धर्म की ध्वजा कहां और कब फहराई जा सकेगी

धर्म की ध्वजा कहां और कब फहराई जा सकेगी

छत्तीसगढ़ में पिछले कुछ वर्षों से धर्मांतरण को लेकर बहस तेज हुई है। कई जगह तनाव की घटनाएँ सामने आईं—रायपुर के कोटा क्षेत्र में प्रार्थना सभा को धर्मांतरण का प्रयास समझकर मारपीट की नौबत आ गई। बस्तर में आदिवासी समुदाय आपस में भिड़ गए क्योंकि कुछ को लगा कि उनके साथियों को प्रलोभन देकर धर्म बदला जा रहा है। सरगुजा में एक समय घर वापसी अभियान से राजनीतिक और सामाजिक तापमान बढ़ा। हाल में दुर्ग स्टेशन पर भी विवाद हुआ। यह स्पष्ट है कि जहां सामाजिक असुरक्षा, शिक्षा की कमी या आर्थिक अभाव होता है, वहाँ अफवाहें और आशंकाएँ भी तेजी से पनपती हैं और विवाद का रूप ले लेती हैं।

इन्हीं परिस्थितियों के बीच हाल में बिलासपुर हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसला दिया। कांकेर जिले के आदिवासी बहुल आठ गांवों में ग्राम सभाओं द्वारा लगाए गये उन बोर्डों को कोर्ट ने वैध माना, जिनमें पादरियों और धर्मांतरित ईसाइयों के प्रवेश तथा धार्मिक कार्यक्रमों पर रोक का उल्लेख है। अदालत ने माना कि बल या प्रलोभन से धर्मांतरण रोकने का अधिकार ग्राम सभाओं को प्राप्त है और यह पाँचवीं अनुसूची क्षेत्र में सांस्कृतिक संरक्षण का प्रयास है। साथ ही कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि संविधान का अनुच्छेद 25 धार्मिक स्वतंत्रता देता है, परन्तु जबरन या धोखे से धर्म परिवर्तन उसका हिस्सा नहीं है।

यह फैसला एक बड़ा प्रश्न सामने रखता है स्थानीय सांस्कृतिक अधिकार और व्यक्तिगत धार्मिक स्वतंत्रता के बीच सीमा रेखा कहाँ खिंचेगी? आदिवासी समाज सदियों से अपनी परंपराओं, आस्था और पहचान को बचाए रखने की लड़ाई लड़ता रहा है। मिशनरी गतिविधियाँ कभी शिक्षा और स्वास्थ्य के रूप में आईं, तो कभी आरोप लगे कि आर्थिक प्रलोभनों के सहारे धर्म परिवर्तन कराया गया। यह भी सच है कि कहीं-कहीं यह कार्य सेवा की भावना से हुआ और कहीं असंतोष भी उपजा। लेकिन उतना ही सच यह भी है कि यदि समाज को यह लगे कि उसकी संस्कृति खतरे में है, तो संरक्षणवादी प्रतिक्रियाएं जन्म लेती हैं।
फिर भी एक मुश्किल बात यहाँ खड़ी होती है, यदि ग्राम सभा यह तय करने लगे कि किस धर्म के लोग समुदाय में प्रवेश कर सकते हैं और कौन नहीं, तो यह कहीं न कहीं संवैधानिक अधिकारों और अल्पसंख्यकों की स्वतंत्रता पर छाया डाल सकता है। आदिवासी दूसरे धर्मों में जाएँ तो क्या यह उनकी मर्जी नहीं मानी जाएगी? और यदि कोई अपने धर्म का प्रचार शांतिपूर्ण तरीके से करे तो क्या उसे सामुदायिक संदेह के नाम पर रोका जा सकता है?
भारत का संविधान न तो धर्म थोपने की अनुमति देता है और न धर्म के नाम पर समुदायों को दीवारें खड़ी करने की। आज समय यह तय करने का है कि धर्म और संस्कृति सुरक्षा का सवाल क्या संवाद और विश्वास से हल होगा, या बहिष्कार और शक से?
सरकार को इस दिशा में स्पष्ट दिशानिर्देश देने होंगे, कि पेसा अधिनियम का अर्थ सांस्कृतिक सुरक्षा है, न कि सामाजिक विभाजन। जिला स्तर पर स्वतंत्र निगरानी तंत्र बने जो यह देखें कि धर्मांतरण की शिकायतें वास्तविक हैं या राजनीतिक-सामाजिक तनाव का परिणाम। धार्मिक संगठनों को भी पारदर्शिता और सामाजिक सेवा के दायरे में अपनी भूमिकाएँ स्पष्ट करनी होंगी।

छत्तीसगढ़ और देश के बाकी हिस्सों को इस संवेदनशील मुद्दे को टकराव नहीं, संवाद और संवैधानिक मर्यादा के रास्ते से सुलझाना होगा। आदिवासी समाज का धर्म और संस्कृति उसकी पहचान है, पर व्यक्तिगत आस्था और स्वतंत्रता भी लोकतंत्र की अनिवार्य शर्त है। यह समय अपने-अपने पवित्र ध्वज ऊँचे करने का नहीं बल्कि मिलकर यह तय करने का है कि धर्म की ध्वजा कब और कहां फहराई जाए और किस हद तक।

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