Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – सियासी अरमान और बगावत

Editor-in-Chief सुभाष मिश्र

-सुभाष मिश्र

चुनावी मौसम अपने शबाब पर है। सियासी बिसात बिछ चुकी है। चुनाव में तमाम राजनीतिक दलों की तरह उनके नेताओं में भी सियासी अरमान जगते हैं। वे सभी इसी मौसम में अपने लिए बड़ी जिम्मेदारी चाहते हैं और पार्टी के समर्थन से राजनीति की अगली सीढ़ी चढऩे की कोशिश करते हैं। वे टिकट और पद के लिए अपना-अपना दावा पेश करते हैं और जब उनके दावे को मान्यता नहीं मिलती तो बगावत पर उतर आते हैं। इस बार भी कुछ ऐसा ही सीन देखने को मिल रहा है। सभी दलों को अपने अंदर ऐसे नेताओं के बागी तेवर का सामना करना पड़ रहा है। ऐसे में सवाल उठता है कि इनकी बगावत किसी राजनीतिक दल के प्रदर्शन पर कितना असर डालती है?
तमाम राज्यों से जिस तरह से अपनों की बगावत की खबरें आ रही है, उसने सभी दलों को चिंता में डाल रखा है। टिकट कटने के बाद इससे वंचित नेता अपने-अपने दलों के नेतृत्व के सामने इसका तीखा विरोध कर रहे हैं। राजस्थान और मध्य प्रदेश में तो कई जगह प्रदर्शन काफी उग्र हो गया। बगावत का शिकार कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही पार्टियां हैं। इस बगावत से बचने के लिए दोनों दलों को अपने उम्मीदवारों की लिस्ट जारी करने में न सिर्फ काफी देर लगी, बल्कि कुछ जगहों पर तो विरोध इतना बढ़ा कि उम्मीदवार बदलने पड़ गए। मध्य प्रदेश में कांग्रेस ने एक दिन पहले ही अपने घोषित उम्मीदवार बदल डाले। इन राजनीतिक दलों को उम्मीद है कि जैसे-जैसे चुनाव प्रचार तेज होगा, बगावत की आंच कम होती जाएगी।
मध्य प्रदेश के ग्वालियर चंबल-अंचल की चारों लोकसभा सीट पर बीजेपी ने अपने प्रत्याशियों का ऐलान कर दिया था, लेकिन ऐलान के पीछे बगावती धुंए की आंच आने लगी है। अंचल को चारों सीट पर गुटबाज़ी और रूठे नेता नजर आ रहे हैं।
छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को बगावत का सामना करना पड़ रहा है। राजनांदगांव से कांग्रेस ने पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को मैदान में उतारा है। यहाँ उनका विरोध प्रदेश के किसी बड़े नेता ने तो नहीं, लेकिन स्थानीय नेता ही भूपेश बघेल के विरोध में खुलकर सामने आ गए हैं। इसी कड़ी में कांग्रेस नेता सुरेंद्र दाऊ ने मंच ने अपनी भड़ास निकाली। पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के समक्ष कहा कि आपकी सरकार में पांच साल तक कांग्रेस कार्यकर्ताओं का काम और सम्मान नहीं हुआ। पांच साल एक ही नेता दिखा, आज वह गायब हो गया। मेरी बातें यदि बुरी लगी हो तो मुझे पार्टी से निष्कासित कर दें। पांच साल हम आपसे मिलने के लिए तरस गए।
राजस्थान में टिकट वितरण को लेकर भाजपा नेताओं में अदावत भी बढ़ रही है। चुरू के सांसद राहुल कस्वां अपना टिकट कटने पर नाराज बताए जा रहे हैं और उन्होंने पूर्व प्रतिपक्ष नेता राजेंद्र राठौड़ को जयचंद तक कह दिया है।
बिहार में एनडीए में टिकट का मामला सुलझने के बाद भी विवाद जारी है। केंद्रीय मंत्री और लोजपा नेता पशुपति पारस ने एनडीए में कोई सीट न मिलने और लोजपा चिराग गुट को तवज्जो मिलने को अपने साथ अन्याय बताते हुए पारस ने मोदी कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया। उन्होंने कहा कि एनडीए में मेरे साथ नाइंसाफी हुई। अब मैं तय करूंगा कि कहां जाना है। पासवान परिवार की लड़ाई में अकसर पशुपति पारस का शून्य के तौर पर आंकलन होता है। पर ऐसा नहीं है। चाचा भतीजे के झगड़े में नुकसान तो लोजपा के दोनों गुटों का होने ही वाला है।
आजकल चुनावों में पार्टी और चेहरों पर केंद्रित मुकाबले होने लगे हैं। बीजेपी को कमल निशान और मोदी के चेहरे पर ही वोट मिल रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो सार्वजनिक रैली में जनता से अपील कर चुके हैं कि सभी सीटों पर पार्टी उम्मीदवार को वोट देते हुए लोग उसमें उनका ही चेहरा देखें, उनके ही वादे याद रखें। कांग्रेस के लिए ऐसी समस्या जरूर रही है जहां पार्टी के पास ऐसा कोई वोट जिताऊ चेहरा नहीं रहा है। ऐसे में पार्टी को बगावतों की कीमत भी चुकानी पड़ी है।
दरअसल चुनाव वो दौर होता है जब वो नेता भी जो आम जनता और जमीनी कार्यकर्ताओं से दूर होता है वो उनके बीच आता है। इस दौरान कई कार्यकर्ता अपनी अहमियत दिखाने के लिए बड़े नेताओं के सामने कुछ नाराजगी भी जताते हैं। तो कुछ लोग चुनाव को एक अवसर मानकर दल बदल भी कर लेते हैं। इन दिनों छत्तीसगढ़-मध्यप्रदेश से लेकर पूरे देश में एक दल से दूसरे दल में प्रवेश का दौर चल रहा है।। तो चुनावी समीकरण को साधने के लिए सियासी सौदे बाजी जिसे समझौता कहा जाता है उसका भी दौर चल रहा है। राष्ट्रीय पटल में देखें तो काफी दिनों से महाराष्ट्र की राजनीति में अलग थलग नजर आ रहे राज ठाकरे भाजपा के करीब आ रहे हैं। अमित शाह से उनकी मुलाकात हो चुकी है हो सकता है वो मुंबई की किसी सीट से चुनाव लड़ते नजर आएं। चुनाव में जहां जनता सबसे अहम है वहीं लोकतंत्र के इस महासमर में किसी की नैय्या पार कराने में या डूबाने में कार्यकर्ताओं की अपनी भूमिका होती है। 2018 में छत्तीसगढ़ में ड रमन सिंह को इन्हीं कार्यकर्ताओं की नाराजगी का सामना करना पड़ा था। अब राजनांदगांव में जिस तरह से भूपेश बघेल के सामने एक कार्यकर्ता ने अपनी नाराजगी रखी उससे समझ जा सकता है कि सत्ता का चरित्र कैसा होता है और उस पर सवार होने पर जमीनी नेता भी अपने कार्यकर्ताओं से दूर हो जाता है। लेकिन ये चुनाव की खासियत है जो एक सामान्य कार्यकर्ता को ये हिम्मत दे देता है कि वो अपनी बात रख सके।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

MENU