-सुभाष मिश्र
बीते हुए साल अनेक विरोधाभासों और विडंबनाओं से भरे रहे । एक दूसरे की बात का विरोध और उसे काटने का उत्साह इतना उबल कर आया कि उसमें यह तक भुला दिया गया कि इनमें से कुछ अपनी ही कही गई बातों का विरोध कर रहे हैं । ऐसे विरोधाभास पैदा करने में सामाजिक संगठनों से ज्यादा राजनीतिक दलों और संगठनों का उत्साह है । किसी समय सत्ता विरोधी राजनीतिक दलों और संगठनों ने आयकर की नीतियों का बेहद विरोध किया और इसे मध्य वर्ग के खिलाफ बताया लेकिन बाद में सरकार में आते ही न सिर्फ इन नीतियों को अपनाया बल्कि इसी लकीर पर और ज्यादा आगे बढ़कर टैक्स के बदले हुए रूप सामने आने लगे । जो लोग किसी समय एक राष्ट्र एक चुनाव के पक्षधर थे , फिर समय बदलते ही उसके विरोधी हो गए । दरअसल चुनाव में प्रतिपक्ष का विरोध करना धीरे-धीरे आदत में बदलता जा रहा है । इस अतिरेक में यह ध्यान नहीं रहता है कि कभी वे खुद इन्हीं बातों के पक्षधर थे । और जहां चुनाव में लाभ के आसार नजर आते हैं वहां तो यह जानते हुए भी की कभी हम इन्हीं बातों के पक्षधर हुआ करते थे । लेकिन फिर उन्हीं बातों का खुलकर विरोधी करने लग जाते हैं । चुनाव का डर और लालच इतना बड़ा होता है कि अच्छे भले आदमी या दल को नासमझ और निर्लज्ज बना देता है । यह एक प्रकार से सामाजिक , राजनैतिक निर्लज्जता का दौर हैं । इस दौर का एक सूत्र वाक्य है मेरी क़मीज़ से तुम्हारी क़मीज़ सफ़ेद कैसे । सबके पास अपनी- अपनी वाशिंग मशीन और डिटर्जेंट हैं जिससे वे सब तरह के दाग , धब्बे मैल को दूर करके गंगाजल में डुबकी की तरह सारे पाप धो देते हैं , ये अलग बात है की नमामि देवी गंगे साल दर साल दूषित होती जा रही है । इस समय गंगा से ज़्यादा संविधान की क़सम खाई जा रही है । कोई संविधान को बचाने की बात कह रहा है तो कोई बदलने की । इन सबके बीच संविधान निर्माता डॉ बाबा साहेब आम्बेडकर भी राजनीतिक दलों के लिए एक औज़ार की तरह हो गये हैं जिनका सब इस्तेमाल करना चाहते हैं । सरदार वल्लभभाई पटेल , सुभाष चन्द्र बोस , शहीद भगतसिंह , गांधी , नेहरू के साथ अब डॉ मनमोहन सिंह भी सुविधा और मुद्दों के अनुसार बहुत से दलों के काम आ रहे हैं । यह समय गड़े मुर्दे उखाड़ने का भी समय है । ज़मीन के उपर पसरी ग़रीबी , बेरोजगारी और असमानता , भेदभाव से ज़्यादा ज़रूरी है ज़मीन के भीतर की सच्चाई जानना ।
राजनैतिक दल और उससे जुड़े नेता अब इस बात की परवाह नहीं करते हैं कि वह अपनी ही बात को काटकर विरोधाभास पैदा कर रहे है । आम जनता के बीच राजनीतिज्ञों की नासमझी और निर्लज्जता अब सहज स्वीकार हो गई है । लोग इस बात को समझने लगे हैं कि यह राजनीतिज्ञ है यह कुछ भी कह सकता है । पिछले कुछ सालों में धार्मिक स्थानों के लिए कानून लागू किए गए । धार्मिक स्थलों की खुदाई पर पाबंदी लगाकर सांप्रदायिक दंगों पर लगाम लगाने की कोशिशें हुईं ।समय बदलते ही इस तरह की खुदाई में जब धार्मिक लाभ निकलकर सामने आने लगे तो फिर से इनकी शुरुआत हो गई । फिर से कानून बदले जाने लगे । कांग्रेस ने मुस्लिम तुष्टिकरण में पाबंदी लगाई तो बाद की सरकारों ने हिंदू तुष्टिकरण में वोट की राजनीति देखी । जब दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने फ्री बिजली और पानी की घोषणाएं की तो लगभग सभी राजनीतिक दलों ने इसका विरोध किया कि यह रेवड़ी बाँटी जा रही है । जनता में लोभ लालच पैदा करके वोट हासिल किया जा रहा है । इस गंदी राजनीति का नाम दिया गया । लेकिन इसी रेवाड़ी बाद में जब आम आदमी पार्टी को जीत हासिल हुई तो अनेक राज्यों में यह रेवड़ी बाँट का फार्मूला लागू हो गया । सभी राजनीतिक दलों को यह चुनाव जीतने का आसान और सफल फार्मूला लगा । सारे राजनीतिक दल भूल गए कि वे कभी इस तरह की बातों के घनघोर विरोधी थे । इधर के चुनावों में जातिगत और धार्मिक वोट बैंक की टक्कर में महिला वोट बैंक तेज़ी से उभरा है । प्रत्येक राजनीतिक दल इस समय अलग-अलग कल्याणकारी योजना घोषित कर महिला वोटरों को साधने में लगा है । चुनाव में महिलाओं की भूमिका अब सरकार बनाने के लिए ज़रूरी बहुमत जुटाने लगी हैं । केन्द्र और राज्यों की सरकारें लाड़ली बहना से लेकर महतारी वंदन योजना जैसी बहुत सी योजनाओं के साथ चुनाव मैदान में हैं । महिलाओं को महिमा मंडित करना वाला पूजने वाला समाज ,समय आने पर महिलाओं के साथ कितना घिनौना और पाशविक व्यवहार करता है , यह रोज़ की ख़बरों में शुमार हो गया है ।
टँगे फ़्रेम के भीतर जड़े हुए हैं ब्रह्मचर्य के कड़े नियम
इसी फ़्रेम के पीछे चिड़िया गर्भवती हो जाती है
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अयोध्या के राम मंदिर की सफलता के बाद अनेक राजनीतिक दलों को यह चुनाव जीतने का एक और फार्मूला नजर आया । किसी समय आरएसएस ने बाबरी मस्जिद के बाद काशी में ज्ञानवापी मंदिर की खुदाई का समर्थन किया था । लेकिन जब पूरे देश में ऐसी लहर फैलने लगी तो आरएसएस को सांप्रदायिक संकट नजर आने लगा है । यह आरएसएस में एक बहुत महत्वपूर्ण सकारात्मक बदलाव नजर आया है कि वह मंदिरों के लिए मस्जिदों को ढहाने या खुदाई करने में देश का अहित देखने लगा है । यह आरएसएस की सकारात्मक रूप से बदलती छवि के संकेत हैं । ऐसे समय में हिंदू पक्षधर दूसरे धार्मिक संगठन और राजनीतिक दलों को आरएसएस की यह सकारात्मक मंशा को समझना चाहिए । आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत इस समय देश हित में बहुत आगे की सोच रहे हैं । यह समय उनकी सोच का सिरा पकड़ने का है । इस विरोधाभास में भी देश हित है । इस सोच के सहारे आगे बढ़ना चाहिए किन्तु विडंबना यह भी है कि बहुत सारे लोग , संगठन , राजनीतिक दल अब विरोधाभासी बातें करके इस मामले को जीवित रखना चाहते हैं ।
निदा फ़ाज़ली का शेर है –
सबकी पूजा अलग-अलग है
अलग -अलग है रीत
मस्जिद जाये मौलवी
कोयल गाये गीत ।