अमित शाह की बस्तर यात्रा के मायने

-सुभाष मिश्र

छत्तीसगढ़ का बस्तर, जो कभी भय और रक्तपात की पहचान बन गया था, अब एक नए इतिहास के पन्ने पर खड़ा है। यह वही धरती है जहाँ दशकों से बंदूक की आवाज़ ने ढोल-नगाड़ों की गूंज को दबा दिया था। लेकिन 4 अक्टूबर 2025 को, जब केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह जगदलपुर पहुँचे तो वह दृश्य अलग था। बस्तर दशहरा के 75 दिनों तक चलने वाले भव्य आयोजन के बीच उन्होंने न केवल मुरिया दरबार में हिस्सा लिया, बल्कि यह स्पष्ट संकेत भी दिया कि अब बस्तर में बंदूक की नहीं, विकास की गूंज सुनाई देगी।
यह यात्रा केवल एक औपचारिक उपस्थिति नहीं थी। यह संदेश देने आई थी कि केंद्र सरकार का फ़ोकस अब बस्तर को नक्सलवाद से मुक्त करने पर है—एक ऐसा संकल्प, जिसे अमित शाह कई बार दोहरा चुके हैं 31 मार्च 2026 के बाद नक्सलवाद इस धरती से पूरी तरह समाप्त होगा। यह घोषणा केवल राजनीतिक नारा नहीं, बल्कि एक युद्धघोष थी—राज्य की विकास यात्रा को बाधित करने वाली हिंसक विचारधारा के विरुद्ध।
अमित शाह उस मुरिया दरबार में शामिल हुए, जिसे बस्तर के आदिवासियों की लोक संसद कहा जाता है। सदियों से यहां समस्याएं, परंपराएं और सामाजिक निर्णय तय होते रहे हैं। शाह का वहां पहुँचना प्रतीकात्मक रूप से बड़ा कदम था—केंद्र सत्ता का बस्तर की परंपरा से संवाद। लेकिन यह संवाद नर्म नहीं था। उन्होंने साफ़ कहा—कुछ लोग नक्सलियों से बातचीत की बात करते हैं, पर सरकार का रुख़ स्पष्ट है—हथियार डालिए, मुख्यधारा में लौट आइए। अन्यथा सुरक्षा बल जवाब देंगे।
यह बयान नक्सलवाद पर सरकार की ‘टू-ट्रैकÓ नीति को रेखांकित करता है—एक ओर आत्मसमर्पण और पुनर्वास की आकर्षक नीति, तो दूसरी ओर सख्त सैन्य कार्रवाई। शाह का कहना था कि बस्तर का हर गांव नक्सल मुक्त होगा और जैसे ही कोई गांव नक्सल मुक्त घोषित होगा, वहां विकास के लिए 1 करोड़ रुपये का विशेष अनुदान दिया जाएगा।
अपने दौरे के दौरान गृहमंत्री दंतेश्वरी मंदिर पहुँचे—वह स्थान जो बस्तर की आस्था का केंद्र है। वहां उन्होंने आरती की, जवानों के लिए शक्ति और पराक्रम की प्रार्थना की। यह दृश्य केवल धार्मिक नहीं था, बल्कि राजनीतिक भी—यह उस ‘संस्कृतिÓ के पुनर्स्थापन का प्रतीक था, जो नक्सली हिंसा के वर्षों में खोती चली गई थी।
बस्तर दशहरा में किसी केंद्रीय गृहमंत्री का पहली बार रस्म में शामिल होना, यह दिखाता है कि दिल्ली अब बस्तर को केवल समस्या क्षेत्र के रूप में नहीं, बल्कि संभावना क्षेत्र के रूप में देख रही है। शाह का यह कहना—हम स्वदेशी की संस्कृति को अपनाएंगे इसी दिशा में एक वैचारिक संदेश था। उनके मुताबिक, यदि 140 करोड़ भारतीय स्वदेशी संकल्प अपनाएं, तो भारत शीर्ष आर्थिक शक्ति बन सकता है। यह बात बस्तर के लिए भी उतनी ही अर्थपूर्ण है, जहाँ स्थानीय हस्तशिल्प, वन उत्पाद और पारंपरिक संसाधन विकास का आधार बन सकते हैं।
पिछले दो वर्षों में नक्सलवाद के विरुद्ध सुरक्षा बलों ने निर्णायक बढ़त हासिल की है। कई जिलों में नक्सल प्रभाव सिमटा है, हजारों भटके हुए युवाओं ने आत्मसमर्पण किया है। लेकिन सरकार की चुनौती केवल बंदूकें बुझाना नहीं, बल्कि उस वैचारिक धुएं को भी साफ़ करना है जिसने विकास और भरोसे की हवा को दूषित किया।
अमित शाह का यह कहना—दिल्ली के कुछ लोगों ने भ्रम फैलाया दरअसल उन वामपंथी विचार समूहों की ओर इशारा था जो नक्सलवाद को वैचारिक आंदोलन के रूप में प्रस्तुत करते रहे। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि नक्सलवाद ने बस्तर को विकास से दूर किया, लेकिन अब भाजपा शासन में स्थितियां बदल रही हैं—मुफ्त स्वास्थ्य बीमा, 3100 रुपये प्रति क्विंटल धान खरीदी, महिलाओं को हर महीने 1000 रुपये का लाभ, और अब नक्सलमुक्त गांवों के लिए 1 करोड़ रुपये का विकास अनुदान ये योजनाएं नक्सल विचारधारा के आधार को कमजोर करने के लिए आर्थिक और सामाजिक विकल्प प्रदान करती हैं।
हालांकि यह भी सच है कि 31 मार्च 2026 की ‘डेडलाइनÓ केवल सुरक्षा रणनीति नहीं, बल्कि राजनीतिक परीक्षा भी है। केंद्र और राज्य में भाजपा की संयुक्त सरकार के लिए यह एक प्रतिष्ठा का प्रश्न बन चुका है। नक्सलवाद का पूर्ण उन्मूलन यदि इस समय सीमा के भीतर संभव होता है, तो यह न केवल सुरक्षा नीति की जीत होगी, बल्कि राजनीतिक रूप से एक बड़ा नैरेटिव तैयार करेगा—कि मोदी-शाह युग में भारत के भीतर का सबसे पुराना आंतरिक विद्रोह समाप्त हुआ।
लेकिन प्रश्न यह भी उठता है कि क्या नक्सलवाद केवल सुरक्षा की समस्या है? बस्तर में गरीबी, अशिक्षा, विस्थापन और सामाजिक अलगाव आज भी मौजूद हैं। विकास योजनाएं तभी प्रभावी होंगी जब वे जमीन पर स्थानीय समाज के साथ जुड़ेंगी। शाह का मुरिया दरबार में बैठना इसलिए प्रतीकात्मक से अधिक था—यह संकेत था कि संवाद केवल बंदूक से नहीं, भरोसे से भी संभव है।
आज बस्तर दशहरा केवल धार्मिक उत्सव नहीं, बल्कि आत्मविश्वास का प्रतीक बन गया है। कभी जिस क्षेत्र को रेड ज़ोन कहा जाता था, वहीं अब केंद्रीय मंत्री मंच से नक्सल मुक्त बस्तर का संकल्प ले रहे हैं। यह दृश्य बताता है कि बस्तर का मानस बदल रहा है—लोग अब विकास की बात कर रहे हैं, सड़कें और अस्पताल मांग रहे हैं, स्कूलों में अपने बच्चों का नाम लिखवा रहे हैं।
अमित शाह की यह यात्रा इस बदलाव की दिशा में एक और कदम थी। उन्होंने न केवल नक्सलियों को चेतावनी दी, बल्कि यह भी भरोसा दिया कि जो लौटेंगे, उन्हें सरकार अपनी गोद में जगह देगी और जो नहीं लौटेंगे—उनके लिए सख्ती तय है।
बस्तर की यह यात्रा केवल एक राजनीतिक दौरा नहीं, बल्कि भारत की सबसे जटिल आंतरिक समस्या पर एक निर्णायक बयान थी। जब अमित शाह ने कहा—अब नक्सलवाद की विदाई करीब है तो यह केवल सुरक्षा बलों की उपलब्धि नहीं, बल्कि एक सामाजिक प्रतिज्ञा थी।
अब देखना यह है कि मार्च 2026 की समय-सीमा केवल शब्द नहीं, बल्कि इतिहास का वह मोड़ बने, जब बस्तर की धरती पर बंदूक की जगह हल की गूंज और भय की जगह विश्वास स्थायी रूप से लौट आए। इन सबके बावजूद यह आशंका फिर भी बनी हुई है कि नक्सलवाद के खात्मे के बाद भी कहीं-न-कहीं उसके अवशेष बचे रहेंगे। वे उपयुक्त अवसर देखकर पुन: सक्रिय हो जाएं तो आश्चर्य नहीं होगा। इस आशंका के मद्देनजर बस्तर में अर्धसैनिक बलों की लम्बे समय तक मौजूदगी से इनकार नहीं किया जा सकता। नक्सलियों के पुनर्वास के अलावा शिविरों में रह रहे ग्रामीणों के पुनर्वास की भी समस्या रहेगी। प्रभावित गांवों का नक्सलमुक्त घोषित होना ही काफ़ी नहीं होगा, बल्कि नक्सली समस्या का पूर्ण निवारण तभी होगा जब ग्रामीणों के पुनर्वास की समुचित व्यवस्था हो सकेगी। ज़ाहिर है, इसके लिए एक दीर्घकालिक रणनीति पर काम करने की आवश्यकता है।

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