Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – 2 सालों में बस्तर की बदलती फिज़ा

-सुभाष मिश्र

छत्तीसगढ़ में सत्ता परिवर्तन के दो साल पूरे होते हैं और यह कहना गलत नहीं होगा कि इस अवधि ने बस्तर की हवा भी बदली है। नक्सलवाद की गिरती ताक़त अब सिफऱ् सरकारी दावा नहीं, बल्कि लोगों की दिनचर्या में महसूस होने वाला सच है। इसी बदलते माहौल में हाल की कैबिनेट बैठक के फैसले में जहां आत्मसमर्पण कर चुके नक्सलियों के मामलों की समीक्षा की विस्तृत प्रक्रिया तय की गई। यह संकेत देते हैं कि सरकार अब सिफऱ् बंदूक की लड़ाई नहीं लडऩा चाहती, बल्कि समाज को स्थायी शांति में ले जाने की तैयारी कर रही है। चार हज़ार से अधिक नक्सलियों का आत्मसमर्पण और उसके बाद अदालतों के चक्कर से मुक्त करके उन्हें सामान्य जीवन देने का रास्ता, यह सब एक बड़े बदलाव की ओर इशारा करता है।
सरकार ने प्रक्रिया को कई परतों में बाँटा है ताकि कोई भी निर्णय मनमाने ढंग से न हो। जिला स्तर की प्रारंभिक स्क्रीनिंग, पुलिस मुख्यालय व विधि विभाग की संयुक्त जांच, मंत्रिमंडलीय उप-समिति की अंतिम छंटनी और जहाँ केंद्रीय कानून लागू हैं वहाँ केंद्र की अनुमति। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया की संवेदनशीलता वहीं से समझ में आती है जहाँ सरकार खुलकर मानती है कि बड़ी संख्या परिस्थितियों के दबाव, धमकी, भ्रम या संगठन के भीतर मजबूरी में रहने वालों की है। ऐसे मामलों में तकनीकी, कमजोर और परिस्थितिजन्य आरोपों से मुक्ति देकर उन्हें जिंदगी का नया रास्ता देना ही संघर्ष को समाप्त करने का सबसे मानवीय तरीका है।
यह भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि जिन मामलों में अपराध की प्रकृति गंभीर है या जहाँ पीडि़तों का न्याय दांव पर है, वहां न जल्दबाजी होगी और न राजनीति। यह संतुलन जरूरी है क्योंकि बस्तर की शांति सिफऱ् सुरक्षात्मक सफलता का प्रश्न नहीं, बल्कि न्याय और सुलह के बीच सूक्ष्म तालमेल का विषय है।
लेकिन इस पूरी प्रक्रिया के बीच राज्य की राजनीति का अपना दबाव और अपना हिसाब-किताब भी चलता है। भाजपा जिस सुशासन और मोदी की गारंटी के नारे के साथ सत्ता में आई थी, उसमें जनविश्वास की कसौटी सिफऱ् नक्सलवाद की गिरावट तक सीमित नहीं रहती। शराबबंदी के सवाल पर भाजपा ने कांग्रेस पर वर्षों हमला बोला, अब वही सवाल भाजपा की ओर मुड़कर खड़ा है कि आखिर शराबबंदी की दिशा क्या है? यह भी उतना ही सच है कि हर सरकार, सत्ता में आने के बाद, विरोध में कही गई बातों के बोझ के नीचे खुद को तौलने के लिए मजबूर होती है। जनता यह देख रही है कि वादे क्या थे और आज की सरकार की प्राथमिकताएँ क्या हैं।
इसी तरह विकास की रफ़्तार और वित्तीय अनुशासन पर भी सवाल उठ रहे हैं। पिछली सरकारों पर जिस तरह के आरोप लगते थे व्यवस्था में ढिलाई, योजनाओं में ठहराव और प्रशासनिक अनिश्चितता, वह आज के शासन मॉडल से स्वभाविक रूप से तुलना का आधार बनते हैं। यह स्वीकार करना होगा कि सुरक्षा और विकास एक-दूसरे के पूरक हैं, परंतु भरोसा तभी टिकता है जब फैसलों में पारदर्शिता और प्रशासन में संवेदनशीलता बनी रहे।
इन सबके बावजूद यह भी सच है कि बस्तर का मनोविज्ञान बदल रहा है। नक्सल कैंपों के सिमटने, साप्ताहिक बाजारों की चहल-पहल वापस आने, सड़क और स्कूल की उपलब्धता बढऩे और मेडिकल सेवाओं के गाँव-गाँव पहुँचने से जो ज़मीन तैयार हुई है, वह किसी भी राजनीतिक नारे से ज्यादा मजबूत आधार पर खड़ी है। लेकिन स्थायी शांति के लिए जरूरी है कि जिन युवाओं ने हथियार छोड़े हैं, उन्हें रोजगार, शिक्षा और सामाजिक स्वीकार्यता मिले। क्योंकि पुनर्वास की सफलता सिफऱ् आदेशों और कैबिनेट के फैसलों पर नहीं, बल्कि समाज की सहमति और राज्य की जिम्मेदारी पर निर्भर करती है।
सरकार आज जिस मोड़ पर खड़ी है, वहाँ उपलब्धियां भी हैं और अधूरे काम भी। और यही राजनीति का संतुलन है, जहां सत्ता का दावा और जनता का अनुभव दोनों एक साथ चलते हैं। राज्य ने दो साल में बहुत कुछ बदला है, लेकिन जनता की नजरें इस पर होंगी कि अगले कदम कितने टिकाऊ, पारदर्शी और ईमानदार साबित होते हैं क्योंकि शांति की यह यात्रा अभी खत्म नहीं हुई है, बल्कि एक नए पड़ाव में प्रवेश कर रही है।

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