संधिवात, सिरदर्द, त्वचा रोग, कृमि और ज्वर में है असरदार
राजकुमार मल
भाटापारा:- ‘रत्ती’ अब रत्ती भर भी नहीं बिकता क्योंकि मापन इकाई से इसे बाहर कर दिया गया है। ऐसे में इसके पौधे स्थानीय स्तर पर विलुप्ति की कगार में हैं। संरक्षण और संवर्धन के प्रयास इसलिए नहीं किये जा रहे हैं क्योंकि यह बेहद विषैला होता है।
सराफा दुकानों में माप उपकरणों के बीच अब रत्ती नजर नहीं आता। मौजूदगी खरीदी बिक्री के दौरान केवल शाब्दिक ही रह गई है। नई व्यवस्था के बीच ‘रत्ती’ को मिलीग्राम के रूप में लिया जाने लगा है। स्वीकार कर रहे हैं आभूषण उपभोक्ता इस व्यवस्था को क्योंकि त्रुटि की कोई गुंजाइश नहीं है।
इसलिए रत्ती भर नहीं
सदियों से आभूषण विक्रेता रत्ती का उपयोग मापन इकाई के रूप में करते रहे हैं। सही वजन में त्रुटि की आशंका तब बलवती हुई, जब डिजिटल वेइंग मशीनों ने दस्तक दी। इसके अलावा माप विज्ञान विभाग ने भी इसे मान्यता नहीं दी। इन दो प्रमुख कारणों ने आभूषण बनाने और विक्रेता संस्थानों से रत्ती की विदाई की राह खोल दी। नई व्यवस्था के तहत रत्ती की जगह मिलीग्राम ने ले ली है।
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बच गए केवल यह
अब रत्ती के लिए केवल यूनानी और आयुर्वेदिक औषधि बनाने वाली ईकाइयां रह गई हैं। जहां जड़, पत्तियां और बीज से संधिवात, सिरदर्द, त्वचा रोग, कृमि नाशक और ज्वर नाशक दवाई बनाई जातीं हैं। श्वास रोग और फोड़े-फुंसी ठीक करने के काम आने वाली औषधि निर्माण ईकाइयां भी बेहद सीमित मात्रा में रत्ती की खरीदी कर रहीं हैं क्योंकि यह बेहद विषैला होता है। ऐसे में निर्माण क्षेत्र उपयोग को लेकर अतिरिक्त सावधानी बरत रहा है। यह सावधानी भंडारण, विपणन और विक्रय में भी अपनाई हुई है।
जानिए रत्ती को
बीजों की विशिष्टता और विषाक्तता की वजह से वैज्ञानिकों और चिकित्सकों के बीच अनुसंधान का केंद्र रहा रत्ती, लताओं वाला पौधा है। उष्णकटिबंधीय और उपोष्ण कटिबंधीय क्षेत्र में पनपने वाला रत्ती का पौधा पतली लताओं वाला होता है। पत्तियां, युग्मपर्ण, फूल छोटे और गुलाबी व बैंगनी रंग के होते हैं। बीज चमकदार लाल रंग का होता है। जिसके एक छोर पर काला धब्बा होता है। रत्ती द्वैध प्रकृति वाला पादप है जिसमें जीवन रक्षक गुण भी है और जानलेवा विष भी।
अद्भुत वनस्पति
रत्ती एक द्वैध प्रकृति वाला पौधा है – जहाँ एक ओर इसके बीज अत्यंत विषैले हैं, वहीं दूसरी ओर इसमें औषधीय गुण भी प्रचुर मात्रा में हैं। दुर्भाग्यवश इसके विषैले स्वरूप ने इसे उपेक्षित कर दिया है। संरक्षण और संवर्धन के अभाव में यह प्रजाति स्थानीय स्तर पर लुप्त होती जा रही है। हमें इसके सुरक्षित औषधीय उपयोग और नियंत्रित संवर्धन की दिशा में अनुसंधान और जागरूकता दोनों को बढ़ावा देना चाहिए, ताकि जैव विविधता संतुलित रह सके।
-अजीत विलियम्स, साइंटिस्ट (फॉरेस्ट्री), बीटीसी कॉलेज ऑफ़ एग्रीकल्चर एंड रिसर्च स्टेशन, बिलासपुर