Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – गाइडलाइन दरों पर विवाद: जमीन, ज़रूरत और ज़मीनी सच्चाइयों के टकराव का आईना

-सुभाष मिश्र

छत्तीसगढ़ में नई कलेक्टर गाइडलाइन के लागू होते ही जमीनों के रेटों में जो अप्रत्याशित उछाल दर्ज हुआ, उसने न केवल आम लोगों और खरीददारों को, बल्कि रियल एस्टेट कारोबारियों, किसानों और व्यापारियों सभी को एक साथ विचलित कर दिया। कई स्थानों पर 5 से 9 गुना और कुछ जगहों पर 800 से 1000 प्रतिशत तक की वृद्धि की खबरों ने माहौल को स्वाभाविक रूप से गर्माया।
ऐसे समय में जब जमीन सिर्फ भूखंड नहीं, बल्कि भविष्य, सुरक्षा और निवेश का आधार बन चुकी है, इस तरह की तेज बढ़ोतरी ने समाज के हर वर्ग में असुरक्षा की भावना को जन्म दिया। कुछ जगहों पर नाराजग़ी इतनी बढ़ी कि दुर्ग में प्रदर्शनकारियों और पुलिस के बीच टकराव तक की नौबत आ गई, लाठीचार्ज हुआ, कुछ लोगों पर कार्रवाई हुई और गिरफ्तारी भी। इसके विरोध में कांग्रेस विधायक देवेंद्र यादव सहित कई नेताओं का सड़क पर उतर आना बताता है कि यह मुद्दा केवल आर्थिक नहीं, बल्कि सामाजिक व राजनीतिक तापमान से भी जुड़ा हुआ है।

पुराना नियम बनाम नया प्रावधान: व्यावहारिकता पर बड़ा सवाल
गाइडलाइन के तकनीकी बदलावों ने आग में घी का काम किया। पहले शहरों में 16,000 वर्गफीट से अधिक और ग्रामीण इलाकों में 21,000 वर्गफीट से अधिक जमीन की रजिस्ट्री हेक्टेयर में होती थी।
लेकिन नए नियम के तहत चाहे आप 20,000 वर्गफीट जमीन खरीदें, पहले 15,000 वर्गफीट की रजिस्ट्री स्क्वायर फीट में ही करनी होगी,
बचा हुआ हिस्सा अलग से दर्ज होगा और यदि उसी क्षेत्र में बाद में जमीन लें, तो फिर वही 15,000 स्क्वायर फीट का क्रम दुबारा दोहराना पड़ेगा। यह प्रावधान उन लोगों पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है जो जमीन को चरणबद्ध तरीके से खरीदते हैं। विडंबना यह कि यदि कोई पूरी जमीन एक साथ किसी बिचौलिए से खरीद लेता है तो उसे यह अतिरिक्त बोझ नहीं उठाना पड़ता। नियमों की यह विसंगति न केवल अव्यावहारिक है, बल्कि छोटे खरीदारों को प्रत्यक्ष नुकसान पहुंचाने वाली है।

भावों की छलांग ने खोली कई पुरानी परतें
नई गाइडलाइन के चलते जिन जमीनों की रजिस्ट्री पहले 80 लाख में पूरी हो जाती थी, अब उन पर 7.5 करोड़ की रजिस्ट्री की स्थिति बन गई। नया रायपुर जैसे क्षेत्रों में एक एकड़ की कीमत 10 लाख से सीधे 40 लाख तय कर दी गई। इसका सीधा असर स्टाम्प शुल्क से लेकर भविष्य की बिक्री तक पर पड़ा है।
जिन लोगों ने पुरानी दरों पर रजिस्ट्री कराई थी, उनकी समस्याएं भी कम नहीं। जमीन बेचने पर कैपिटल गेन टैक्स 3-4 करोड़ की संपत्ति पर 80 लाख से 1 करोड़ तक तक पहुंचने की आशंका है।
यानी गाइडलाइन चाहे सरकार के राजस्व के लिहाज़ से उचित हो, लेकिन इसका वास्तविक भार नागरिकों पर ही पडऩा तय है।

भूमाफिया, बिचौलिये और किसान—पुराने सवाल फिर सामने
छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद खासकर रायपुर-बिलासपुर-दुर्ग-जगदलपुर जैसे शहरों में जमीन का कारोबार रातोंरात चमका। किसानों की मजबूरी और बिचौलियों की ताकत के बीच पिछले 25 वर्षों में ऐसी असंख्य घटनाएं हुईं, जहां किसान की जमीन औने-पौने दाम पर ली गई और बाद में करोड़ों में बेची गई।भारतमाला जैसे प्रोजेक्टों में अधिग्रहण के दौरान भी अनियमितताओं की शिकायतें सामने आईं।
आज जब गाइडलाइन दरों में बढ़ोतरी हुई है, भाजपा समर्थित व्यापारी तक आंदोलन पर उतर आए, यह बताता है कि जमीन का गणित केवल राजनीति का नहीं, बल्कि सत्ता-समर्थक और विपक्षी दोनों वर्गों की लामबंदी का कारण बन चुका है।

राजनीतिक सहमति ने बनाया रास्ता
गाइडलाइन विवाद पर भाजपा सांसद बृजमोहन अग्रवाल और पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल दोनों ने ही कहा कि जमीन जैसे संवेदनशील विषयों पर व्यापक संवाद अनिवार्य है। यह दुर्लभ स्थिति थी जब दोनों राजनीतिक ध्रुव एक ही निष्कर्ष पर खड़े दिखाई दिए। लगातार बढ़ते विरोध, सामाजिक प्रतिक्रिया और राजनीतिक दबाव के बाद सरकार ने संशोधन का फैसला लिया और इसे ‘जनहित में लिया गया निर्णयÓ बताकर विज्ञापन भी जारी किया।

मुख्यमंत्री विष्णु देव साय के शब्द महत्वपूर्ण हैं
सरकार जनता के लिए नियम बनाती है, लेकिन वही अच्छी सरकार है जो जनता की सुने और उनकी इच्छा के अनुरूप अपने निर्णयों में संशोधन भी करे। यह बयान बताता है कि सरकार ने सही समय पर पल्स पकड़ ली।

आगे का रास्ता संवाद, पारदर्शिता और वास्तविकता का संतुलन
गाइडलाइन दरें सरकार के राजस्व और विकास का आधार अवश्य हैं, लेकिनजमीन की खरीद-फरोख्त से जुड़े वास्तविक सामाजिक-आर्थिक समीकरण,किसानों के हित,रियल एस्टेट सेक्टर की व्यवहारिकता, और आम नागरिक के सामथ्र्य इन सबको साथ रखकर नीति का निर्माण ही आज का व्यावहारिक मॉडल है।
जो निर्णय संवाद के ज़रिए लिए जाते हैं वे न केवल टिकाऊ होते हैं बल्कि समाज में विश्वास भी मजबूत करते हैं।
गाइडलाइन विवाद ने भले सरकार की परेशानी बढ़ाई, लेकिन अंतत: यह एक स्वस्थ लोकतांत्रिक अभ्यास में बदल गया—
जहां समाज की आवाज़ सुनी गई,
विरोध को स्वीकृति मिली,

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