-सुभाष मिश्र
महात्मा गांधी के अंतिम शब्द थे— हे राम। यह कोई धार्मिक उद्घोष नहीं था, बल्कि उनके पूरे जीवन-दर्शन का निचोड़ था—सत्य, करुणा और नैतिक साहस का प्रतीक। आज़ाद भारत ने गांधी को राष्ट्रपिता माना, उनकी तस्वीर मुद्रा पर रखी और उनके नाम से संस्थाएं व योजनाएं जोड़ीं। लेकिन आज जब महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना मनरेगा के नाम और स्वरूप में बदलाव की चर्चा हो रही है तो सवाल केवल एक सरकारी योजना का नहीं रह जाता। यह सवाल है कि क्या भारतीय राजनीति अब गांधी के नैतिक राम से हटकर सत्ता-सुरक्षा के राम की ओर बढ़ चुकी है।
मनरेगा भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ मानी जाती है। इसकी जड़ें 1970-80 के दशक के महाराष्ट्र के अकाल राहत कार्यक्रमों में मिलती है, जब पहली बार संगठित रूप से यह सोचा गया कि आपदा के समय ग्रामीणों को केवल अनुदान नहीं, बल्कि सम्मानजनक रोजगार दिया जाए। इसी सोच का परिणाम था 2005 में संसद द्वारा पारित राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम। 2009 में इसमें महात्मा गांधी का नाम जोड़ा गया और यह योजना अधिकार-आधारित कानून बन गई जहां रोजगार कोई कृपा नहीं, बल्कि कानूनी हक़ था।
बीते दो दशकों में मनरेगा ने गांवों में तालाब, सड़कें, मेड़बंदी, जल-संरक्षण और पौधारोपण जैसे करोड़ों मानव दिवस के काम दिए। महिला भागीदारी इसकी बड़ी उपलब्धि रही। कोविड जैसी अभूतपूर्व आपदा में यही योजना ग्रामीण भारत की जीवनरेखा बनी। इसके बावजूद मनरेगा हमेशा राजनीतिक निशाने पर रही।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं संसद में कह चुके हैं कि मनरेगा कांग्रेस की विफलताओं का ऐसा स्मारक है जिसे वे इसलिए चलाए रखेंगे ताकि कांग्रेस की नीतियों की असफलता दिखाई देती रहे। अब जब केंद्र सरकार इसके नाम और ढांचे में बदलाव के संकेत दे रही है—और इसे विकसित भारत रोजगार गारंटी योजना जैसे नए नाम से लाने की बात हो रही है तो विवाद स्वाभाविक है। प्रस्तावित संक्षिप्त नाम जी-राम-जी ने बहस को और प्रतीकात्मक बना दिया है।
सरकार का तर्क है कि ग्रामीण भारत की ज़रूरतें बदल चुकी हैं। अब केवल 100 दिन की मजदूरी नहीं, बल्कि टिकाऊ परिसंपत्तियां, जलवायु-अनुकूल विकास और बेहतर निगरानी की ज़रूरत है। जियो-टैगिंग, डिजिटल भुगतान और लगभग 99 प्रतिशत समय पर भुगतान का हवाला देकर कहा जा रहा है कि नई व्यवस्था अधिक पारदर्शी होगी। सरकार यह भी मानती है कि कुछ राज्यों विशेषकर पश्चिम बंगाल में फर्जी जॉब कार्ड और भ्रष्टाचार के मामले सामने आए हैं, इसलिए सुधार ज़रूरी है।
लेकिन विपक्ष का सवाल सीधा है—क्या भ्रष्टाचार योजना का दोष है या उसके क्रियान्वयन का? हर सरकारी योजना में अनियमितताएं सामने आती रही हैं। क्या समाधान योजना की पहचान बदल देना है, या निगरानी और जवाबदेही मजबूत करना? कांग्रेस और विपक्ष का कहना है कि मनरेगा कोई साधारण स्कीम नहीं, बल्कि संसद द्वारा पारित अधिकार है। अगर इसे नए नाम और नए ढांचे में बदला गया तो 100 दिन की कानूनी गारंटी, मजदूरी दर और राज्यों पर बढ़ते वित्तीय बोझ जैसे सवाल और गहरे होंगे।
यह बहस अब केवल मनरेगा तक सीमित नहीं रह गई है। इसके केंद्र में एक बड़ा प्रश्न है—जब सरकार अपनी तमाम उपलब्धियों, विकास के दावों और महात्मा गांधी के प्रति औपचारिक सम्मान की बात करती है, तो फिर राम नाम की बार-बार जरूरत क्यों पड़ती है?
असल में विकास अपने आप में राजनीतिक आस्था नहीं बनाता। सड़कें, पुल और योजनाएं समय के साथ सामान्य हो जाती हैं। वे वोट दिला सकती हैं, लेकिन स्थायी भावनात्मक निष्ठा नहीं बनातीं। सत्ता जानती है कि पहचान और विश्वास प्रतीकों से बनते हैं। राम नाम आज भारतीय राजनीति का सबसे शक्तिशाली सांस्कृतिक प्रतीक बन चुका है।
यहां गांधी और राम के अर्थ बदल जाते हैं। गांधी का राम नैतिक था जो सत्ता से सवाल पूछता था। आज का राम सत्ता के लिए एक सांस्कृतिक ढाल बन जाता है—जो सवालों को आस्था के शोर में दबा देता है। गांधी का नाम जवाबदेही की याद दिलाता है, जबकि राम नाम भावनात्मक ध्रुवीकरण का सहज साधन बन जाता है।
इतिहास बताता है कि जो सत्ता अपने काम पर पूरी तरह आश्वस्त होती है, उसे प्रतीकों की बार-बार जरूरत नहीं पड़ती। राम नाम का बार-बार प्रयोग कहीं न कहीं इस असुरक्षा को भी उजागर करता है कि विकास का नैरेटिव अकेले पर्याप्त नहीं है। बेरोजग़ारी, महंगाई और असमानता जैसे सवाल अब भी असहज बने हुए हैं।
इसलिए राजनीति धीरे-धीरे नैतिक विमर्श से सांस्कृतिक विमर्श की ओर शिफ्ट होती है। जहां सवाल पूछना असहमति कहलाता है और असहमति को अपमान बताया जाता है। गांधी औपचारिक सम्मान तक सीमित रह जाते हैं, जबकि गांधीवाद नीतिगत स्तर पर असहज हो जाता है।
मनरेगा का नाम बदले या न बदले, असली सवाल यह है कि क्या ग्रामीण गरीब का अधिकार सुरक्षित रहेगा? क्या रोजगार की गारंटी बनी रहेगी? क्या राज्यों पर बोझ बढ़ेगा या संसाधन? अगर बदलाव से पारदर्शिता बढ़ती है और अधिकार मजबूत होते हैं तो उस पर सहमति बन सकती है। लेकिन अगर यह केवल प्रतीकों की अदला-बदली है तो यह गरीबों की नहीं, राजनीति की जीत होगी।
महात्मा गांधी का राम किसी एक धर्म या नारे का नहीं, बल्कि न्याय, मर्यादा और करुणा का प्रतीक था। आज सवाल यह है कि क्या 2025 तक आते-आते गांधी पर रामधारी पड़ जाएंगे और मनरेगा, जो करोड़ों ग्रामीणों के लिए जीवन का सहारा है, केवल एक नए नाम के साथ अपनी अंतिम सांस लेती दिखेगी?
यह फैसला सिफऱ् एक योजना का नहीं, बल्कि भारतीय लोकतंत्र की दिशा का फैसला होगा।