पुत्र, वही जो माता-पिता के कष्ट में संबल बने- पंडित नंदकिशोर पांडेय

आज के कथा प्रसंग में महर्षि देवव्रत के उस दिव्य उपदेश का उल्लेख हुआ, जिसमें वे पुत्र धर्म की श्रेष्ठता का वर्णन करते हुए कहते हैं, “वह पुत्र किस काम का, जो समर्थ होकर भी अपने माता-पिता का दुख दूर न कर सके? ऐसे पुत्र का जन्म लेना व्यर्थ है।”


इस संदर्भ में प्रभु श्रीराम का आदर्श चरित्र वर्णित करते हुए व्यासपीठ से बताया गया कि जब महाराज दशरथ ने श्रीराम को राज्याभिषेक का वचन दिया था, तब उसी दिन उन्हें वनवास का आदेश भी देना पड़ा। लोग पूछते हैं—“जब पिताश्री ने तुम्हें राज्य देने का वचन दिया था, तब तुमने वनवास स्वीकार क्यों किया?” श्रीराम का उत्तर अत्यंत मर्मस्पर्शी था
“पिताजी ने मुझे राज्य का नहीं, धर्म का आदेश दिया था। उन्होंने मुझे केवल अयोध्या का राजा नहीं, जंगल का राजा बनाया है।”


पूज्य पंडित नंदकिशोर जी पांडेय ने आगे पुत्र धर्म की स्पष्ट परिभाषा बताते हुए कहा कि शास्त्र किसी को केवल जन्म लेने भर से ‘पुत्र’ नहीं मानते। पुत्र कहलाने के लिए तीन पवित्र कर्तव्य अनिवार्य हैं—
जीवित माता-पिता की आज्ञा, सेवा और सम्मान करना।
उनके शरीर त्यागने पर तेरहवीं एवं संपूर्ण श्राद्ध-विधियों का विधिपूर्वक पालन करना।


समय-समय पर गया या पवित्र तीर्थों में जाकर पिंडदान एवं श्रद्धा समर्पित करना।
जो व्यक्ति इन तीनों कर्तव्यों का निष्ठा पूर्वक पालन करता है, उसी को शास्त्रीय दृष्टि से ‘सच्चा पुत्र’ कहा गया है। द्वितीय दिवस की भांति तृतीय दिवस की कथा भी वैराग्य, भक्ति और कर्तव्यबोध का अनुपम संदेश देते हुए संपन्न हुई। भक्तगण दिव्य कथा के इस अमृत-सागर में डूबकर स्वयं को धन्य मानते रहे। माता भगवती सभी श्रद्धालुओं पर अपनी कृपा दृष्टि बनाए रखें

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