-सुभाष मिश्र
सुप्रीम कोर्ट की नाराजगी अपनी जगह है और चुनाव जीतने तथा मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए मुफ्त की रेवडिय़ां बांटना अपनी जगह। जो भाजपा-कांग्रेस पार्टी अरविंद केजरीवाल को मुफ्त बिजली, पानी की सुविधाओं को पानी पी-पीकर कोसते थे, उन्होंने भी विधानसभा, लोकसभा चुनाव में इसी अस्त्र का खुलकर उपयोग किया। फ्रीबीज के मामले में कोई किसी से कमतर नहीं। चुनाव में सभी राजनीतिक पार्टियों के घोषणा पत्र, वादों, गारंटी की बात करें तो वे एक-दूसरे से यही कर रहे हैं तू डाल-डाल मैं पात-पात।
यदि हम भारत में मुफ्त की योजनाओं की बात करें तो इसका इतिहास काफी पुराना है। मद्रास स्टेट के सीएम के कामराज ने 1954 से 1963 के दौरान मुफ्त शिक्षा, स्कूली छात्रों के लिए मुफ्त भोजन जैसी स्कीम शुरु की। 1967 में डीएमके फाउंडर सीएन अन्नादुरई ने तमिलनाडु चुनावों में रुपए में 4.5 किलो चावल देने जैसे वादे किए थे। 1982 में एमजी रामचंद्रन ने कामराज की तरह ही तमिलनाडु में स्कूली बच्चों को मुफ्त भोजन की योजना लागू की थी। 1980 के दशक में आंध्र प्रदेश के सीएम एनडी रामाराव ने 2 रुपए किलो चावल देने की योजना लागू की थी। 1990 के दशक में तमिलनाडु में एआईएडीएमके नेता जे जयललिता ने मुफ्त साड़ी, प्रेशर कुकर, टेलीविजन और वाशिंग मशीन देने जैसे वादे किए थे। 1990 के दशक में ही पंजाब में अकाली दल सरकार ने सबसे पहले मुफ्त बिजली देना शुरू किया था। 2006 के विधानसभा चुनावों में तमिलनाडु में डीएमके ने भी वोटर्स को कलर टेलीविजन देने का वादा किया था। तमिलनाडु के चुनावों में पार्टियां गैस स्टोव, कैश, जमीन और मैटरनिटी सहायता तक देने के वादे करती रही है। 2015 में आम आदमी पार्टी लोगों को मुफ्त बिजली और मुफ्त पानी देने के वादे के साथ दिल्ली की सत्ता में आई थी। 2022 में पंजाब में सत्ता में आई आप सरकार ने 1 जुलाई से हर घर को 300 यूनिट बिजली देने मुफ्त देने की योजना लागू कर दी है। 1 अप्रैल 2022 में हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस सरकार ने फ्री बिजली और फ्री पानी की योजना लागू की है। गुजरात की बीजेपी सरकार ने हाल में 4 हजार गांवों के लिए मुफ्त वाई-फाई और गाय संरक्षण के लिए 500 करोड़ देने का वादा किया है। आप ने गुजरात विधानसभा चुनावों में जीतने पर 300 यूनिट बिजली फ्री और महिलाओं को हजार रुपए महीना देने का वादा किया है।
सुप्रीम कोर्ट ने शहरी गरीबी उन्मूलन पर हाल ही में सुनवाई करते हुए सख्त टिप्पणी की है। कोर्ट ने कहा कि फ्रीबीज की वजह से लोग काम करने से बचना चाह रहे हैं। लोगों को बिना काम किए पैसे मिल रहे हैं। कोर्ट ने शहरी क्षेत्रों में बेघर लोगों के आश्रय के अधिकार से जुड़ी एक याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि चुनाव से पहले फ्रीबीज की घोषणाओं से लोग काम करने से बचना चाहते हैं क्योंकि उन्हें मुफ्त में राशन और पैसे मिलते हैं। जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने कहा कि दुर्भाग्य से इन फ्रीबीज की वजह से लोग काम करने से कतराते हैं। उन्हें मुफ्त में राशन मिल रहा है। बिना काम किए पैसे मिल रहे हैं। हम लोगों को लेकर आपकी चिंताओं को समझते हैं लेकिन क्या ये बेहतर नहीं होगा कि लोगों को समाज की मुख्यधारा में लाया जाए और राष्ट्र के विकास में उन्हें योगदान करने दें। यह पहली बार नहीं है जब कोर्ट ने फ्रीबीज को लेकर सख्ती दिखाई है। पिछले साल कोर्ट ने केंद्र और चुनाव आयोग से चुनाव प्रचार के दौरान राजनीतिक दलों द्वारा मुफ्त सुविधाएं देने के चलन को चुनौती देने वाली याचिका पर जवाब देने को कहा था।
जस्टिस की बेंच ने केंद्र से पूछा कि कितने समय में शहरी गरीबी उन्मूलन मिशन पूरा होगा। उन्होंने अटॉर्नी जनरल से कहा कि आप केंद्र से इसका जवाब मांगिए और हमें बताइए। केन्द्र की ओर से अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी ने कहा कि केंद्र जल्द इस मिशन को पूरा करेगा, इसमें शहरी बेघरों के लिए घर जैसी व्यवस्था और कई अन्य मसले शामिल हैं।
हमें याद करना जरूरी है कि कांग्रेस की इंदिरा गांधी सरकार ने भी गरीबी हटाने का नारा दिया था, किन्तु गरीबी यथावत बनी रही। बाद में मनरेगा जैसी योजना लाकर काम के बदले अनाज और रोजगार की गारंटी देकर बहुत सारी परिसंपत्तियां बनाई गई। नरेंद्र मोदी जो मनरेगा यानी महात्मागांधी रोजगार गारंटी योजना को कांग्रेस की गलतियों का मकबरा बताते थे, उन्हें भी मनरेगा जैसी योजना जारी रखनी पड़ी।
कोर्ट ने सरकार की ओर से अदालत को बताया था कि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम 2013 के तहत 81 करोड़ लोगों को मुफ्त या रियायती राशन दिया जा रहा है। 15 अक्टूबर 2024 को सुप्रीम कोर्ट ने फ्रीबीज पर सुप्रीम कोर्ट का केंद्र और ईसी को नोटिस भेजा था।
सुप्रीम कोर्ट ने फ्रीबीज मामले में एक टिप्पणी में कहा कि राज्यों के पास मुफ्त की रेवडिय़ां बांटने के लिए पैसे हैं, लेकिन जजों की सैलरी-पेंशन देने के लिए नहीं है। राज्य सरकारों के पास उन लोगों के लिए पूरा पैसा है जो कुछ नहीं करते, लेकिन जब जजों की सैलरी की बात आती है तो वे वित्तीय संकट का बहाना बनाते हैं। जस्टिस बीआर गवई और एजी मसीह की बेंच ने महाराष्ट्र और दिल्ली चुनाव में की गई घोषणाओं का जिक्र किया। कोर्ट ने कहा कि चुनाव आता है तो वे लाड़ली बहना जैसी योजनाएं लागू करने के वादे करते हैं। दिल्ली में भी कोई 2100 तो कोई 2500 रुपए देने की बात कर रहा है। यह सुनवाई ऑल इंडिया जजेस एसोसिएशन की तरफ 2015 में दायर की गई याचिका पर हो रही थी, जिसमें जजों की पेंशन और वेतन में सुधार की मांग की गई है। सुप्रीम कोर्ट के जज की सैलरी 2.5 लाख से ऊपर होती है। सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस और उनके जजों की सैलरी तो आखिरी बार 2016 में रिवाइज की गई थी। डिपार्टमेंट ऑफ चीफ जस्टिस के मुताबिक, सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस की महीने की सैलरी 2.80 लाख रुपए है और उनके जजों की तनख्वाह 2.50 लाख रुपए होती है। वहीं, हाईकोर्ट के जजों को हर महीने 2.25 लाख और चीफ जस्टिस को 2.50 लाख रुपए वेतन मिलता है। सुप्रीम कोर्ट के जज की 65 साल और हाईकोर्ट के जज 62 साल की उम्र में रिटायर हो जाते हैं।
दो साल पहले पीएम नरेन्द्र मोदी ने कहा था हमें देश की रोवड़ी कल्चर को हटाना है। रेवड़ी बांटने वाले कभी विकास के कार्यों जैसे रोड नेटवर्क, रेल नेटवर्क का निर्माण नहीं करा सकते। ये अस्पताल, स्कूल और गरीबों को घर नहीं बनवा सकते। पीएम मोदी ने युवाओं से इस पर विशेष रूप से काम करने की बात कही और कहा कि ये रेवड़ी कल्चर आने वाली पीढिय़ों के लिए घातक साबित होगा। किंतु अब वे ही मोदी की गारंटी के रुप में इसे लागू करते दिखते हैं।
अर्थशास्त्र के जानकारों का कहना है कि राजनीतिक दल चुनावी वादों के रूप में फ्रीबीज/सब्सिडी की घोषणा कर सकते हैं, लेकिन ऐसे चुनावी वादे तभी लागू किए जाने चाहिए जब राज्य के बजट में रेवेन्यू सरप्लस हो। सरकारें इन फ्रीबीज को लागू करने के लिए उधार लेती हैं, जो बदले में उनके कर्ज के बोझ को बढ़ाता हैं।