-सुभाष मिश्र
यह सरल-सी पंक्ति इस समय भारत की विदेश नीति का सटीक रूपक बन गई है। राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के भारत आगमन पर जो दृश्य सामने आए, प्रधानमंत्री मोदी के साथ कार यात्रा, अनौपचारिक डिनर और फिर हैदराबाद हाउस में हुई सजी प्रेस वार्ता—उन्होंने यह स्पष्ट संदेश दिया कि दशकों पुराना भारत-रूस संबंध आज भी वही स्थिरता, भरोसा और आत्मीयता लिए हुए है, जिसकी मिसाल हमने शीत युद्ध काल में देखी थी।
प्रधानमंत्री मोदी द्वारा इस्तेमाल किया गया ‘ध्रुव तारा का प्रतीक भारतीय जीवन का गहरा सांस्कृतिक रूपक है। ध्रुव तारा हमेशा स्थिर रहता है, दिशा दिखाता है और कठिन समय में मार्गदर्शन का काम करता है। विवाह की परंपराओं में उसका दर्शन शुभ माना जाता है। ठीक उसी तरह, भारत ने वैश्विक राजनीति के बदलावों और अनिश्चितताओं के बीच एक बार फिर अपने पुराने, भरोसेमंद साथी को पहचानते हुए संकेत दिया कि कुछ रिश्ते समय के साथ धूमिल नहीं होते, वे केवल परिस्थिति अनुकूल होने का इंतज़ार करते हैं।
पिछले कुछ वर्षों में भारत की विदेश नीति में एक झुकाव अमेरिका की ओर दिखा था। ‘नमस्ते ट्रंप से लेकर सुरक्षा सहयोग के समझौतों तक, ऐसा प्रतीत हुआ कि भारत नई धुरी तलाश रहा है। किन्तु डोनाल्ड ट्रंप की अनिश्चिततापूर्ण नीतियाँ, पाकिस्तान और चीन को लेकर वाशिंगटन की बार-बार बदलती रणनीति और अमेरिकी दोस्ती में भावनात्मक तत्व की कमी, इन सबने भारत को यह एहसास कराया कि अमेरिका एक महत्वपूर्ण साझेदार तो है, पर उसके साथ संबंधों की स्थिरता वैसी नहीं, जैसी रूस के साथ रही है। यही कारण है कि अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों में आए बदलावों ने भारत को फिर उसी मित्र की ओर देखने को प्रेरित किया जिसने भिलाई स्टील प्लांट से लेकर अंतरिक्ष और रक्षा तक हर क्षेत्र में भरोसेमंद सहयोग दिया।
पुतिन और मोदी की मुलाक़ात में सबसे पहले आतंकवाद का मुद्दा उभरा। पहलगाम में हाल की घटना और रूस के कॉन्सर्ट हॉल पर हुआ हमला दोनों नेताओं के सामने ताजा उदाहरण थे। दोनों ने कहा कि आतंकवाद मानवता के मूल्यों पर सबसे बड़ा प्रहार है और इसके विरुद्ध वैश्विक स्तर पर एकजुटता ही एकमात्र उपाय है। यह संदेश केवल आपसी सांत्वना भर नहीं था, यह अमेरिका सहित उन देशों की ओर सूक्ष्म संकेत भी था जो आतंकवाद के मुद्दे पर कभी राजनीतिक सुविधा तो कभी नैतिकता के बीच डगमगाते दिखाई देते हैं।
यूक्रेन युद्ध पर भी संवाद हुआ। प्रधानमंत्री ने बड़े स्पष्ट शब्दों में कहा कि किसी भी युद्ध का अंत केवल बातचीत और मानवीय मूल्यों के रास्ते ही संभव है। यहां महात्मा गांधी का जिक्र स्वाभाविक था। दुनिया का कोई भी बड़ा राष्ट्राध्यक्ष दिल्ली आए और राजघाट न जाए, ऐसी मिसाल नहीं मिलती। पुतिन जैसे कठोर छवि वाले नेता भी गांधी के समक्ष सिर झुकाते हैं, क्योंकि युद्धरत दुनिया को अंतत: मार्गदर्शन उसी विरासत से मिलता है जो अहिंसा, संवाद और नैतिक साहस की बात करती है।
मुलाक़ात की उपलब्धियाँ व्यावहारिक धरातल पर भी उतनी ही महत्वपूर्ण रहीं। रूस ने भारत को लंबे समय तक रियायती दर पर कच्चा तेल उपलब्ध कराने की सहमति दी, जो ऊर्जा सुरक्षा की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। कृषि और उर्वरक क्षेत्र में संयुक्त उत्पादन इकाइयों पर बातचीत से खाद संकट और मूल्य नियंत्रण दोनों में राहत मिल सकती है। फूड प्रोसेसिंग क्षेत्र के लिए भारतीय मसालों, चावल और अन्य खाद्य उत्पादों के रूस में बड़े बाजार तक पहुंचने की संभावनाएँ खुलीं। इससे न केवल निर्यात बढ़ेगा बल्कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था को भी गति मिलेगी।
साथ ही, 30 दिन का ई-टूरिस्ट वीज़ा दोनों देशों के लोगों के बीच संपर्क और पर्यटन को नई दिशा देगा। रक्षा क्षेत्र में पुराने हथियारों के जीर्णोद्धार, पुर्जों की उपलब्धता और नई तकनीक साझेदारी पर चुपचाप मगर महत्त्वपूर्ण प्रगति हुई, जिसका असर आने वाले वर्षों में स्पष्ट दिखाई देगा। हरित ऊर्जा और जलवायु मुद्दों पर दोनों देशों ने सहयोग बढ़ाने की सहमति जताई। पुतिन वैश्विक ऊर्जा वर्चस्व की राजनीति को लेकर चिंतित दिखे, वहीं भारत ने 2070 तक कार्बन न्यूट्रल बनने की अपनी प्रतिबद्धता दोहराई। यह संकेत है कि सहयोग केवल पारंपरिक क्षेत्रों तक सीमित नहीं, बल्कि भविष्य की तकनीकों और पर्यावरणीय दृष्टि तक विस्तृत है।
मुलाक़ात का एक रोचक और गहन संदेश रूस द्वारा बुद्ध के अवशेषों पर संवाद की इच्छा से आया। यह बताता है कि युद्ध की आग में झुलस रहे वैश्विक माहौल में शांति और दर्शन की आवश्यकता बढ़ रही है। यह केवल सांस्कृतिक विमर्श नहीं, बल्कि एक न्यूरल कूटनीतिक संकेत है कि जब भू-राजनीति की तलवारें कुंद पड़ती हैं, तो राष्ट्र विचार और संस्कृति की ओर लौटते हैं।
इन सभी घटनाओं का व्यापक अर्थ यह है कि भारत-रूस संबंध केवल इतिहास का सौहार्द नहीं, बल्कि वर्तमान की आवश्यकता और भविष्य की रणनीति भी हैं। रूस को विशाल बाजार चाहिए और भारत को ऊर्जा, उर्वरक, रक्षा तकनीक और कच्चे तेल की स्थिर आपूर्ति, दोनों की ज़रूरतें एक-दूसरे को पूरक बनाती हैं। और यही पूरकता आज की बहुध्रुवीय दुनिया में सबसे मजबूत कूटनीतिक आधार है।
अंतत: पुतिन की यह यात्रा केवल पुरानी मित्रता के स्मरण की यात्रा नहीं थी। यह उस भारत का परिचय भी थी जो आत्मविश्वास से पश्चिम और पूर्व दोनों से समान दूरी और समान गरिमा के साथ बात कर सकता है। यह उस भारत का संकेत थी जो अपनी विदेश नीति को किसी एक धुरी पर नहीं, बल्कि संतुलन, विवेक और दीर्घकालिक हितों पर आधारित कर रहा है। यदि यह संतुलन इसी ध्रुव तारे की भांति स्थिर रहा, तो आने वाले वर्षों में ऊर्जा, कृषि, रक्षा और व्यापार के चारों स्तंभों पर इसका सकारात्मक प्रभाव अवश्य दिखाई देगा।