सुभाष मिश्र
दक्षिण में उत्तर-विरोध की राजनीति समय-समय पर परवान चढ़ती रही है। ब्राह्मण-विरोध, हिंदी-विरोध, वेद-शास्त्र-विरोध यानी आर्य-संस्कृति के विरोध की धुरी पर यह उसी तरह टिकी हुई है, जैसे संघ-भाजपा की राजनीति पाकिस्तान-विरोध पर आश्रित है। एक कल्पित शत्रु के प्रति बेहद आक्रामक यह अस्मितावादी राजनीति अपने आत्मबोध को उसके बरअक्स रखती है। द्रमुक की विचारधारा का प्रमुख आधार अन्नादुराई के ज़माने से हिंदी-विरोध रहा है। अतीत में इसके जरिये तमिल भावनाओं को उग्र राजनीतिक दिशा देने में कामयाबी भी मिलती रही है। तमिलनाडु पर हिंदी थोपने के विरोध में आज़ादी मिलने के बाद के दिनों में ही उग्र प्रदर्शन हुए थे। इस मुद्दे को अक्सर तभी उठाया जाता रहा है जब केंद्र सरकार का कोई फैसला द्रविड़ राजनीतिक हितों के विरुद्ध प्रतीत होता हो।
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तमिलनाडु के मुख्यमंत्री और डीएमके (द्रविड़ मुनेत्र कडग़म) प्रमुख एम.के. स्टालिन का हिंदी भाषा का विरोध महज एक भाषाई मुद्दा नहीं है, बल्कि इसके गहरे राजनीतिक निहितार्थ हैं। हिंदी के प्रति उनका विरोध द्रविड़ राजनीति, संघवाद और राष्ट्रीय राजनीति के संदर्भ में समझा जा सकता है।
डीएमके और उसके पूर्ववर्ती द्रविड़ आंदोलन का हिंदी का विरोध ऐतिहासिक रूप से तमिल पहचान और स्वायत्तता से जुड़ा हुआ है। 1930 के दशक में पेरियार द्वारा शुरू किए गए द्रविड़ आंदोलन का एक प्रमुख तत्व हिंदी थोपने का विरोध था। डीएमके के संस्थापक सी.एन. अन्नादुरई और बाद में एम. करुणानिधि ने हिंदी को ‘उत्तर भारत की भाषाÓ कहकर इसे तमिलनाडु पर जबरन थोपने का विरोध किया। स्टालिन इसी परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं।
स्टालिन हिंदी विरोध को संघीय ढांचे की रक्षा के रूप में प्रस्तुत करते हैं। उनका मानना है कि केंद्र सरकार द्वारा हिंदी को बढ़ावा देना राज्यों के अधिकारों को कमजोर करने का एक प्रयास है। डीएमके, तमिलनाडु की क्षेत्रीय स्वायत्तता की पुरजोर वकालत करती है और हिंदी का विरोध इसी लार्जर नेरिटीव का हिस्सा है।
हिंदी विरोध डीएमके के राजनीतिक एजेंडे में भाजपा-विरोधी राजनीति से भी जुड़ा है। स्टालिन के लिए हिंदी विरोध भाजपा बनाम डीएमके की लड़ाई का एक हिस्सा है, क्योंकि भाजपा हिंदी को राष्ट्रीय पहचान के रूप में स्थापित करना चाहती है। 2022 में जब गृहमंत्री अमित शाह ने हिंदी को देश को जोडऩे वाली भाषा कहा, तो स्टालिन ने इसे एक देश, एक भाषा, एक धर्म, एक संस्कृति के एजेंडे का हिस्सा बताया।
स्टालिन हिंदी विरोध को सिर्फ तमिलनाडु तक सीमित नहीं रखते। वे बंगाल, केरल, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक और महाराष्ट्र जैसे गैर-हिंदी राज्यों को भी इस मुद्दे पर एकजुट करने की कोशिश करते हैं। उनका संघीय गठबंधन बनाने का सपना हिंदी विरोध के जरिए मजबूत होता है, जिससे वे उत्तर-दक्षिण विभाजन को उभारकर राष्ट्रीय राजनीति में अपनी भूमिका बढ़ाना चाहते हैं।
तमिलनाडु के सीएम एमके स्टालिन ने लिखा कि दूसरे राज्यों के मेरे प्रिय बहनों और भाइयों, क्या आपने कभी सोचा है कि हिंदी ने कितनी भारतीय भाषाओं को निगल लिया है? भोजपुरी, मैथिली, अवधी, ब्रज, बुंदेली, गढ़वाली, कुमाऊंनी, मगही, मारवाड़ी, मालवी, छत्तीसगढ़ी, संथाली, अंगिका, हो, खरिया, खोरठा, कुरमाली, कुरुख, मुंडारी, और कई सारी भाषाएं अब अस्तित्व के लिए हांफ रहे हैं। हिंदी थोपने का विरोध किया जाएगा क्योंकि हिंदी मुखौटा और संस्कृत छुपा हुआ चेहरा है। एमके स्टालिन बोले- हम लैंग्वेज वॉर के लिए तैयार हैं। केंद्र हमारे ऊपर हिंदी न थोपे। अगर जरूरत पड़ी तो उनका राज्य एक और लैंग्वेज वॉर के लिए तैयार है।
इस पर केंद्रीय शिक्षामंत्री ने कहा कि मोदी सरकार तमिल संस्कृति और भाषा को वैश्विक स्तर पर बढ़ावा देने और लोकप्रिय बनाने के लिए पूरी तरह प्रतिबद्ध है। मैं अपील करता हूं कि शिक्षा का राजनीतिकरण न करें। एनईपी 2020 के तहत, स्टूडेंट्स को 3 भाषाएं सीखनी होंगी, लेकिन किसी भाषा को अनिवार्य नहीं किया गया है। राज्यों और स्कूलों को यह तय करने की आजादी है कि वे कौन-सी 3 भाषाएं पढ़ाना चाहते हैं।
तमिलनाडु की राजनीति में तमिल पहचान का मुद्दा हमेशा से महत्वपूर्ण रहा है। हिंदी विरोध करके स्टालिन यह दिखाना चाहते हैं कि वे तमिल भाषा और संस्कृति के रक्षक हैं। इससे उन्हें डीएमके के मूल वोट बैंक (तमिल राष्ट्रवादी, युवा और शहरी मध्यम वर्ग) का समर्थन मिलता है। स्टालिन का हिंदी विरोध सिर्फ भाषाई मुद्दा नहीं, बल्कि राजनीतिक अस्त्र है। यह उन्हें तमिल अस्मिता के संरक्षक के रूप में स्थापित करता है। भाजपा और केंद्र सरकार के खिलाफ एक मजबूत मोर्चा बनाता है, और गैर-हिंदी राज्यों को जोड़कर उन्हें राष्ट्रीय राजनीति में एक प्रभावशाली नेता के रूप में उभारता है।
इधर के दिनों में केंद्र सरकार की राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 में भारतीय भाषाओं में प्राथमिक शिक्षा दिये जाने के प्रावधानों पर आपत्ति करते हुए इसे हिंदी के वर्चस्व की नई उत्तर भारतीय रणनीति करार दिया गया। स्टालिन का ताज़ा वक्तव्य इसी राजनीतिक दृष्टिकोण को व्यक्त करता है। हिंदी को मुखौटा और संस्कृत को छुपा हुआ चेहरा कहने के पीछे के निहितार्थ स्पष्ट है।
अब उन्होंने दिलचस्प खोज की है कि जबरन हिंदी थोपने से बीते 100 सालों में 25 उत्तर भारतीय भाषाएं खत्म हो गयीं। भोजपुरी, मैथिली, अवधी, ब्रज, बुंदेली, गढ़वाली, कुमाऊंनी, मगही, मारवाड़ी, मालवी, छत्तीसगढ़ी, संथाली, अंगिका, हो, खरिया, खोरठा, कुरमाली, कुरुख, मुंडारी, और कई सारी भाषाएँ अब अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार कभी भी हिंदी क्षेत्र नहीं थे। अब उनकी असली भाषाएं अतीत की निशानी बन गई हैं। स्टालिन ने कहा कि हिंदी थोपने का विरोध किया जाएगा क्योंकि हिंदी मुखौटा और संस्कृत छुपा हुआ चेहरा है। द्रविड़ नेता और पूर्व मुख्यमंत्री सीएन अन्नादुरई ने दशकों पहले दो भाषा नीति लागू की थी। इसका मकसद यह था कि तमिल लोगों पर हिंदी-संस्कृत की आर्य संस्कृति को न थोपा जाए। ज़ाहिर है, आर्य-द्रविड़ अंतर्विरोध के अपने पुराने राजनीतिक आधार को नए सिरे से तमिल जनता के मनोजगत में नए रंग-रोगन के साथ स्थापित करने के एक अचूक अवसर के रूप में लेकर स्टालिन और द्रमुक पार्टी ने भाषा-संबंधी इस गंभीर मुद्दे को बेहद सरलीकृत कर दिया है। स्टालिन आर्य संस्कृति के विरोध में पहले भी इसी तरह के बयान देते रहे हैं। पिछले दिनों उन्होंने तमिल को संस्कृत से पुरानी क्लासिकल भाषा कहकर एक पुष्ट तथ्य को हंगामाखेज राजनीतिक अंदाज़ में पेश किया था। सनातन को मलेरिया और डेंगू की तरह बीमारी बताया था और उनके समूल नाश का आह्वान किया था।
इन बयानों में संस्कृति चिंता की जगह कुत्सित राजनीति की झलक मिलती है। यह इस बात से भी स्पष्ट है कि स्टालिन ने भाषा की जंग शुरू न करने की चेतावनी देते हुए तमिलनाडु के इस जंग के लिए तैयार होने का संकल्प प्रकट किया था। उन्होंने कहा कि जो राज्य हिंदी को स्वीकार करते हैं, वे अपनी मातृभाषा खो देते हैं। केंद्र लैंग्वेज वॉर शुरू न करे। उधर, केंद्र सरकार का रवैया भी कम आक्रामक नहीं है। केन्द्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान ने स्टालिन द्वारा नयी शिक्षा नीति के विरोध और त्रिभाषा फॉर्मूले पर उनके ऐतराज़ जताने पर कहा है कि यदि तमिलनाडु में त्रिभाषा शिक्षा नीति को नहीं अपनाया गया तो उसके लिए निर्धारित फंड जारी नहीं किया जाएगा।
कहने की ज़रूरत नहीं है कि भाषा के मुद्दे पर जंग शुरू हो चुकी है। दुर्भाग्य से जंग का मैदान राजनीति है। एक सांस्कृतिक प्रश्न का राजनीतिक समाधान ढूंढने की यह कोशिश दीर्घकालिक समाधान प्रस्तुत कर सकेगी, इसमें संदेह है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के विरोध के मुद्दे दूसरे हो सकते हैं, विशेषकर वैश्वीकरण और शिक्षा के पण्यकरण के मुद्दे। लेकिन भाषा के प्रश्न को राष्ट्रीय एकात्मकता, भारतीय अस्मिता और सांस्कृतिक समन्वय के व्यापक दृष्टिकोण से जोडऩे के बजाय संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थ की वेदी पर चढ़ाया जा रहा है यह दुर्भाग्यपूर्ण है। सच पूछा जाए तो तमिलनाडु में संस्कृत-हिंदी के प्रति विरोध के स्वर राजनीतिक हलकों से उठते रहे हैं, सांस्कृतिक क्षेत्रों से नहीं। स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में तमिलनाडु हिंदी प्रचार का प्रमुख केंद्र था। जनता ने उत्साह से उसे अपनाया था। विडम्बना है कि स्वतंत्रता के बाद पॉपुलिस्ट राजनीति के दबाव में सी. राजगोपालाचारी जैसे शीर्षस्थ हिंदी-प्रचारक भी झुकने को विवश हुए। स्टालिन का दृष्टिकोण भी उसी राजनीति की देन है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि यह तमिलनाडु की राजनीति का स्थायी राजनीतिक स्टैण्डपॉइंट है।