैं। 20वीं सदी के शुरुआत में जब हिंदी कथा साहित्य यथार्थ की धरातल उतरा ही नहीं था। प्रेमचंद ने यथार्थ रचा और हिंदी साहित्य की तासीर को बदल देते हैं। चाहे वो उपन्यास हो या कहानियां प्रेमचंद के बाद वो वही नहीं रह जाते जो पहले थे। प्रेमचन्द का कथा साहित्य जितना समकालीन परिस्थितियों पर खरा उतरता है, उतना ही बहुत हद तक आज भी दिखाई देता है। उनकी रचनाओं में गरीब श्रमिक, किसान और स्त्री जीवन का सशक्त चित्रण उनकी दर्जनों कहानियों और उपन्यासों में हुआ है, ‘सद्गति, ‘कफन, ‘पूस की रात और ‘गोदान में मिलता है। ‘रंगभूमि, ‘प्रेमाश्रम और ‘गोदान के किसान आज भी गाँवों में देखे जा सकते हैं सिर चढ़ाएगी कि वे विदेशी नहीं, स्वदेशी है?
प्रेमचंद की कहानियों में जहां एक ओर रूढिय़ों, अंधविश्वासों,  परंपराओं पर कड़ा प्रहार किया गया है वहीं दूसरी ओर मानवीय संवेदनाओं को भी उभारा गया है। अपने जीवन काल में वे विभिन्न सुधारवादी और पराधीनता की स्थितिजन्य नव जागरण प्रवृत्तियों से प्रभावित रहे हैं, यथा आर्यसमाज, गांधीवाद, वामपंथी विचारधारा आदि। आगे बढऩे से पहले कथाकर भालचंद जोशी प्रेमचंद की कहनियों और रचनाओं की प्रासंगिकता पर कहते हैं। प्रासंगिकता लेखन की होती है विचार की होती है। प्रेमचंद उस दौर में गांव, किसान और समाज में बदलाव लाना चाह रहे थे, उस बदलाव की जरूरत आज भी है। उन्होंने अपने साहित्य में जो बदलाव की बात कही वो उपदेशात्मक लहजे में नहीं की बल्कि कथ्य में पात्रों के बीच इस तरह से वो बातें जिससे सहज ही पाठक उससे संबंध बना लेता था।
सेवासदन और कायाकल्प में जहां साम्प्रदायिक समस्या उठाई गई है, वहीं रंगभूमि, कर्मभूमि और गोदान में अन्तर्जातीय विवाह की, समाज में नारी की स्थिति और अपने अधिकारों के प्रति उनकी जागरूकता इनके लगभग सभी उपन्यासों में देखने को मिलती है। गबन और निर्मला में मध्यम वर्ग की कुण्ठाओं का बड़ा ही स्वाभाविक और सजीव चित्रण किया गया है। हरिजनों की स्थिति और उनकी समस्याओं को कर्मभूमि में सर्वोत्तम रूप से उजागर किया गया । प्रेमचंद का पहला उपन्यास ‘सेवासदन 1918 में प्रकाशित हुआ। इसी के साथ नये युग का सूत्रपात होता है। इस ‘प्रेमचंद युग या हिन्दी उपन्यास का ‘विकास युग के नाम से जाना जाता है। यह काल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और समाज सुधार संबंधी आन्दोलनों का काल था। अंग्रेज़ी शासन और शिक्षा एवं सभ्यता के प्रभाव से हमारे समाज में व्याप्त कुरीतियों, अंधविश्वासों एवं धार्मिक आडंबरों के खि़लाफ़ विद्रोह से एक नवीन चेतना और गौरव की भावना का उदय हो रहा था। महात्मा गांधी राजनीतिक मंच पर पूरी तरह से उदित हो गए थे। उनके सत्य, अहिंसा, सदाचार, सत्याग्रह, अस्पृश्यता विरोध, स्त्रियों की उन्नति, ग्राम सुधार, अछूतोद्धार, स्वदेशी आदि से संबंधित विचारधारा का लोगों पर काफ़ी प्रभाव पडऩे लगा था। अन्याय-उत्पीडऩ के खि़लाफ़ विरोध की नई शक्ति का उदय हो चुका था। उत्पीड़क समाज, सामन्त वर्ग आदि से टक्कर लेने का साहस लोगों में जगा था। रूस की नवजागृति, विज्ञान के अविष्कार आदि का हमारे जनजागरण पर व्यापक प्रभाव पड़ा। इसलिए कल्पना, रोमांस और चमत्कार-प्रदर्शन के इन्द्रजाल से मुक्ति लेकर हिन्दी उपन्यासकार यथार्थ के कठोर धरातल पर कदम रख कर समाज के हित में साहित्य की रचना करने लगे। इस नयी रचनादृष्टि के संवाहक थे मुंशी प्रेमचंद। आज के दौर में भी धर्म के नाम पर एक दूसरे को लड़ाने का समाज को बांटने का काम किया जा रहा है। ऐसे में उस दौर में प्रेमचंद के लिखे ये कथन आज बहुत ज्यादा प्रासंगिक हो जाते हैं-प्रेमचंद अपने निबंध में लिखते हैं।
‘हिंदू अपनी संस्कृति को कयामत तक सुरक्षित रखना चाहता है, मुसलमान अपनी संस्कृति को। दोनों ही अभी तक अपनी-अपनी संस्कृति को अछूती समझ रहे हैं, यह भूल गए हैं कि अब न कहीं हिंदू संस्कृति है, न मुस्लिम संस्कृति और न कोई अन्य संस्कृति। अब संसार में केवल एक संस्कृति है और वह है आर्थिक संस्कृति, मगर आज भी हिंदू और मुस्लिम संस्कृति का रोना रोए चले जाते हैं, हालांकि संस्कृति का धर्म से कोई संबंध नहीं।
इस तरह कई मसले ऐसे हैं जिन्हें आज भी प्रेमचंद के नजरिए से देखा जा सकता है या फिर उनकी दृष्टिकोण का सहारा लेकर उसे आगे सकारात्मक दिशा में बढ़ाया जा सकता है।

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