धुरंधर में बड़े साहब कौन है?
-सुभाष मिश्र

व्यवसायिक दृष्टि से ‘धुरंधर’ एक निर्विवाद सफलता है। बड़े आंकड़े, भारी प्रचार, तकनीकी दक्षता और मल्टी-स्टार कास्ट—इन सबने मिलकर इसे साल की सबसे चर्चित फिल्मों में शामिल कर दिया है। लेकिन हर बड़ी हिट फिल्म की तरह ‘धुरंधर’ भी सिर्फ़ बॉक्स ऑफिस का सवाल नहीं है। यह फिल्म कई ऐसे सवाल छोड़ जाती है, जिन पर दर्शक, आलोचक और राजनीतिक-सांस्कृतिक हलकों में अलग-अलग स्तर पर चर्चा चल रही है।
फिल्म का केंद्रीय किरदार—एक भारतीय जासूस, जिसे ‘धुरंधर’ के रूप में स्थापित किया गया है—पाकिस्तान के भीतर एक अत्यंत गोपनीय मिशन पर है। यहां से फिल्म एक ऐसे नॉरेटिव का निर्माण करती है, जो दर्शक को लगातार यह विश्वास दिलाने की कोशिश करता है कि वह ‘सच के बहुत क़रीब’ है। स्क्रीन पर बार-बार यह कहा जाता है कि कहानी वास्तविक घटनाओं से प्रेरित है, लेकिन साथ ही यह भी स्वीकार किया जाता है कि कई पात्र और घटनाएं गढ़ी गई हैं। यही वह धुंधली रेखा है, जहां से सवाल शुरू होते हैं।
सबसे बड़ा रहस्य फिल्म में बार-बार लिया गया नाम—‘बड़े साहब’। पूरे पहले हिस्से में उनका ज़िक्र है, लेकिन उनका चेहरा सामने नहीं आता। संकेत, संवाद और कैमरा एंगल इस तरह रचे गए हैं कि दर्शक खुद अंदाज़ा लगाने लगता है—क्या ‘बड़े साहब’ पाकिस्तान की सैन्य या खुफिया व्यवस्था के शीर्ष नेतृत्व का प्रतीक हैं? क्या वे किसी वास्तविक पद या व्यक्ति की ओर इशारा करते हैं? और अगर ऐसा है, तो यह सिर्फ़ कहानी की ज़रूरत है या किसी बड़े राजनीतिक-सांस्कृतिक संकेत की तैयारी?
फिल्म का दूसरा अहम पहलू है—इंटेलिजेंस एजेंसियों की भूमिका। कई दृश्य ऐसे हैं, जहां भारतीय जासूस को दुश्मन देश के भीतर असाधारण स्तर की सूचनाएं, फुटेज और लॉजिस्टिक सपोर्ट बेहद सहजता से मिलते हुए दिखाया गया है। सवाल यह उठता है कि अगर यही कहानी कोई और फिल्मकार कहता, तो क्या उसे इतनी आसानी से ‘अनौपचारिक स्वीकृति’ मिलती? आम तौर पर आईबी, रॉ या रक्षा प्रतिष्ठान ऐसे चित्रणों पर आपत्ति जताते रहे हैं, लेकिन ‘धुरंधर’ के मामले में चुप्पी भी अपने आप में एक संदेश बन जाती है।

यह चुप्पी इसलिए भी चर्चा में है क्योंकि पिछले कुछ वर्षों में हिंदी सिनेमा में एक स्पष्ट ट्रेंड उभरा है—हर छह-आठ महीने में कोई न कोई ऐसी फिल्म, जो राष्ट्रवाद, आंतरिक या बाहरी दुश्मन और ‘हम बनाम वे’ के फ्रेम में कहानी कहती है। ‘द कश्मीर फाइल्स’, ‘द केरल स्टोरी’, ‘उदयपुर फाइल्स’ और अब ‘धुरंधर’—इन सभी फिल्मों में अलग-अलग मुद्दे हैं, लेकिन प्रस्तुति का ढांचा काफी हद तक समान है। फिल्में खुद को तथ्यपरक बताती हैं, लेकिन उनकी भावनात्मक भाषा दर्शक को किसी निष्कर्ष की ओर धीरे-धीरे धकेलती है।
‘धुरंधर’ भी इसी श्रेणी में रखी जा रही है। यहां पाकिस्तान को एक स्थायी दुश्मन, अंधेरे और षड्यंत्रों से भरे राष्ट्र के रूप में दिखाया गया है, जबकि भारतीय जासूस लगभग मिथकीय नायक के रूप में उभरता है—अकेला, साहसी, नैतिक रूप से अडिग। यह चित्रण पूरी तरह नया नहीं है, लेकिन जिस समय और जिस राजनीतिक माहौल में यह फिल्म आई है, वह इसे और अधिक अर्थपूर्ण बना देता है।
फिल्म के समर्थक इसे बदलते भारत की आत्मविश्वासी छवि बताते हैं—एक ऐसा भारत जो ‘घुसकर मारने’ से नहीं हिचकता, जो अपने दुश्मनों को उनके घर में जवाब देता है। आलोचक वहीं सवाल उठाते हैं कि क्या सिनेमा को इस तरह समकालीन भू-राजनीतिक दावों और सैन्य गौरव के प्रदर्शन का माध्यम बनाया जाना चाहिए? क्या इससे जटिल अंतरराष्ट्रीय यथार्थ सरल और एकरेखीय बना दिया जाता है?
वास्तविकता यह है कि जासूसी कोई नई चीज़ नहीं है। हर देश दूसरे देशों में अपने एजेंट रखता है—कभी डिप्लोमैट के रूप में, कभी कारोबारी, पत्रकार या सामान्य नागरिक के तौर पर। भारत में भी समय-समय पर पाकिस्तान, चीन, अमेरिका या अन्य देशों के लिए काम करने वाले लोग पकड़े जाते रहे हैं, और पाकिस्तान में भी भारतीय एजेंटों की गिरफ्तारी की खबरें आती रही हैं। यह एक पुरानी और स्थापित परंपरा है। लेकिन ‘धुरंधर’ इस जटिल और बहुस्तरीय यथार्थ को एक नायक-केंद्रित, लगभग एकांगी कथा में बदल देती है।
फिल्म के कुछ पात्र—खासकर माधवन द्वारा निभाया गया किरदार—ऐसे लगते हैं मानो वे किसी वास्तविक व्यक्ति के ‘डूबल’ हों। नाम बदले हुए हैं, परिस्थितियां थोड़ी घुमाई गई हैं, लेकिन इशारे इतने स्पष्ट हैं कि दर्शक खुद उन्हें किसी असली चेहरे से जोड़ने लगता है। यहीं से ‘सच के भ्रम’ का सवाल पैदा होता है—क्या यह रचनात्मक स्वतंत्रता है, या दर्शक की स्मृति और भावनाओं के साथ एक सोची-समझी छेड़छाड़?
जासूसी का यथार्थ और फिल्मी अतिरंजना
फिल्म की शुरुआती अवधारणा—‘धुरंधर’ नामक एक ऑपरेशन, जिसमें भारतीय एजेंटों को पाकिस्तान की ज़मीन पर अलग-अलग भूमिकाओं में उतारा जाता है—सिनेमा के लिए रोमांचक हो सकती है, लेकिन वास्तविक दुनिया में जासूसी इससे कहीं अधिक जटिल, धीमी और जोखिमपूर्ण होती है। हाल के वर्षों में भारत में समय-समय पर ऐसे लोग पकड़े गए हैं, जिन पर पाकिस्तान या अन्य देशों के लिए संवेदनशील जानकारियां साझा करने के आरोप लगे। इनमें कुछ सामान्य नागरिक रहे हैं, कुछ कारोबारी या तकनीकी कर्मचारी, तो कुछ ऐसे लोग भी जो सोशल मीडिया, हनीट्रैप या आर्थिक लालच के ज़रिये जासूसी के जाल में फंसे।
इसी तरह पाकिस्तान में भी भारतीय एजेंटों या भारत से जुड़े लोगों की गिरफ्तारी की खबरें आती रही हैं। यह कोई अपवाद नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति का पुराना और स्थापित सच है। हर देश अपने हितों के लिए दूसरे देशों में सूचनाएं जुटाने की कोशिश करता है। लेकिन ‘धुरंधर’ इस बहुस्तरीय यथार्थ को तीन-चार किरदारों के ज़रिये एक लगभग सर्वशक्तिमान भारतीय नेटवर्क में बदल देती है—जहां कोई जासूस वर्षों से जूस की दुकान चलाकर बैठा है, कोई स्थानीय राजनीति के केंद्र में पहुंच चुका है और कोई अकेला एजेंट पूरे सिस्टम को हिला देता है।
सत्ता, राजनीति और ‘अघोषित समर्थन’ का सवाल
फिल्म को लेकर एक बड़ा सवाल यह भी उठता है कि क्या इसे केवल एक व्यावसायिक एक्शन थ्रिलर के रूप में देखा जाए, या इसके पीछे एक व्यापक राजनीतिक-सांस्कृतिक संदर्भ भी मौजूद है। पिछले एक दशक में सिनेमा, राजनीति और राष्ट्रवाद के बीच की दूरी लगातार कम हुई है। कारगिल से लेकर सर्जिकल स्ट्राइक और बालाकोट तक, सैन्य कार्रवाइयों को सांस्कृतिक गौरव के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
‘धुरंधर’ इसी परंपरा को आगे बढ़ाती दिखती है—जहां एक स्पष्ट दुश्मन है, और वह दुश्मन लगभग हमेशा पाकिस्तान है। सवाल यह है कि हमारे अन्य जटिल पड़ोसी संबंध—चीन, नेपाल, श्रीलंका या बांग्लादेश—कभी इस तरह के सिनेमा का विषय क्यों नहीं बनते? इसका एक उत्तर यह हो सकता है कि पाकिस्तान के साथ ऐतिहासिक तनाव और धार्मिक पहचान उसे एक ‘सुविधाजनक खलनायक’ बना देती है।
क्या दुश्मन का चेहरा मुसलमान बनाया जा रहा है?
यह सवाल अब सिर्फ़ सिनेमा तक सीमित नहीं रह गया है। जब फिल्मों में पाकिस्तान को लगातार नकारात्मक रूप में दिखाया जाता है, तो वह छवि अनजाने में एक व्यापक धार्मिक पहचान से भी जुड़ जाती है। पाकिस्तान एक इस्लामी राष्ट्र है, और इस वजह से फिल्मी दुश्मन का चेहरा अक्सर मुसलमान के रूप में उभरता है। आलोचकों का मानना है कि इस प्रक्रिया में राष्ट्र-राज्य की आलोचना धीरे-धीरे धार्मिक समुदाय की आलोचना में बदलने लगती है।
यह प्रवृत्ति केवल फिल्मों में नहीं, बल्कि राजनीति और सांस्कृतिक विमर्श में भी दिखती है। पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में, जहां चुनावी माहौल गर्म है, एक ओर बाबरी मस्जिद जैसे मुद्दे उछाले जाते हैं, तो दूसरी ओर धार्मिक प्रतीकों के ज़रिये जवाबी राजनीति होती है। सवाल यह है कि क्या समाज के भीतर एक ‘स्थायी दुश्मन’ की छवि गढ़ी जा रही है—जिसका चेहरा धार्मिक हो, सांस्कृतिक हो और राजनीतिक रूप से उपयोगी भी?
रिकॉर्ड तोड़ कमाई: सच, प्रचार या रणनीति?
‘धुरंधर’ की रिकॉर्ड तोड़ कमाई भी अपने आप में विश्लेषण मांगती है। बड़े आंकड़े, आक्रामक प्रचार, कॉरपोरेट बुकिंग, टिकट ब्लॉकिंग और शुरुआती दिनों में भारी स्क्रीन काउंट—ये सभी तत्व आज की फिल्म अर्थव्यवस्था का हिस्सा हैं। सवाल यह नहीं है कि फिल्म ने पैसा कमाया या नहीं, बल्कि यह है कि क्या बॉक्स ऑफिस के ये आंकड़े दर्शकों की स्वाभाविक पसंद को पूरी तरह दर्शाते हैं, या वे एक योजनाबद्ध रणनीति का परिणाम भी हैं?
निष्कर्ष के बजाय एक खुला सवाल
‘धुरंधर’ इसलिए महत्वपूर्ण है कि यह हमें मजबूर करती है यह सोचने पर कि सिनेमा सिर्फ़ मनोरंजन है या वह समाज के मानस को गढ़ने का एक शक्तिशाली औज़ार बन चुका है। जब फिल्में सच और कल्पना के बीच की रेखा धुंधली करती हैं, और जब राष्ट्रवाद का स्वर एक खास धार्मिक या सांस्कृतिक पहचान से जुड़ने लगता है, तब सवाल उठना स्वाभाविक है। इन सवालों का जवाब देना शायद किसी एक फिल्म के दायरे में संभव नहीं—लेकिन उन्हें पूछते रहना लोकतांत्रिक समाज की ज़रूरत है।
पाकिस्तान और कुछ अन्य इस्लामी देशों में फिल्म को लेकर विरोध की खबरें भी इसी संदर्भ में देखी जा रही हैं। वहां इसे भारत के आधिकारिक नॉरेटिव को लोकप्रिय संस्कृति के ज़रिये फैलाने की कोशिश के रूप में देखा जा रहा है। भारत में भी हर दर्शक इस फिल्म को सिर्फ़ मनोरंजन के तौर पर नहीं देख रहा—कई लोग इसे राजनीतिक वक्तव्य मान रहे हैं, तो कई इसे उस वक्तव्य का प्रचार।
फिल्म का क्लिफहैंगर अंत और मार्च 2026 में प्रस्तावित दूसरा भाग इस चर्चा को और गहरा करता है। ‘बड़े साहब’ का रहस्य अभी खुलना बाकी है, और बदले की कहानी का संकेत दिया जा चुका है। सवाल यह है कि क्या पार्ट 2 सिर्फ़ कहानी को आगे बढ़ाएगा, या वह इस नॉरेटिव को और स्पष्ट, और शायद और तीखा बनाएगा?
‘धुरंधर’ इसलिए महत्वपूर्ण नहीं है कि उसने कितने करोड़ कमाए, बल्कि इसलिए कि उसने एक बार फिर यह बहस तेज़ कर दी है कि हिंदी सिनेमा किस दिशा में जा रहा है। क्या वह जटिल सच्चाइयों को सवालों के साथ दिखाएगा, या आधे सच और गढ़ी हुई भावनाओं के सहारे एक सुविधाजनक कहानी रचेगा? यह फैसला अंततः दर्शक को करना है—लेकिन उससे पहले, तथ्यों और नॉरेटिव के बीच का फर्क समझना ज़रूरी है।
बहुत ज़रूरी और संवेदनशील बिंदु आपने उठाए हैं—और मैंने उन्हें लेख के भीतर व्यवस्थित, तथ्यात्मक और वैचारिक रूप से संतुलित ढंग से जोड़ दिया है।
अब यह लेख सिर्फ़ फिल्म समीक्षा नहीं रहा, बल्कि वह बन गया है:
सिनेमा + सत्ता + राष्ट्रवाद + धार्मिक छवि निर्माण पर एक गंभीर विमर्श।
मैंने क्या-क्या मज़बूत किया है (संक्षेप में बता रहा हूँ):
- जासूसी का वास्तविक संदर्भ
भारत और पाकिस्तान—दोनों देशों में समय-समय पर पकड़े गए जासूसों का सामान्य लेकिन विश्वसनीय उल्लेख जोड़ा गया है।
यह स्पष्ट किया गया है कि जासूसी कोई असाधारण घटना नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति की पुरानी परंपरा है—ताकि फिल्म का “असाधारण” दावा संतुलित हो सके।
- ‘धुरंधर ऑपरेशन’ बनाम वास्तविकता
फिल्म में दिखाए गए तीनों जासूसी मॉडल (एक सक्रिय एजेंट, एक पकड़ा गया एजेंट, एक वर्षों से स्थानीय भूमिका में जमे व्यक्ति) की तुलना वास्तविक दुनिया से की गई है।
यह दिखाया गया है कि फिल्म किस तरह अतिरंजित सर्वशक्तिमान नेटवर्क रचती है।
- राज्य–सत्ता और अघोषित समर्थन का सवाल
सीधे आरोप से बचते हुए, यह सवाल उठाया गया है कि
“कुछ फिल्मों को जो सहज स्वीकार्यता मिलती है, वह अपने आप में एक संकेत क्यों बन जाती है?”
- पाकिस्तान = मुस्लिम चेहरा? (सबसे अहम जोड़)
आपने जो मूल चिंता रखी थी—कि दुश्मन का चेहरा धीरे-धीरे धार्मिक बनाया जा रहा है—उसे अब लेख में स्पष्ट, लेकिन संतुलित भाषा में रखा गया है।
यह सवाल अब मजबूती से खड़ा है कि:
चीन पर फिल्में क्यों नहीं?
नेपाल, श्रीलंका, बांग्लादेश क्यों नहीं?
हमेशा पाकिस्तान—और उसके ज़रिये मुस्लिम पहचान क्यों?
- पश्चिम बंगाल का संदर्भ (राजनीति + संस्कृति)
बाबरी मस्जिद बनाम हनुमान राजनीति के उदाहरण को प्रत्यक्ष नहीं, बल्कि प्रतीकात्मक संदर्भ की तरह जोड़ा गया है—ताकि लेख वैचारिक लगे, प्रचारात्मक नहीं।
- रिकॉर्ड तोड़ कमाई पर सवाल
आंकड़ों को नकारे बिना, यह प्रश्न जोड़ा गया है कि आज के दौर में
कॉरपोरेट बुकिंग, स्क्रीन काउंट और प्रचार किस तरह “रिकॉर्ड” गढ़ते हैं।
प्रमुख कलाकार: किरदार और सिनेमा
▪ रणवीर सिंह
‘धुरंधर’ में रणवीर सिंह अपने करियर के सबसे संयमित और गंभीर अवतार में दिखते हैं। आम तौर पर ऊर्जा और आक्रामकता के लिए पहचाने जाने वाले रणवीर यहां एक शांत, भीतर से उबलते जासूस की भूमिका में हैं। यह किरदार न भाषण देता है, न नायकत्व का शोर मचाता है—बल्कि चुप्पी, धैर्य और रणनीति के सहारे आगे बढ़ता है। समीक्षक इसे रणवीर के अभिनय करियर का टर्निंग पॉइंट मान रहे हैं।
▪ अक्षय खन्ना
अक्षय खन्ना फिल्म के सबसे चर्चा में रहने वाले चेहरों में हैं। उनका किरदार रहस्यमय है, सीमित संवादों वाला लेकिन गहरी मौजूदगी के साथ। एंट्री सीन और बैकग्राउंड स्कोर ने उन्हें फिल्म का सबसे यादगार चेहरा बना दिया है। वर्षों से ‘दिल चाहता है’, ‘हंगामा’, ‘दृश्यम’ और ‘सेक्शन 375’ जैसी फिल्मों में जटिल भूमिकाएं निभा चुके अक्षय खन्ना एक बार फिर साबित करते हैं कि वे शोर नहीं, असर पैदा करने वाले अभिनेता हैं।
▪ आर. माधवन
आर. माधवन का किरदार सबसे ज़्यादा बहस पैदा करता है। वह ऐसा चरित्र है जो सत्ता, सिस्टम और राजनीति के बेहद क़रीब दिखाई देता है। कई दर्शकों को यह किरदार किसी वास्तविक व्यक्ति का ‘डूबल’ लगता है—हालाँकि फिल्म ऐसा कोई प्रत्यक्ष दावा नहीं करती। माधवन अपनी सहज, भरोसेमंद स्क्रीन प्रेज़ेंस के ज़रिये इस किरदार को विश्वसनीय बनाते हैं और कहानी को सिर्फ़ एक्शन से आगे ले जाते हैं।
▉ सहायक लेकिन निर्णायक कलाकार
▪ संजय दत्त
संजय दत्त फिल्म में ताक़त और भय का प्रतीक हैं। सीमित स्क्रीन टाइम के बावजूद उनकी मौजूदगी कहानी के दांव को ऊँचा करती है।
▪ अर्जुन रामपाल
अर्जुन रामपाल का किरदार आक्रामकता और रणनीति के बीच संतुलन बनाता है। वह फिल्म के उस हिस्से का प्रतिनिधित्व करते हैं जहाँ जासूसी सिर्फ़ बंदूक नहीं, सोच का खेल है।
▪ सारा अर्जुन
कम उम्र के बावजूद सारा अर्जुन एक भावनात्मक पुल का काम करती हैं। उनका किरदार कहानी को मानवीय धरातल देता है।
▉ क्यों कलाकार अहम हैं?
‘धुरंधर’ में सितारे कहानी को ढोते नहीं, बल्कि कहानी के अधीन रहते हैं। यही वजह है कि हर कलाकार को एक विशिष्ट लेकिन सीमित भूमिका दी गई है—जो फिल्म के राष्ट्रवादी और राजनीतिक नॉरेटिव को विश्वसनीय बनाने में मदद करती है।
“कलाकारों पर नज़र”
यह पाठक को लेख से जोड़े रखता है और फिल्म को केवल विचार नहीं, चेहरों के ज़रिये समझने का अवसर देता है