Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – हमारा संविधान और हम

Editor-in-Chief सुभाष मिश्र

– सुभाष मिश्र 

हमारा संविधान ही है जो हमें जाति, धर्म, समुदाय, अमीर गरीब से उपर उठकर बराबरी से गरिमापूर्ण तरीक़े से जीवन जीने का अधिकार देता है। संविधान की मूल भावना सबको बराबरी का हक़ और अवसर देने की है। संविधान दिवस के अवसर पर हम इस बात की पड़ताल कर रहे हैं कि हमारे संविधान निर्माताओं की मूल भावना के अनुरूप क्या हम अपने देश का संचालन कर पा रहे हैं।

भारत का संविधान, संविधान सभा द्वारा 26 नवंबर 1949 को पारित हुआ और 26 जनवरी 1950 से लागू हुआ। यह विश्व का सबसे बड़ा लिखित संविधान है जिसमें 460 अनुच्छेद तथा 12 अनुसूचियां है और यह 25 भागों में विभक्त है।
भारत का संविधान हमें छह मौलिक अधिकार प्रदान करता है। समता का अधिकार (अनुच्छेद 14-18)। स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19-22)। शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23-24)। धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25-28)। संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार (अनुच्छेद 29-30)। संवैधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद 32)। ये अधिकार अलग-अलग अनुच्छेद में बाँटे गये हैं। समानता का अधिकार अनुच्छेद 14 से 18 तक। स्वतंत्रता का अधिकार अनुच्छेद 19 से 22 तक। शोषण के विरुध अधिकार अनुच्छेद 23 से 24 तक। धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार अनुच्छेद 25 से 28 तक। सांस्कृतिक तथा शिक्षा सम्बंधित अधिकार अनुच्छेद 29 से 30 तक। संवैधानिक उपचारों का अधिकार अनुच्छेद 32। संविधान चाहे जितना अच्छा हो, वह बुरा साबित हो सकता है, यदि उसका अनुसरण करने वाले लोग बुरे हों। यह कौन कह सकता है कि भारत की जनता और उसके दल कैसा आचरण करेंगे। अपना मक़सद हासिल करने के लिए वे संवैधानिक तरीके अपनाएंगे या क्रांतिकारी तरीके? यदि वे क्रांतिकारी तरीके अपनाते हैं तो संविधान चाहे जितना अच्छा हो, यह बात कहने के लिए किसी ज्योतिषी की आवश्यकता नहीं कि वह असफल ही रहेगा।

संविधान बनाने के बाद भीमराव आंबेडकर ने ये भाषण नवंबर 1949 को नई दिल्ली में दिया था। आंबेडकर के इस भाषण के कुछ ऐसे ही अंश अक्सर तब सुने जाते हैं जब संविधान के अनुरूप काम नहीं करने के आरोप सत्तारूढ़ दलों पर लगाए जाते हैं।

संविधान की प्रस्तावना में बदलाव हो, जजों की नियुक्ति की कॉलेजियम प्रणाली हो, दल-बदल क़ानून हो, जम्मू-कश्मीर का विशेष राज्य का दर्जा ख़त्म करना हो या फिर चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की बात। अगस्त 2023 तक, 1951 में पहली बार अधिनियमित होने के बाद से भारत के संविधान में 127[1] संशोधन हुए हैं।

भारत के संविधान में तीन प्रकार के संशोधन हैं जिनमें से दूसरे और तीसरे प्रकार के संशोधन अनुच्छेद 368 द्वारा शासित हैं। पहले प्रकार के संशोधनों में वे शामिल हैं जिन्हें भारत की संसद के प्रत्येक सदन में साधारण बहुमत द्वारा पारित किया जा सकता है। दूसरे प्रकार के संशोधनों में वे शामिल हैं जो संसद द्वारा प्रत्येक सदन में निर्धारित विशेष बहुमत द्वारा प्रभावी किए जा सकते हैं; और तीसरे प्रकार के संशोधनों में वे शामिल हैं जिनकी आवश्यकता संसद के प्रत्येक सदन में ऐसे विशेष बहुमत के अलावा, कम से कम आधे राज्य विधानसभाओं द्वारा अनुसमर्थन से है। विश्व के अन्य संविधानों की तरह ही भारतीय संविधान में भी बदलती परीस्थितियों एवं आवश्यकताओं के अनुसार संशोधन करने का प्रावधान किया गया है। संविधान के भाग 20 का अनुच्छेद 368 संसद को संविधान तथा इसकी प्रक्रियाओं को संशोधित करने की शक्तियां प्रदान करता है। अनुच्छेद 368 में वर्णित प्रक्रिया के अनुसार संसद संविधान में नये उपबंध जोड़कर या किसी उपबंध को हटाकर या बदलकर संविधान में संशोधन कर सकती है। संविधान सभा में नेहरू जी ने कहा था-

‘बदलती आवश्यकताओं के अनुसार भविष्य में संविधान में संशोधन की जरूरत हो सकती है, क्योंकि कोई भी संविधान आने वाली पीढिय़ों को बांध नहीं सकता।

दरअसल संविधान में संशोधन संविधान के ही अनुच्छेद 368 के अंतर्गत हो सकता है। इसमें अब तक 103 संशोधन हो चुके हैं। इसके लिए 124 संविधान संशोधन विधेयक पारित हुए हैं। ऐसे में कई बार यह भ्रांति हो जाती है कि संविधान में 124 संशोधन हो चुके हैं। हमारे संविधान को विश्व के सबसे अधिक संशोधित संविधानों में से माना जाता है लेकिन इनमें से अधिकांश संशोधन छोटे-मोटे स्पष्टीकरण वाले ही हैं। जैसे राज्य का नाम बदलना, भाषाओं को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करना या आरक्षण की समय अवधि बढ़ाना।

यहां जानिए बीते 70 वर्षों में हुए 12 महत्वपूर्ण संशोधनों के बारे में
7वां संशोधन राज्यों का भाषाई आधार पर पुनर्गठन
1956-इससे भाषा के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन किया गया। राज्य पुनर्गठन आयोग की रिपोर्ट के आधार पर यह संशोधन किया गया।

1976- 42वां संशोधन ऐसा था, जिसके जरिए सरकार ने आपातकाल के दौरान बहुत सारे अधिकार अपने हाथ में ले लिए और न्यायपालिका के अधिकारों में भी कटौती कर दी। तब कई संशोधन तो ऐसे किए गए, जो लोकतंत्र की भावना के विरुद्ध थे। फिर आपातकाल समाप्त होने के बाद 43वें, 44वें संशोधनों के द्वारा उन अधिकांश संशोधनों को समाप्त किया गया, जो42 वें संशोधन के जरिए लाए गए थे। इसके बावजूद 42वें संशोधन की कई ऐसी बातें थीं, जो जारी रहीं। जैसे संविधान में नागरिकों के मूल कर्तव्यों के संबंध में जो चार(क) भाग जोड़ा गया था, वो नहीं बदला और आज भी क़ायम है। इसे बहुत महत्वपूर्ण समझा जाता है, क्योंकि संविधान में मूल अधिकारों का विवेचन तो था, लेकिन मूल कर्तव्यों के बारे में कुछ नहीं कहा गया था। मूल कर्तव्यों की बात 42वें संशोधन से ही संविधान में आई। इसके अलावा एक महत्वपूर्ण बदलाव राष्ट्रपति के बारे में था। पहले सारी कार्यकारी शक्तियां राष्ट्रपति में ही निहित थीं। 42वें संशोधन में कहा गया है कि राष्ट्रपति को मंत्रिपरिषद की सलाह से ही काम करना होगा, जो आज भी है।

पिछले दिनों संसद में केंद्र की ओर से दिल्ली में अधिकारियों के ट्रांसफर-पोस्टिंग से जुड़े अध्यादेश को पारित कराने के बाद संविधान के बेसिक स्ट्रक्चर को लेकर नए सिरे से बहस छिड़ गई है। अब तो संविधान के प्रांरभ में लिखे मूल वाक्य भारत, अर्थात् इंडिया राज्यों का संघ होगा। इसमें इंडिया शब्द को ही विलोपित करने की बात हो रही है। महिला आरक्षण को लेकर कानून बना कर हमारी संसद एक बड़ा काम हाल ही में किया है। आज किसी न किसी तरह आम इंसान के मौलिक अधिकारों पर हमला हो रहा है, ऐसे में हम सबको और सजग होने की जरूरत है।

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