शीतकालीन सत्र की शुरुआत संसद के गलियारों में नहीं, बल्कि संसद के बाहर दिये गए तीखे बयानों से हुई। भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के आत्मविश्वास और विपक्ष के बिखरे नैरेटिव के बीच, प्रधानमंत्री ने जो तंज़ कसा कि विपक्ष चाहे तो वे उसे ‘टिप्स’ देने को तैयार हैं। वह केवल कटाक्ष नहीं, बल्कि राजनीतिक मनोविज्ञान का सार्वजनिक विश्लेषण है। संदेश साफ़ है, सत्ता खुद को चुनावी और विधायी प्रबंधन की मास्टर-क्लास मानती है, और विपक्ष को रीटेक की ज़रूरतमंद पटकथा।
2014 के बाद से मोदी की गारंटी एक भरोसे की यूएसपी बनकर उभरी है। केंद्र से लेकर राज्यों तक जीत का फैलता ग्राफ़, एजेंडा सेट करने की आक्रामकता और संगठन का निरंतर अभियान—ये सब मिलकर एक ऐसी मशीनरी बनाते हैं, जो प्रचार को नीति का ट्रेलर, और नीति को प्रचार का ईंधन बना देती है। जब जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटता है, तो वह सिर्फ संवैधानिक निर्णय नहीं, नैरेटिव का शंखनाद भी बनता है। जब कानून बनता है, तो वह ‘क्रेडिट-प्राप्ति’ की दूसरी पारी भी खेलता है। हर मुद्दे पर मैदान की लंबाई बदलने से अधिक, भाषा की कुटिलता बदलने का खेल खेला जा रहा है, जहाँ हावी वही होता है जो अवसर को कथा में, और कथा को मत में बदल सके।
वहीं विपक्ष की सियासत क्षणों में तेज़ी से उछलती और फिर उतनी ही तेज़ी से ढहती दिखती है। ठीक बाय-कार्ड के खेल की तरह, जहाँ प्रतिद्वंद्वी की चाल पर प्रतिक्रिया है, पर अपनी चाल का निर्माण नहीं। बिहार चुनाव के दौरान बिहार में विपक्ष ने मुद्दों को ऊँचे स्वर में उठाया। संयुक्त रैलियों में तेजस्वी यादव कंधे से कंधा मिलाते दिखे, और राहुल गांधी ने आर्थिक असमानता, बेरोजग़ारी और संस्थागत पक्षपात की बात को नैतिक ज्वार में बदल दिया। पर राजनीतिक अभियान ज्वार के भरोसे नहीं जीते जाते—उन्हें तट तक पहुँचाने वाली नाव चाहिये, पतवार चाहिये, और पूर्वानुमेय दिशा भी। यहीं विपक्ष चूक गया। मुद्दे शोर बने, शोर आरोप में बदला, और आरोप का फ़ॉलो-थ्रू चुनावी ज़मींदारी में बदलने से पहले ही कहीं लुप्त हो गया। राजनीति में अनुपस्थिति वैक्यूम बनाती है और वैक्यूम में नैरेटिव नहीं, प्रतिपक्ष का अविश्वास भरता है।
सत्र के प्रथम दिन सदन में हंगामा वोट-चोरी के आरोप पर हुआ। विपक्ष इसे लोकतंत्र की आखिरी धडक़न का सवाल बताता है, तो सत्ता इसे पराजय का प्रलाप। मल्लिकार्जुन खडग़े ने कहा कि सत्ता के अहंकार ने 11 साल से संसदीय मर्यादा को रौंदा है, जिसकी लंबी फेहरिस्त है। यह भाषा सामान्य टिप्पणी नहीं, बल्कि उस ‘सहेली की आवाज़’ का विस्तार है जो सडक़, बाज़ार और युवा चौपालों में सुनाई दे रही है कि आम आदमी महंगाई, संसाधनों की लूट और रोजगार की कमी से जूझ रहा है, जबकि राजनीति ‘लमर की रस्साकशी’ में उलझी है।
लोकसभा में लोकसभा ने विधायी एजेंडा जारी रखा। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा प्रस्तुत मणिपुर गुड्स एंड सर्विस टैक्स बिल का पारित होना दर्शाता है कि संसद कानून बनाने की अपनी संवैधानिक भूमिका निभा रही है, पर सवाल कानून के पारित होने से अधिक, कानून पर भरोसे के पारित होने का है। सरकार ने चालू वित्त वर्ष में ?41,455 करोड़ के अतिरिक्त खर्च की मंज़ूरी माँगी। यह निर्णय वित्तीय नहीं, बल्कि राजनीतिक अर्थव्यवस्था है—जहाँ हर बजटीय पंक्ति जनता के भरोसे की बैलेंस-शीट और विपक्ष के आरोपों की डेबिट-क्रेडिट एंट्री बन चुकी है।
महाराष्ट्र, हरियाणा और बिहार में विपक्ष की पराजय के बाद वोट चुराने के आरोप का जो सामूहिक स्वर उठा, वह विपक्ष के चिंता का वास्तविक प्रतिबिंब हो सकता है, पर चिंता अगर प्रमाणों में न बदले, तो वह सहानुभूति नहीं, बल्कि राजनीतिक विश्वसनीयता की दुर्बलता का दस्तावेज़ बन जाती है। सत्ता का पलटवार, कि ‘तकलीफ़ डॉक्टर को बतायें’, अब इसी प्रतियोगी भाषा का हिस्सा है—जहाँ संवाद नीति पर नहीं, मानसिक प्रभुत्व पर टिका है।
पश्चिम बंगाल में चुनावी हलचल के साथ-साथ ‘एक देश, एक चुनाव’ जैसे प्रस्ताव चर्चा के केंद्र में हैं। नक्सल प्रभावित राज्यों में आंतरिक सुरक्षा मोर्चे पर सरकार की सक्रियता भी एजेंडा-निर्माण की उसी रणनीति का विस्तार है, जो समस्या को समाधान से जोडक़र कथा में बदलती है। ‘संवाद-शून्य’ मुद्दे लंबे नहीं टिकते—मणिपुर का संकट नीति और शांति-प्रयासों में घिरकर अब टीवी स्टूडियो की प्राथमिक हेडलाइन नहीं, फुटनोट बनता दिख रहा है।
जनता की अदालत में विपक्ष की समस्या यह नहीं कि वह मौजूद नहीं, बल्कि यह कि वह ‘साझा मौजूदगी’ को ‘साझा नेतृत्व’ में नहीं बदल पा रहा। लोकतंत्र को मजबूत विपक्ष चाहिये, पर मजबूत विपक्ष को पहले मजबूत विकल्प बनना होगा—नीति, निरंतरता और संगठन के त्रिकोण में। सलाह की ज़रूरत लोकतंत्र में कमजोरी नहीं, पर सलाह मांगने का कारण अगर आत्म-निर्माण नहीं, आत्म-सिद्धि के सबूत के अभाव में हो, तो वह विपक्ष की सामूहिक रणनीतिक विफलता भी हो सकती है।
इस शीतकाल में संसद का असली प्रश्न नीति की गर्मी नहीं, वह तो बहस में आयेगी—बल्कि भरोसे की गर्मी है। क्या विपक्ष आरोप से प्रस्ताव और प्रतिरोध से रचना की राजनीति की ओर लौटेगा, या यह सत्र भी ड्रामा बनाम डिलीवरी के तंज़ में जलकर खत्म हो जायेगा? समय का जवाब बयान में नहीं, बदलाव में मिलेगा।