-सुभाष मिश्र
दुश्मनी जमकर करो, लेकिन ये गुंजाइश रहे…
बशीर बद्र
रायपुर के मैग्नेटो मॉल में जो हुआ, वह किसी एक मॉल, एक दिन या एक शहर की घटना भर नहीं है। यह उस मानसिकता का नंगा प्रदर्शन है, जो आज धर्म, संस्कृति और राष्ट्रवाद के नाम पर भीड़ को उकसाकर अपना छोटा-बड़ा आतंक स्थापित करना चाहती है। चेहरे ढंके हुए, हाथों में लाठी-डंडे और सामने खड़े आम कर्मचारियों से सवाल तुम हिंदू हो या क्रिश्चियन यह दृश्य किसी सभ्य लोकतंत्र का नहीं, बल्कि डर के सहारे वसूली और वर्चस्व कायम करने की कोशिश का है।
यह और भी चिंताजनक इसलिए है क्योंकि यह सब उस समय हुआ, जब छत्तीसगढ़ बंद के कारण मॉल पहले से बंद था और उसने बंद का समर्थन भी किया था। यानी यह हिंसा किसी तात्कालिक उकसावे या विरोध का नतीजा नहीं थी। इसका उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ यह दिखाना था कि कुछ लोग कानून से ऊपर हैं, वे पहचान पूछेंगे, वे तय करेंगे कि कौन सुरक्षित है और कौन नहीं।
क्रिसमस के मौके पर मॉल में सजावट कोई नई या असामान्य बात नहीं है। जैसे दिवाली, नवरात्र, ईद या अन्य त्यौहारों पर मॉल सजते हैं, वैसे ही क्रिसमस पर सांता क्लॉस, क्रिसमस ट्री और सजावट होती रही है। यह बाजार और समाज की स्वाभाविक सांस्कृतिक परंपरा बन चुकी है लेकिन जब इसी सजावट को धर्मांतरण या धार्मिक साजिश बताकर तोड़ा जाए तो सवाल त्यौहार का नहीं, उस सोच का हो जाता है जो हर सार्वजनिक खुशी को शक की निगाह से देखती है।
मैग्नेटो मॉल की घटना अचानक आसमान से नहीं टपकी। इसके तार बस्तर और कांकेर से जुड़े हैं, जहां श्मशान में दफन को लेकर दो आदिवासी समुदायों के बीच टकराव हुआ। इसके तार सरगुजा से भी जुड़े हैं, जहां घर वापसी अभियानों के नाम पर सामाजिक तनाव लगातार बढ़ रहा है। छत्तीसगढ़ में 32 प्रतिशत आबादी आदिवासी है। यहां अगर किसी बड़े सामाजिक टकराव की जमीन बन रही है, तो वह आदिवासी-ईसाई प्रश्न के इर्द-गिर्द ही बन रही है।
यहां सवाल यह नहीं है कि धर्म परिवर्तन हुआ या नहीं। सवाल यह है कि अगर हुआ तो क्यों हुआ। क्या आदिवासी समाज को पर्याप्त शिक्षा, स्वास्थ्य, सम्मान, सहभागिता और बराबरी मिली? अगर नहीं मिली, तो यह मान लेना कि सिर्फ डर और सामाजिक बहिष्कार के सहारे घर वापसी कराई जा सकती है न सिर्फ अव्यावहारिक है बल्कि अमानवीय भी है। घर वापसी तभी सार्थक हो सकती है, जब वह स्वेच्छा और सम्मान के साथ हो। वरना वह सामाजिक ब्लैकमेल से ज्यादा कुछ नहीं।
आज जो कई संगठन या उनके नाम पर खड़े गिरोह सड़कों पर दिखते हैं, वे अक्सर धर्म के रक्षक कम और बेरोजग़ारी, कुंठा और अपराधबोध के उत्पाद ज्यादा लगते हैं। इन्हें न रोजगार से मतलब है, न समाज सुधार से। इन्हें चाहिए पहचान, रुतबा और डर का कारोबार। यही वजह है कि हर कुछ महीनों में कोई नया बहाना मिल जाता है—कभी क्रिसमस, कभी वैलेंटाइन डे कभी लव जिहाद, कभी धर्मांतरण। हर मौसम के लिए इनके पास एक नया नारा और नई हिंसा तैयार रहती है।
जिस तरह ये लोग चेहरा ढककर निकलते हैं, धमकाते हैं, चंदा वसूलते हैं और हम संगठन से हैं का रौब झाड़ते हैं, वह बताता है कि ये धर्म नहीं, अपनी नेगोशिएशन वैल्यू बढ़ा रहे हैं। जितना ज्यादा आतंक, उतनी ज्यादा पहचान और जितनी ज्यादा पहचान, उतनी ज्यादा राजनीतिक और आर्थिक सौदेबाज़ी।
यहां हिंदुत्व से भी एक सीधा सवाल बनता है। क्या हिंदुत्व की परंपरा यह है कि आप मुंह ढककर किसी से उसकी जाति या धर्म पूछें? क्या हिंदुत्व यह सिखाता है कि आप मॉल में काम करने वाले कर्मचारी को संभावित दुश्मन मान लें? अगर यही हिंदुत्व है तो यह उस सनातन परंपरा का अपमान है, जिसने सहअस्तित्व, सहिष्णुता और संवाद को अपनी ताकत बनाया।
धर्म जब आस्था से उतरकर हथियार बन जाता है, तब वह सबसे पहले कानून को कमजोर करता है। सोशल मीडिया की अफवाहें, अधूरे सच और उन्मादी भाषण इस मानसिकता को और खाद देते हैं। नतीजा यह होता है कि पुलिस के पहुंचने से पहले ही भीड़ न्याय करने निकल पड़ती है।
भारत अक्सर बांग्लादेश, पाकिस्तान या अन्य देशों में अल्पसंख्यकों पर हो रहे अत्याचारों की आलोचना करता है और यह जरूरी भी है। लेकिन जब अपने ही देश में लोगों से उनकी जाति और धर्म पूछकर मारपीट होती है तो हमारी नैतिक जमीन खिसकने लगती है। बांग्लादेश में मंदिरों पर हमले और अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने की शुरुआत भी इसी तरह हुई थी—भीड़, अफवाह और धार्मिक उन्माद से। फर्क बस इतना था कि वहां राज्य ने देर से सख्ती दिखाई।
छत्तीसगढ़ की स्थिति इसलिए और संवेदनशील है क्योंकि यह एक नई राजधानी वाला राज्य है, जिसे विकास, निवेश और शांति के मॉडल के रूप में पेश किया जा रहा है। प्रधानमंत्री विकास की बात करते हैं, गृहमंत्री नक्सल मुक्त छत्तीसगढ़ की। लेकिन अगर यहां एक नया छत्तीसगढ़ उभर रहा है—जहां पहचान पूछकर हिंसा हो तो यह किसी भी विकास कथा के लिए सबसे बड़ा खतरा है।
शासन-प्रशासन की भूमिका यहां निर्णायक है। यह सिर्फ एफआईआर दर्ज करने का मामला नहीं है। यह स्पष्ट संदेश देने का मामला है कि नकाबपोश गिरोहों का राज नहीं चलेगा। अगर राज्य ढुलमुल रवैया अपनाता है तो वह अनजाने में ही भीड़ को वैधता देता है। मैग्नेटो मॉल में सिर्फ दुकानों के शीशे नहीं टूटे। टूटा है लोगों का भरोसा—इस बात पर कि सार्वजनिक जगहें सुरक्षित हैं, कि कानून सबके लिए समान है, और कि कल को कोई उनसे उनका नाम या धर्म पूछकर फैसला नहीं करेगा।
बशीर बद्र की पंक्ति आज सिर्फ शायरी नहीं, चेतावनी बन जाती है—दुश्मनी जमकर करो, लेकिन ये गुंजाइश रहे। अगर हम यह गुंजाइश भी खत्म कर देंगे कि कल साथ बैठ सकें, बिना शर्मिंदा हुए, तो सवाल किसी एक मॉल, एक समुदाय या एक राज्य का नहीं रहेगा। सवाल पूरे भारतीय लोकतंत्र का होगा।