-सुभाष मिश्र
छत्तीसगढ़ को लंबे समय तक एक शांत, सहअस्तित्व वाला समाज माना जाता रहा है। यह वह धरती है जहां आदिवासी परंपराएं, कबीर और घासीदास की निर्गुण चेतना और लोक जीवन की सहजता ने मिलकर एक अलग सामाजिक ताना-बाना रचा। यहां धर्म कभी टकराव का औज़ार नहीं रहा, बल्कि जीवन को समझने का रास्ता रहा। लेकिन हाल के दिनों में जो घटनाएं सामने आई हैं, वे संकेत दे रही हैं कि यह संतुलन धीरे-धीरे दरक रहा है और चिंता की बात यह है कि इस दरार में राजनीति, पहचान और आस्था—तीनों एक साथ उतर आई है।
कांकेर जिले के बड़े तेवड़ा गांव की घटना केवल एक शव के दफन या दाह संस्कार का विवाद नहीं है। यह आदिवासी समाज के भीतर उस गहरे विभाजन का संकेत है, जो धर्मांतरण के सवाल पर लगातार चौड़ा होता जा रहा है। एक ही समुदाय के लोग—धर्मांतरित और गैर-धर्मांतरित—आमने-सामने खड़े हो गए। मामला इतना बिगड़ा कि चर्च जला, सरपंच का घर निशाने पर आया और पुलिस पर पत्थर चले। बीस से अधिक पुलिसकर्मियों का घायल होना इस बात का संकेत है कि यह टकराव भावनात्मक नहीं, विस्फोटक हो चुका है। चारामा में इसी तरह का तनाव बताता है कि यह घटना अपवाद नहीं, बल्कि एक चलती हुई श्रृंखला का हिस्सा है।
इसी बीच बिलासपुर में गुरु घासीदास जयंती जैसे पवित्र सामाजिक आयोजन में आरएसएस की मौजूदगी को लेकर हुआ हंगामा यह बताता है कि छत्तीसगढ़ में अब धार्मिक और सामाजिक मंच भी राजनीतिक पहचान से अछूते नहीं रहे। सतनामी समाज जो बाबा घासीदास और कबीर की परंपरा से निकला है, जिसकी मूल चेतना समता और मानवता रही है, वहां मुर्दाबाद के नारे लगना इस बात का संकेत है कि टकराव अब प्रतीकों के स्तर तक पहुंच गया है। सवाल यह नहीं है कि आरएसएस को बुलाया गया या नहीं, सवाल यह है कि क्या अब हर सामाजिक मंच को राजनीतिक खांचे में बांट दिया जाएगा?
छत्तीसगढ़ की सामाजिक संरचना को समझे बिना इन घटनाओं को नहीं समझा जा सकता। यहां आबादी का बड़ा हिस्सा आदिवासी, अनुसूचित जाति—विशेषकर सतनामी समाज और पिछड़े वर्गों से आता है। मुसलमानों की संख्या इतनी नहीं कि उत्तर प्रदेश, बिहार या बंगाल जैसी राजनीति यहां संभव हो। इसलिए यहां राजनीति की धुरी धर्मांतरण, हिंदुत्व, ‘घर वापसी और सांस्कृतिक पहचान के इर्द-गिर्द घूमती है। यह एक तरह से खाली जगह में भरी जा रही राजनीति है, जहां दूसरा गढऩा जरूरी हो गया है।
धर्मांतरण का सवाल छत्तीसगढ़ में नया नहीं है। बस्तर, जशपुर, नारायणपुर जैसे क्षेत्रों में यह दशकों से मौजूद है। मिशनरियों पर आरोप लगते रहे हैं कि वे शिक्षा और स्वास्थ्य के नाम पर आदिवासियों का धर्म परिवर्तन कराते हैं। दूसरी ओर ईसाई समुदाय इसे स्वैच्छिक और सामाजिक सुधार की प्रक्रिया बताता है। इसी टकराव के बीच हिंदुत्ववादी संगठनों की ‘घर वापसी की राजनीति खड़ी होती है जो इसे मूल पहचान की पुनर्प्राप्ति बताती है। दोनों ही ओर से दावा नैतिकता का होता है, लेकिन बीच में आदिवासी समाज अपनी एकता और सांस्कृतिक आत्मविश्वास खोता जा रहा है।
धीरेंद्र शास्त्री जैसे कथावाचकों के बयान और गतिविधियां इस माहौल को और तीखा करती हैं। चर्च के सामने कथा करने की घोषणा, बस्तर और जशपुर को धर्मांतरण का केंद्र बताना, बकरीद की बलि पर टिप्पणी ये सब धार्मिक विमर्श से ज्यादा राजनीतिक संकेत बन जाते हैं। उनके समर्थक इसे सनातन धर्म की रक्षा मानते हैं, लेकिन आलोचक इसे आक्रामक हिंदुत्व और ध्रुवीकरण का माध्यम मानते हैं। समस्या यह नहीं है कि कोई अपने धर्म की बात कर रहा है, समस्या यह है कि धर्म को दूसरे के खिलाफ खड़ा किया जा रहा है।
यह विडंबना ही है कि जिस सनातन धर्म की बात सबसे ज्यादा की जा रही है, उसकी मूल शिक्षाएं सहिष्णुता, करुणा और सह-अस्तित्व की हैं। ‘वसुधैव कुटुंबकम केवल श्लोक नहीं, सामाजिक दर्शन है। कबीर और घासीदास ने कभी दीवारें खड़ी नहीं कीं, बल्कि उन्हें गिराया। गांधी का ‘वैष्णव जन आज भी याद दिलाता है कि धर्म का अर्थ पीड़ा समझना है, पीड़ा पैदा करना नहीं।
छत्तीसगढ़ सरकार के सामने धर्मांतरण विरोधी कानून को लेकर भी असमंजस है। ड्राफ्ट तैयार है, लेकिन लागू नहीं हो पा रहा। इसके पीछे संवैधानिक जटिलताएं भी हैं और सामाजिक आशंकाएं भी। कठोर कानून लागू करने से स्थिति संभलेगी या और भड़केगी—यह सवाल अभी अनुत्तरित है। अनुभव बताता है कि कानून से पहले संवाद जरूरी होता है। जब समाज बंटा हुआ हो, तब कानून अक्सर हथियार बन जाता है।
आज छत्तीसगढ़ एक चौराहे पर खड़ा है। एक रास्ता वह है, जहां पहचान की राजनीति, धार्मिक ध्रुवीकरण और आक्रामक भाषाएं हैं। दूसरा रास्ता वह है, जो इस प्रदेश की मूल आत्मा से निकलता है—सह-अस्तित्व, संवाद और संत परंपरा का रास्ता। सवाल यह है कि हम कौन-सा रास्ता चुनते हैं।
क्योंकि अगर आदिवासी बनाम आदिवासी, सतनामी बनाम सतनामी और धर्म बनाम धर्म की यह आग यूं ही बढ़ती रही तो यह सिर्फ कानून व्यवस्था की समस्या नहीं रहेगी, बल्कि छत्तीसगढ़ की सामाजिक आत्मा का संकट बन जाएगी और तब इतिहास हमसे यह सवाल जरूर पूछेगा कि क्या हमने शांति की धरती को राजनीति की प्रयोगशाला बनने दिया।