-सुभाष मिश्र
प्रतिरोध की आवाज़ को दबाने की कोशिश कोई नई बात नहीं है। सत्ता चाहे किसी की भी रही हो, उसे अपने खिलाफ उठने वाली आवाज़ें कभी रास नहीं आतीं। यह प्रवृत्ति लोकतंत्र में भी जारी है, जहाँ असहमति को अनुशासनहीनता और विरोध को अपराध की तरह देखा जाने लगा है। छत्तीसगढ़ में हाल ही में घटी एक घटना इस असहज सच्चाई को उजागर करती है। धमतरी जि़ले के नारी स्कूल के प्राथमिक शिक्षक ढालूराम साहू ने अपने व्हाट्सऐप स्टेटस पर लिखा कि बच्चों को किताबें नहीं मिलीं और हम राज्योत्सव मना रहे हैं।
यह एक सीधी, सच्ची और सार्थक टिप्पणी थी, शिक्षा व्यवस्था की खामियों पर सवाल उठाती हुई। पर यह सवाल सरकार या विभाग को नागवार गुजऱा। कुछ ही घंटों में शिक्षक को अनुशासनहीनता के आरोप में निलंबित कर दिया गया। विभाग का कहना था कि यह अमर्यादित व्यवहार था, लेकिन असल प्रश्न यह है, क्या किसी सार्वजनिक स्तर पर कर्मचारी को सच बोलने का अधिकार नहीं है?
कबीर ने सदियों पहले कहा था —
सच कहूं तो मरण दवे, झूठ कहूं तो जग पटियाना,
साधु कहूं तो जग बौराना।
यह दोहा आज भी उतना ही प्रासंगिक है। सच बोलो तो सज़ा मिलती है, झूठ बोलो तो लोग खुश हो जाते हैं, और सज्जनता दिखाओ तो उपहास बन जाता है।
शिक्षक ढालूराम साहू ने न तो किसी का अपमान किया, न अफवाह फैलाई, बस एक सच्चाई कही। लेकिन यही सच्चाई सत्ता को असहज कर गई। सवाल यह भी है कि क्या उनका कथन तथ्यहीन था? इस वर्ष जुलाई से नया सत्र शुरू होने के बाद पाँच महीने बीत चुके हैं, और अनेक विद्यालयों में अब तक किताबें पूरी तरह नहीं पहुँचीं। सरकारी प्रेस में किताबें छपती हैं, वितरण सरकार करती है, फिर भी बच्चे फटी-पुरानी किताबों से पढऩे को मजबूर हैं। यह विडंबना नहीं तो और क्या है?
राज्य के गठन के 25 वर्ष पूरे हो रहे हैं, यह गर्व का अवसर है, लेकिन साथ ही आत्ममंथन का भी समय। अगर इतने वर्षों बाद भी बच्चों को किताबें समय पर नहीं मिल पा रहीं, तो यह विकास की वास्तविकता पर प्रश्नचिह्न है। शिक्षा की गुणवत्ता लगातार गिर रही है, और सरकारी स्कूलों से पलायन जारी है। सरकार ने मध्यान्ह भोजन, साइकिल और छात्रवृत्ति जैसी योजनाएँ शुरू की हैं, पर जब मूल सामग्री किताबें ही समय पर न पहुँचे, तो सारे प्रयास अधूरे रह जाते हैं।
दरअसल, समस्या यह है कि हम समस्या बताने वाले को ही समस्या मान लेते हैं। यही वह मानसिकता है जो लोकतंत्र को धीरे-धीरे औपचारिकता में बदल देती है। असहमति को स्थान देना लोकतंत्र की बुनियादी शर्त है। सत्ता की असली परीक्षा आलोचना से भागने में नहीं, बल्कि आलोचना को सुनने में है।
ढालूराम का मामला सिर्फ एक शिक्षक का नहीं, बल्कि उस सोच का प्रतीक है जो असहमति को देशद्रोह और आलोचना को अनुशासनहीनता समझने लगी है। पत्रकार लिखे तो नोटिस, लेखक बोले तो मुकदमा, शिक्षक बोले तो निलंबन, यही नया लोकतांत्रिक अनुशासन बन गया है।
सवाल उठाना लोकतंत्र का अपराध नहीं, उसका धर्म है। और जब यह धर्म निभाने वाले डरने लगते हैं, तब लोकतंत्र भीतर से मृत होने लगता है। प्रतिरोध कभी विध्वंस नहीं होता, वह सुधार की पहली सीढ़ी होता है। सत्ता को यह समझना होगा कि सवाल उठाना विद्रोह नहीं, बल्कि सहभागिता है।
छत्तीसगढ़ के इस छोटे से गाँव की यह घटना हमें याद दिलाती है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता संविधान की देन है, पर उसे जीवित रखना जनता की जिम्मेदारी है। सत्ता का असहज होना स्वाभाविक है, लेकिन समाज का चुप रह जाना विनाशकारी।
राज्योत्सव का असली अर्थ तभी सार्थक होगा जब हर बच्चा किताब लेकर पढ़ सके, और हर शिक्षक बिना भय के अपनी बात कह सके। क्योंकि जब प्रतिरोध की आवाज़ थम जाती है, तब व्यवस्था मनमानी में बदल जाती है, और वही लोकतंत्र का सबसे बड़ा संकट बनती है।