Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – अपना अर्थ खोते और विलुप्त होते प्रचलित शब्द

Editor-in-Chief सुभाष मिश्र
– सुभाष मिश्र

गांधी द्वारा दिया गया ‘हरिजन’ शब्द अब प्रतिबंधित हो गया है। दरअसल जिस भावना और सम्मान के साथ दलितों के लिए यह शब्द प्रयोग में लाया गया था, कालांतर में यह दलितों की पहचान और उन्हें प्रताडि़त करने का हथियार बन गया। अधिकांश भारतीय घरों में बच्चे का निक नेम ‘पप्पु’ होना आम बात थी किन्तु इसे राहुल गांधी का मजाक उड़ाने के उपयोग में लाकर सोशल मीडिया पर ट्रोल किया गया। हमारे यहां ‘भक्तिकाल’ साहित्य का स्वर्णिमकाल माना जाता है, जिसने एक से बढ़कर एक भक्त कवि हुए किन्तु अल भक्त, अंधभक्त का अर्थ ही कुछ है। इसी तरह आजकल जेबकतरा और पनौती शब्द बहुत चर्चा में है। चुनाव आयोग में भाजपा ने इस शब्द का इस्तेमाल प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए करने पर राहुल गांधी के खिलाफ शिकायत दर्ज की है। मध्यप्रदेश की राजनीति में ‘आयटम’ और टंच माल ने भी काफी बवाल मचाया। चौकीदार चोर है, विभीषण, जयचंद, मीर जाफर, रावण जैसे शब्द भी एक अलग ही अर्थ और ध्वनि व्यक्त करते हैं। ‘दलाल’ शब्द अब प्रचलन में नहीं है जबकि मुम्बई में दलाल स्ट्रीट कायम है। अब लोग ‘ब्रोकर’ शब्द का इस्तेमाल करते हैं। हमारे देश में बढ़ती अंग्रेजियत के चलते अब बहुत सारे शब्द हिंगलिश के रूप में इस्तेमाल होते हैं। बहुत सारे शब्दों को नई पीढ़ी शार्टकट में उपयोग में लाते हैं, फेसबुक अब एफबी है। मध्यप्रदेश के मालवा अंचल में गुस्सा होना, नाराजगी दिखाने को ‘कपड़े फाडऩा’ कहते हैं। अभी मध्यप्रदेश में दिग्विजय सिंह और कमलनाथ के बीच हुई नोकझोंक के बीच कपड़े फाडऩे को लेकर भी काफी राजनीति हुई। ”भाषा किसी भी व्यक्ति एवं समाज की पहचान का एक महत्वपूर्ण घटक और उसकी संस्कृति की सजीव संवाहिका होती है।” आज विविध भारतीय भाषाओं व बोलियों के चलन तथा उपयोग में आ रही कमी, उनके शब्दों का विलोपन तथा विदेशी भाषाओं के शब्दों से प्रतिस्थापन एक गंभीर चुनौती बन कर उभर रही है। अनेक भाषाएं और बोलियां विलुप्त हो चुकी हैं और कई अन्य का अस्तित्व संकट में है। अपनी भाषा, बोली और अपने शब्दों का उपयोग न करने या उन्हें प्रचलन में न रखने पर वे मृत हो जाते हैं। आज ऐसा ही हो रहा है, यह कितना विदारक है! आम जीवन में हम कुछ सांकेतिक शब्दों, मुहाबरों और लोकोक्तियों का प्रयोग करते रहे हैं। ऐसे शब्द व्यंग्य और तंज के रूप में प्रयोग किए जाते रहे हैं। साहित्य से लेकर सिनेमा तक में ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जाता रहा, लेकिन आज ऐसे शब्द विलुप्त हो चुके हैं।  इंटरनेट मीडिया के इस दौर में हैसटैग के साथ कुछ शब्द अचानक चर्चा में आ जाते हैं। हाल में ही एक शब्द पनौती खासा चर्चा में रहा। पनौती चाहे बाढ़ की हो, चाहे शनि ग्रह की दोनों ही स्थितियों में डरावनी और विनाश की सूचक है, इसलिए ‘पनौती आना’ एक आम मुहावरा बन गया है। इसका मतलब मुसीबत के रूप में इस्तेमाल किया जाने लगा है। पनौती हमेशा निराशाजनक और बुरे वक्त के लिए उपयोग किया जाता है। यह शब्द एक प्रतीक के रूप में उपयोग किया गया और काफी दिनों बाद सुनने का मिला। इसको चटकारे लेकर प्रतिक्रिया देने वालों को भी इसका अर्थ नहीं पता है। इसी तरह पिछले दिनों राजनीति में रेवड़ी शब्द खूब चर्चा में रहा। रेवड़ी अर्थ प्रलोभन या लाचच देने से है। सामाजिक जीवन में हम कई ऐसे सांकेतिक शब्दों का प्रयोग करते रहे हैं। मगर, दुर्भाग्य से आज की पीढ़ी उससे अनभिज्ञ है। हम धोखा देने वालों को विभीषण या जयचंद की संज्ञा देते रहे हैं। हर बात में बीच में बोलने वालों को लभुझन्ना का प्रयोग किया जाता रहा है। इसी तरह चुगली कर झगड़ा करवा देने के लिए लंका लगाना, गदागद देने का प्रयोग खूब पिटाई करने, सफलतापूर्वक कार्य के लिए भगीरथ प्रयास, हर तरफ से विवश कर देने के लिए किलेबंदी, असुरक्षित अनुभव करने वालों को इंद्र का सिंहासन, न्याय के लिए विक्रमादित्य का सिंहासन, इमानदारी और सत्यवादी की जगह हरिशचंद, प्रचलित व्यक्ति के लिए विख्यात या ख्यात, निंदित और बदनाम के लिए कुख्यात, ध्रुत और पकड़ से दूर के लिए दुर्दांत जैसे शब्दों का प्रयोग अब देखने को नहीं मिलता है।  सिनेमाजगत में भी कुछ शब्द अब न तो संवाद में और न ही गानों में सुनने को मिलते हैं। प्रेम शब्द की जगह प्यार और लव ने ली तो स्नेह और प्रीत शब्द विलुप्त हो गए। हृदय अब दिल या हर्ट बन गया, गगन और अंबर की जगह जमीन और आसमान ने ले लिया। ऋतु मौसम बन गया तो सुख ने मस्ती, मौज और खुशी का चोला ओढ़ लिया। जीवन कब जिंदगी और आंखें नजर और निगाह बन गई पता ही नहीं चला। पुस्तक ने किताब का आवरण चढ़ा लिया तो प्रतिक्षा इंतजार करने लगी। मित्र दोस्त बन गए और उत्तर की जगह जवाब आने लगा। संयोग ने इत्तेफाक, भाग्य ने किस्मत और विश्वास और भरोसे ने यकीन का रूप ले लिया। जवान बलिदान होने या वीर गति पाने की जगह शहीद होने लगे। दिनांक अब तारीख और उपयोग या प्रयोग जगह इस्तेमाल होने लगा। प्रशंसा ने तारीफ, धन्यवाद ने शुक्रिया और मान या प्रतिष्ठा अब इज्जत ढकने लगी। सपना कब ख्वाब बन गया और अपराध कब गुनाह बना पता नहीं चला। भोजन कब स्वादिष्ट से टेस्टी बना और हिलकोरे ने डिम्पल का रूप लिया किसी को पता नहीं। विपल्व की जगह क्रांति ने ले ली, दंड की जगह सजा मिलने लगी, अखाडे की जगह जिम ने और पहलवान कब रेसलर हो गए कोई समझ नहीं पाया। अब चिकित्सा की जगह इलाज होने लगा और चिकित्सक डाक्टर बन गए। शल्य और सर्जरी की जगह आपरेशन होने लगे। संक्रमण वायरल होने लगा। सूई की इंजेक्शन लगने लगा तो टीका की जगह वैक्सीनेशन होने लगा। ज्ञान नालेज, ज्ञानी और विद्वान स्कालर हो गए तो मंत्रिमंडल की जगह कैबिनेट, राजनीति ने पालिटिक्स का चोला ओढ़ लिया। अधिवक्ता वकील बन गए। न्यायालय पहले अदालत और अब कोर्ट बन गया।

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