सामाजिक ढांचे के वर्गीकरण और मानव संघर्ष को दर्शाती गांव गली में

रायपुर। हिंदी साहित्य के महान लेखक मुंशी प्रेमचंद, जिनकी रचनाओं में पूरा हिंदुस्तान दिखाई देता है यहाँ का सामाजिक ढांचा और उसकी विभिन्न परिस्तिथियां भारतीय समाज में जो वर्गीकरण व्याप्त है जिसमें मनुष्य जीवन भर संघर्ष करता है उसे तोडऩे की, उससे बाहर निकलने की, मुंशी जी की कहानियों में वो सभी चरित्र नजऱ आते हैं और उनकी मानवीय संवेदना स्पष्ट दिखाई देती है। उनकी जयंती के अवसर पर छत्तीसगढ़ फिल्म एंड विजुअल आर्ट सोसायटी और रायपुर के रंग संस्थाओं के सहयोग से 5 दिवसीय नाट्य समारोह का आयोजन सड्डू स्थित जनमंच में किया जा रहा है।
आयोजन के चौथे दिन सवा सेर गेहूं, कफऩ और ठाकुर का कुआं का मंचन किया गया। इसके निर्देशक हीरा मानिकपुरी थे। तीनों कहानियों को मिलाकर तैयार किए गए नाटक का नाम दिया गया ‘गाँव गली में। हीरा मानिकपुरी ने बताया कि नाटक में तीनो कहानियों की घटनाओं को बहुत ही स्वाभाविक रूप से घटनाक्रम में रखने की कोशिश की गई है , जिससे लगे कि ये एक ही गाँव की कहानी है। नाटक में गाँव का एक किसान अपने घर में आये साधु-महात्मा को खिलने के लिए एक सेर गेहूं विप्र से उधार लेता है और उसे हर वर्ष खलिहानी में बिना बोले और बताये बढ़ाकर देते जाता है, इस बात से निश्चिन्त कि वो विप्र समझ जायेंगे।

दूसरी तरफ एक बीमार मजदूर घर में साफ़ पानी के लिए अपनी पत्नी को डांट रहा है कि कैसा गन्दा बदबूदार पानी पिला रही है। पत्नी जब सच में उसे सूंघती है तो समझ जाती है कि कुएं में कोई जानवर मर गया है पर अब साफ़ पानी आये कहाँ से, इस जाति के लोग केवल इसी कुएं से पानी भर सकते हैं। दूसरा कुआं तो ऊँचे लोगों का है। पत्नी के अंदर एक विद्रोह जाग उठता है और वो अपनी सीमा लांघने चली जाती है। पति उसे बहुत मना करता है ,पर मन जब एक बार विद्रोह की सोच ले तो फिर रुकना नहीं जानता वो आगे निकल जाता है।

इसी गाँव में एक महिला प्रसव पीड़ा से तड़प रही है और उसका पति और ससुर घर के आँगन में बैठे अपनी भूख मिटा रहे हैं जो किसी के खेत से चुरा कर लाये आलू हैं। दोनों बैठे उसकी पीड़ा पर बात कर रहे हैं पर आलस और निकम्मेपन में जकड़े हुए बैठे सोच रहे हैं कि उसके लिए कोई दूसरा करेगा। नाटक इसी घटनाक्रम में आगे बढ़ता है और अपने अंत तक पहुँचता है। विप्र उस किसान को दिए हुए सवा सेर गेहूं को एक बड़ा सा ऋण का रूप देता है और उस किसान को और उसके पूरे परिवार को जीवन भर के लिए अपना दास बना लेता है। महिला विद्रोह कर पानी लेने ठाकुर के कुएं में जाती है पर असफल होकर लौटती है क्योंकि ठाकुर का आतंक और ऊँचे लोगों का डर उसे पाने लेने ही नहीं देता उसके पानी भरने के पहले ही वहां लोग आ जाते हैं और मजबूर होकर उसे बिना पानी लिए घर वापस आना पड़ता है। तब तक उसका पति वही बदबूदार पानी पी चुका होता है। प्रसव वेदना सहती वो महिला मर जाती है पर उसके लिए दवा और इलाज के लिए वो दोनों पुरुष नहीं उठते बल्कि उसके मरने का इंतजार करते हैं और उसकी मृत्यु से उन्हें जो धन मिलता है गाँव वालों से, उस कफऩ के पैसे से वो शराब पीते हैं अपनी भूख मिटाते हैं।

मंच पर पर कलाकार विवेक निर्मल,अंजू कुजूर, लोकेश यादव, तोषिबा पैकरा, तरुण सोनकर,डेविड कश्यप, अमित नन्द, देवेन्द्र ने अपने अभियन से नाटक को जीवंत कर दिया। साउंड ट्रैक पर अमन राय, संगीत गरिमा दिवाकर, नारायण साहू, मयंक चंद्राकर ने अपने संगीत से नाटक की घटनाओं में जान डाल दी। इसके आलावा मंच की लाइटिंग ने हर एक पात्र और घटनाओं को और भी मजबूत बनाया। लाइटिंग हीरा मानिकपुरी ने संभाली तो मंच संचालन प्रकाश भारती ने किया।

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