-सुभाष मिश्र
छावा फिल्म ने इन दिनों कई तरह की बहस को जन्म दे दिया है। फिल्म में हिंसा की अति है। हिंसात्मक दृश्यों को फिल्म की भाषा में बहुत ही उत्तेजक और क्रूरता की उस भाषा में फिल्माया गया है जो दर्शकों को हिंसा से घृणा या अरुचि पैदा करने की अपेक्षा हिंसा की उत्तेजना में आनंद देती है। फिल्मों से आदर्श पैदा करना और अपराध के प्रति घृणा पैदा करने का चलन नई सदी में खत्म हो चुका है। बुराई को नीचा दिखाना, भलाई को प्रतिष्ठित करना। बुरे व्यक्ति को सजा मिलना और भले व्यक्ति को समाज में सम्मान मिलना, पहले की फिल्मों का यह सामाजिक उद्देश्य होता था। जो लंबे समय तक चलता रहा। बुराई करने वाला कैसा भी व्यक्ति हो अंतत: खलनायक ही माना जाता था। नई सदी में खलनायक को प्रतिनायक की छवि में प्रतिष्ठित करने की बाजरू लालसा फिल्मों की छवि भी बदल रही है और समाज में गलत संदेश भी दे रही है। सदी की शुरुआत में फिल्मों में यह हिंसा आंशिक थी लेकिन फिल्म एनिमल तक आते-आते यह हिंसा और बाजारूपन शिखर पर आ गया। सेक्स और हिंसा फिल्म की सफलता का पर्याय होने लगा। एनिमल फिल्म में नायक की हिंसा का अतिरेक कहीं भी न्यायोचित नहीं है लेकिन उसे फिल्म में इस तरह से ग्लैमराइज किया है कि हिंसा में अंधे फिल्म के उस नायक से दर्शकों को घृणा होने के बजाय उत्तेजना और आनंद महसूस होता है। हिंसा की व्यावसायिक सफलता ने फिल्म वालों को इतिहास की तरफ मोड़ दिया है। ऐतिहासिक फिल्मों में हिंसा प्रकट रूप में जायज लगती है क्योंकि यह हिंसा इतिहास में भी शामिल है। लड़ाई और मार-काट के दृश्य अब सांकेतिक न होकर इस हद तक हिंसा और अमानवीयता से भरे हुए हैं कि दर्शकों का दिल दहल जाए और भले लोगों जुगुप्सा से भर जाएं और यह बात सामाजिक रूप से कितनी डरावनी है कि फिल्मों में जुगुप्सा भी प्रिय लगने लगी है। निर्माता निर्देशक इसका व्यावसायिक लाभ उठाते हैं। फिल्मों में एक चलन और पैदा हुआ है वह है – वर्ण, धर्म या वर्ग भेद का व्यावसायिक लाभ उठाना । इन दिनों हिंदू धर्म आस्था और पूजा से बाहर आकर देशभक्ति के एक अजीब से रिश्ते में बंध गया है। सांप्रदायिकता एक खतरनाक उन्माद में बदल चुकी है। धर्म के प्रति आग्रह इतना बढ़ गया है कि पुराने समय की सांप्रदायिकता बचपना लगती है। इस धार्मिक उन्माद को देशभक्ति के लबादे में व्यावसायिक लाभ उठाने के लिए फिल्म वाले इन दिनों बहुत उतावले हैं। कश्मीर फाइल्स, केरल फाइल्स जैसी फि़ल्में इसका उदाहरण हैं। इस तरह की फिल्मों से निर्माता का उद्देश्य न तो कोई देशभक्ति का है और न सांप्रदायिकता की खिलाफत से जुड़ा है। यह सिर्फ व्यवसायिकता और लालच है। देशभक्ति की आड़ में अवसरवाद है। इसका ताजा उदाहरण फिल्म छावा है।
छावा फिल्म छत्रपति शिवाजी के पुत्र संभाजी के जीवन पर केंद्रित है लेकिन यह इतिहास का फिल्मीकरण नहीं है बल्कि इतिहास का व्यावसायिक फिल्मीकरण है। मार-काट और हिंसा के अतिरेक से भरी यह फिल्म इतिहास के जरूरी तथ्यों से कन्नी काटकर यानी उसे परहेज पालकर सिर्फ मुगलों के जुल्म , दहशत और क्रूरता को बताती है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि मुगलों ने भारतीय छोटे राजाओं और प्रजा पर बहुत जुल्म किए हैं। बहुत अत्याचार किए हैं और ये अत्याचार बेहद क्रूर और अमानवीय थे लेकिन यह इतिहास में एक स्वाभाविक प्रवृत्ति थी। राजगद्दी के प्रति लोभ और लालच में उस समय राजाओं को ऐसे अत्याचार और क्रूरता सामान्य लगती थी। हिंदू राजाओं ने भी यही किया है। भाई-भाई को मार डालता था। कई राजकुमारों ने राज्य की ऐसी लड़ाई में अपने माँ-बाप की भी हत्या की है। जब आज सत्ता सर्वोपरि मानी जाती है तो सोचिए उस युग में यह कितनी स्वाभाविक बात रही होगी। और राजा किसी भी जाति या धर्म का हो, उसे अपनी राजगद्दी बचाने के लिए हिंसा और अमानवीयता स्वाभाविक और जायज लगती थी। भाई या पिता को मार डालने में कोई हिचक नहीं थी क्योंकि वह जानता था कि वह नहीं मारेगा तो वह खुद मारा जाएगा। लोकतंत्र नहीं था कि सर्वसम्मति से राजा चुना जाएगा। ताकत का बोलबाला था जिसके हाथ में तलवार राजगद्दी उसी की होती थी। कश्मीर में महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद भी यही हुआ था और सम्राट अशोक ने भी अपने भाइयों के साथ यही किया था। हिंसा और अमानवीयता पर किसी धर्म विशेष का एकाधिकार या उनपर आरोप नहीं है लेकिन छावा फिल्म बनाते हुए निर्माता निर्देशक ने यह छल किया है कि उसने इतिहास की हिंसा और अमानवीयता को ऐसी मार्मिकता में प्रकट किया है जहां बहुसंख्य धर्म विशेष के लोगों की भावनाएं आहत होंगी और धर्म विशेष के खिलाफ फैले हुए सांप्रदायिक उन्माद का व्यावसायिक लाभ मिलेगा और इसका व्यावसायिक लाभ निर्माता निर्देशक को मिलना है। निर्माता निर्देशक इस बात को जानते हैं कि आम भारतीय जन अपने गुस्से का विरेचन चाहता है और ऐसी फिल्में उनकी मार्मिकता से खिलवाड़ करती हैं वरना तो भारतीय आमजन अपनी ही रोजी-रोटी के भंवर में फंसा है। संभाजी के साथ बहुत अमानवीय बर्ताव हुआ था। औरंगजेब ने उसे बहुत यातनाएं दीं और मृत्यु तुल्य कष्ट दिए थे लेकिन फिल्म से संभाजी के गुस्सैल व्यवहार और आक्रामक स्वभाव के विवरण नदारद है। छत्रपति शिवाजी ने पन्हारा के किले में बहुत समय तक संभाजी को बंद करके रखा था क्योंकि वे संभाजी के गुस्से और स्त्रियों के प्रति अनुदान व्यवहार से दुखी थे।
ऐसी फिल्मों के व्यवसायिक हथकंडों को आमजन समझता नहीं है कि ऐसी फिल्में इतिहास का गलत रूप तो प्रस्तुत करती है लेकिन उसे भारतीय आम जन के भावुक मन से भी खिलवाड़ करती है जो अपने मध्य वर्ग के दुख दर्द में फंसा है।
मध्यकाल की यह हिंसात्मक लड़ाइयां विशुद्ध रूप से राजगद्दी के लिए होती थी यानी यह राजनीतिक लड़ाइयां थीं इसका किसी धर्म से कोई लेना-देना नहीं था। औरंगजेब के राज दरबार में मंत्री और बड़े पद पर हिंदू लोग आसीन थे और छत्रपति शिवाजी की सेना में इब्राहिम खान के नेतृत्व में हजारों की संख्या में मुसलमान थे।
सुप्रसिद्ध लेखक कवि इतिहासकार अशोक कुमार पांडे ने अपनी सोशल मीडिया पोस्ट पर लिखा है औरंगज़ेब ने संभाजी के साथ क्रूरता की थी बिल्कुल की होगी। अगर संभाजी को मौक़ा मिलता तो वह भी ऐसी ही क्रूरता करते औरंगज़ेब के साथ। क्रूरता मध्यकाल की वीरता थी। मध्यकाल में यही वीरता थी जिसके कि़स्से गर्व से सुनाए जाते हैं। आप मार दो सामने वाले को वरना सामने वाला आपको मार देगा। सत्ता सर्वोपरि। न्याय तलवार का।
हाथी से कुचलवा देना तो मुहावरा बन गया। सोचिए कितना क्रूर रहा होगा किसी जि़ंदा आदमी को हाथी से कुचलवा के मार देना! जीभ खींच लेना भी मुहावरा है, ज़ाहिर है कभी बहुत कॉमन रहा होगा। आँखें निकलवा लेना, हाथ-पाँव काट देना, नाक-कान काट देना ..ये सब महान राजाओं के कि़स्सों में पढ़ा है हमने।
1857 में विद्रोहियों के दमन का एक तरीक़ा था उन्हें पेड़ पर लटका कर गोली मार देना। दूसरा तरीक़ा था तोप के मुँह से बाँधकर उड़ा देना। इन पर कोई सवाल नहीं उठा रहा क्योंकि मारने वाले अंग्रेज थे और मरने वाले हिंदू-मुसलमान दोनों थे। मारने वाला हिन्दू होता और मारने वाला मुसलमान तो ख़बर बनती। अगर मारने वाले सँभाजी होते और मरने वाला औरंगज़ेब तो सवाल नहीं उठता। ख़बर नहीं बनती। फि़ल्म भी नहीं। यह हिंदुत्व का विजय काल है तो विजेता हिन्दू होता तो सवाल नहीं उठता।
सवाई राजा जयसिंह सारी उम्र औरंगज़ेब के साथ रहे, उन्हें मुसलमान नहीं बनाया। शाहू जी महाराज औरंगज़ेब के साथ पले और अंत तक औरंगज़ेब की समाधि पर नंगे पाँव जाते रहे। उनकी माँ और वह मुसलमान नहीं बनाये गये।
फिल्म ‘छावाÓ छत्रपति संभाजी महाराज के जीवन पर आधारित है, जिसमें विक्की कौशल और रश्मिका मंदाना मुख्य भूमिका निभाई है। फिल्म ट्रेलर रिलीज़ के साथ ही विवादों में आ गई थी।
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बहुत से फिल्म के एक्सपर्ट्स और राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि यह फिल्म या इस तरह की फिल्में राजनीति से प्रेरित और प्रोत्साहित होती हैं बल्कि उनके संरक्षण में इस तरह की फिल्में बनती है। यह एक किस्म का धर्म विशेष के खिलाफ कथित राजनीतिक एजेंडा है। बहरहाल, सच्चाई जो भी हो लेकिन ऐसे फिल्म निर्माताओं को इससे दोहरा लाभ है। एक तरफ व्यावसायिक लाभ है जो कथित सांप्रदायिक उन्माद से मिल रहा है। दूसरी तरफ कथित राजनीतिक संरक्षण मिलता है जिससे फिल्म का अघोषित रूप से प्रचार होता है और ए सर्टिफिकेट नहीं मिलता है।
मृत्युंजय जैसी कालजयी उपन्यास लिखने वाले सुप्रसिद्ध मराठी लेखक शिवाजी सावंत के प्रसिद्ध उपन्यास ‘छावाÓ पर आधारित है , यह फि़ल्म । फिल्म बनाने वालो ने रचनात्मक स्वतंत्रता और अपने व्यवसायिक हितों को देखकर जानबूझकर फिल्म को कंटोवर्सियल बनाया है।
फि़ल्म के ट्रेलर लेजिम डांस सीन दिखाया गया। इस सीन में छत्रपति संभाजी महाराज के किरदार को लेजिम डांस करते हुए दिखाया गया, जिससे कई लोगों की भावनाएं आहत हुईं। इस पर प्रतिक्रिया देते हुए निर्देशक लक्ष्मण उतेकर ने मनसे प्रमुख राज ठाकरे से मुलाकात की और विवादित सीन को फिल्म से हटाने का आश्वासन दिया। विक्की कौशल ने भी इस पर कहा कि सीन हटाने में उन्हें कोई आपत्ति नहीं है। फिल्म में गणोजी और कान्होजी शिर्के के पात्रों को नकारात्मक रूप में दिखाने के आरोप लगे हैं। शिर्के वंशजों ने इसे अपने पूर्वजों की बदनामी बताते हुए 100 करोड़ रुपये की मानहानि का दावा किया है। इस पर निर्देशक लक्ष्मण उतेकर ने सार्वजनिक माफी मांगते हुए कहा कि उनका उद्देश्य किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाना नहीं था, और वे आवश्यक बदलाव करने के लिए तैयार है। जब कोई फिल्म विवादों में आती है तो फिल्म बनाने वालों को इसका फ़ायदा होता है। देश, समाज ,संप्रदाय , संस्कृति और धार्मिक आस्थाओं के प्रति लोगों के भावनात्मक लगाव और भाम्रक इतिहास के ज़रिए हिंसक प्रस्तुति लाभ का सौदा सिद्ध होता है। तमाम विवादों के बावजूद फिल्म ‘छावाÓ ने बॉक्स ऑफिस पर अच्छी कमाई कर रही है। भाजपा शासित राज्यों में इसे टैक्स फ्री भी किया गया है।