-सुभाष मिश्र
सूदखोरी, (Usury) यानी अत्यधिक ब्याज दर पर कर्ज देना और फिर जबरन वसूली करना, एक ऐसी प्रथा है जो सदियों से चली आ रही है। भारत में यह समस्या खासतौर पर गरीब और निम्न आय वर्ग के लोगों को प्रभावित करती है। रायपुर में हाल ही में उजागर हुए तोमर बंधुओं का मामला इसकी एक भयावह मिसाल है, जहां साहूकारों ने जरूरतमंदों को कर्ज देकर उनकी मजबूरी का फायदा उठाया और फिर जबरदस्ती वसूली की। आजकल न केवल पारंपरिक साहूकार बल्कि कुछ बैंक और लोन देने वाली संस्थाएं भी मसल पावर का इस्तेमाल करके वसूली कर रही हैं जो इस समस्या को और जटिल बनाता है। क्रेडिट कार्ड भी एक नये तरह की डिजिटल सूदखोरी है। बैंक द्वारा बहुत सारे चार्ज के नाम पर राशि काटी जाती है। पता नहीं कैसे बैंक गरीब और मध्यम वर्ग से तो कड़ाई के साथ ऋण वसूली करते हैं और ऋण देते समय बहुत सारी गारंटी देखती हैं किन्तु जब यही बैंक बड़े लोगों को उनकी सामर्थ से ज्यादा लोन देते हैं तो ये सारी बातों की खोजबीन नहीं करते। पिछले दस वर्षों (2014-15 से 2023-24) में भारतीय बैंकों द्वारा बड़े उद्योगपतियों को दिए गए कर्जों में से कई डूब गए या माफ कर दिए गए हैं। इस अवधि में बैंकों ने कुल 17.5 लाख करोड़ के खराब ऋणों (एनपीए) को बट्टे खाते में डाला है, जिनमें से 9.28 लाख करोड़ बड़े उद्योगों और सेवा क्षेत्र से संबंधित हैं। वित्तीय वर्ष 2022-23 में, बैंकों ने 2.09 लाख करोड़ के ऋण बट्टे खाते में डाले, जिनमें से 52.3फीसदी बड़े उद्योगों और सेवा क्षेत्र से संबंधित थे। 2024 के अंत तक 29 कंपनियां ऐसी थीं जिन पर 1,000 करोड़ या उससे अधिक का बकाया था, और कुल मिलाकर यह राशि 61,027 करोड़ थी।
सूदखोरी यानी अत्यधिक ब्याज पर ऋण देना, भारत में एक पुरानी सामाजिक बुराई है। यह केवल आर्थिक ही नहीं, बल्कि नैतिक और कानूनी रूप से भी विकृति का रूप ले चुकी है। यद्यपि सरकारों ने विभिन्न कानून बनाकर इस पर रोक लगाने का प्रयास किया है, फिर भी यह धंधा आज भी गली-कूचों से लेकर बड़े शहरों तक फल-फूल रहा है। रायपुर के चर्चित तोमर बंधुओं का मामला इसका हालिया प्रमाण है, जिसमें लाखों रुपये की वसूली के बावजूद न तो दस्तावेज दिए गए, न ही क़ानूनी प्रक्रियाओं का पालन किया गया। इस मामले में पुलिस द्वारा की गई कार्यवाही में वीरेन्द्र सिंह तोमर जो कि करणी सेना का प्रांताध्यक्ष है, सोशल एक्टिविस्ट है, खारून नदी में गंगा आरती का आयोजनकर्ता है। उसके लॉकर से अवैध पिस्टल, रिवाल्वर, गोलियां और कारतूस, मकान से पांच तलवारें जब्त की गई थी। पुलिस को दूसरे कई और दस्तावेज मिले, जिससे आशंका है कि अवैध रूप से सूदखोरी का कारोबार किया जा रहा था। बार के लिए 10 लाख कर्ज देकर सवा करोड़ रुपए की धमकी-चमकी करके वसूूलने तथा दस्तावेज नहीं लौटाने के आरोप में संगठित अपराध, कर्जा एक्ट और धमकी देने पर एक कारोबारी करण सोनी की रिपोर्ट पर मामला दर्ज किया गया है। मामले में रोहित सिंह तोमर, प्रकाश तोमर, आकाश, दिव्यांश समेत कुछ महिलाओं समेत अन्य के खिलाफ प्रकरण दर्ज किया गया है। रायपुर के पुरानी बस्ती थाने में पांच दिनों के भीतर तीसरी एफआईआर दर्ज की गई है। 2017 में दस लाख रुपए कर्ज लेने वाले बस्तर निवासी कपड़ा कारोबारी ने 2024 तक सवा करोड़ रुपए धमकी-चमकी करके वसूले जाने और इसके बाद भी चेक समेत अन्य दस्तावेज नहीं लौटने की रिपोर्ट लिखाई है।
सूदखोरों का जाल आदिवासी क्षेत्रों में कुछ ज्यादा ही फैला है। गरीबों के बर्तन भाड़े, जेवर जमीन, गाय-बैल तक अपने पास गिरवी रखकर बहुत ज्यादा ब्याज दर पर उन्हे उनकी जरूरत पैसे देते हैं फिर उसकी वसूली गुंडे-बदमाशों के जरिए भी करवाते हैं। इससे बढ़कर ग्रामीण क्षेत्रों में कुछ मालगुजार लोग कर्जदार बच्चों को बंधवा मजदूर की तरह काम लेकर कर्ज की वसूली करते हैं। स्वामी अग्निवेश जैसे लोगों ने बंधवा मजदूरी के लिए बड़ा आंदोलन भी चलाया।
भारत में गरीबी और कर्ज का गहरा संबंध है। नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गनाइजेशन (एनएसएसओ) 2023 की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में ग्रामीण क्षेत्रों में 28 फीसदी परिवार और शहरी क्षेत्रों में 15फीसदी परिवार किसी न किसी प्रकार के कर्ज में डूबे हुए हैं। इनमें से लगभग 40 फीसदी कर्ज अनौपचारिक स्रोतों जैसे साहूकारों से लिया गया है, जहां ब्याज दरें 36 से 120 फीसदी प्रति वर्ष तक हो सकती हैं। ग्रामीण भारत में 21 फीसदी आबादी (लगभग 18 करोड़ लोग) अभी भी गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन कर रही है। इनमें से अधिकांश लोग छोटे किसान, मजदूर और असंगठित क्षेत्र के कर्मचारी हैं, जो अपनी दैनिक जरूरतों को पूरा करने के लिए साहूकारों से कर्ज लेने को मजबूर हैं। ऑक्सफैम इंडिया की 2024 की एक रिपोर्ट के अनुसार, ग्रामीण भारत में प्रति परिवार औसत कर्ज 1.2 लाख रुपये तक पहुंच गया है, जिसमें से 60 फीसदी कर्ज गैर-संस्थागत स्रोतों से लिया गया है। शहरी क्षेत्रों में यह आंकड़ा 2.5 लाख रुपये प्रति परिवार है। साहूकार अक्सर 5 फीसदी से 10 फीसदी प्रतिमाह की ब्याज दर वसूलते हैं, जो सालाना 60 से 120 फीसदी तक हो सकती है। इसकी तुलना में, बैंकों की ब्याज दरें 10-15 फीसदी प्रति वर्ष होती हैं, लेकिन गरीबों को अक्सर बैंक लोन नहीं मिल पाता। गरीबी, अशिक्षा, असंगठित श्रम और बैंकिंग सेवाओं से दूर होने के कारण गरीबों को सूदखोरों के पास जाने को मजबूर करते हैं।
लोगों को पैसे की तात्कालिक जरूरत के समय जब बैंक, रिश्तेदारों से पैसा नहीं मिलता तो वे सूदखोरों की शरण में जाते है। गरीबों के पास बचत नहीं होती और आपात स्थिति (जैसे बीमारी, फसल खराब होना) में उनके पास साहूकारों से कर्ज लेने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता। बहुत से जरुरतमंद लोग 10-10 फीसदी ब्याज पर भी ऐसे लोगों से ब्याज पर कर्जा लेते है।
ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकिंग सुविधाओं की कमी और जटिल प्रक्रियाओं के कारण गरीब लोग औपचारिक कर्ज लेने से वंचित रहते हैं। 2024 तक, भारत के 30 फीसदी ग्रामीण परिवारों का कोई बैंक खाता नहीं है, और जिनके पास खाता है, उन्हें लोन मिलने में कई बाधाएं आती हैं। अशिक्षा और जागरूकता की कमी के कारण लोग साहूकारों के झांसे में आ जाते हैं। वे ब्याज दरों और कर्ज के दीर्घकालिक प्रभावों को समझ नहीं पाते। भारत में सूदखोरी को रोकने के लिए कई कानून मौजूद हैं, जैसे कि मनी लेंडिंग एक्ट और रेगुलेशन ऑफ मनी लेंडिंग लॉ, लेकिन इनका सही ढंग से पालन नहीं हो रहा।
प्रत्येक राज्य में यह कानून साहूकारों को रजिस्टर करने और ब्याज दरों को नियंत्रित करने के लिए बनाया गया है। लेकिन ज्यादातर साहूकार अनौपचारिक रूप से काम करते हैं और रजिस्टर नहीं होते। उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 यह अधिनियम कर्ज वसूली के दौरान उत्पीडऩ को रोकने के लिए बनाया गया है, लेकिन इसकी जागरूकता और लागू करने में कमी है। भारतीय रिजर्व बैंक ने गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों और बैंकों के लिए सख्त नियम बनाए हैं, लेकिन कई संस्थाएं इन नियमों का पालन नहीं करतीं।
भारत में सूदखोरी को रोकने के लिए भारतीय दंड संहिता (आईपीसी), धारा 420 (धोखाधड़ी), धारा 384 (जबरन वसूली), और धारा 506 (आपराधिक धमकी) के तहत केस दर्ज हो सकते हैं। महाराष्ट्र, तमिलनाडु, छत्तीसगढ़ आदि में मनी लेंडर्स के लिए लाइसेंस की अनिवार्यता है। आरबीआई एनबीएफसी और माइक्रोफाइनेंस कंपनियों को वसूली के लिए धमकी या हिंसा का प्रयोग करने से स्पष्ट रूप से मना किया गया है।
कानून के बावजूद भारत में और विशेषकर के ग्रामीण इलाकों में सूदखोरी फल-फूल रही है क्योंकि यहां पर जागरूकता की कमी है गरीब लोग अपने अधिकारों से अनजान हैं और शिकायत दर्ज करने से डरते हैं। स्थानीय प्रशासन और पुलिस अक्सर साहूकारों के साथ मिलीभगत में रहते हैं, जैसा कि रायपुर के तोमर बंधुओं के मामले में देखा गया। अदालतों में मामले लंबे समय तक लंबित रहते हैं, जिससे पीडि़तों को न्याय नहीं मिल पाता। साथ ही गरीब और ग्रामीण आबादी को उनके अधिकारों और कर्ज के खतरों के बारे में शिक्षित करने की जरूरत है।
प्रेमचन्द का ध्यान उन छोटे-छोटे महाजनों की ओर जाता है, जो हमारे ग्रामीण बिरादरी में जोंक की तरह फैले हुए हैं। उनकी कोई जाति नहीं। वे कोई भी हो सकते हैं—खाता-पीता किरानेवाला, किसान का दूकानदार, अनाज और घी-दूध की खऱीद-फरोख़्त करने वाला बिचौलिया बनिया, थोड़े-थोड़े पैसे देकर, गहने, घर दुआर, खेत-खलिहान जऱ-ज़मीन गिरवी रखने वाला कोई साहूकार, पण्डित, ठाकुर, पूजा-पाठ और होम-जाप कर दक्षिणा बटोरे हुए कोई छोटा लालची ब्राह्मण जो एक का सवाया, ड्योढा लेकर उधारी देता है। जो कभी कम नहीं होता, धीरे-धीरे और बढ़ता ही जाता है। इस कजऱ्ख़ोरी का कोई भी कारण हो सकता है— भूखमरी, बेटी का विवाह, छोटे-मोटे लड़ाई झगड़ों से पैदा हुई मुक़दमेबाज़ी खूदखोर के पास जाने को मजबूर करती है। फिर यह मजबूरी एक ऐसा अभिशाप बनकर आती है जो कभी नहीं ख़त्म होती। यह जानलेवा कजऱ्ख़ोरी अन्तत: सचमुच जानलेवा साबित होती है। मुक्तिबोध की एक कविता पंक्ति है — ‘पिस गया वह, भीतरी और बाहरी, दो कठिन पाटों के बीच ऐसी ट्रेजेडी है नीच। ‘महाजनी सभ्यता प्रेमचन्द का वसीयतनामा है। इसका अर्थ यह है कि ‘महाजनी सभ्यता भारतीय समाज के वास्तविक और नये अन्तर्विरोधों की खोज का साहित्यिक और वैचारिक वसीयतनामा है।
कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद ने महाजनी सभ्यता और सूद जैसी कहानियों में सूदखोरी की क्रूरता को बड़े यथार्थवादी अंदाज़ में चित्रित किया था। उन्होंने बताया था कि कैसे एक गरीब किसान सालों मेहनत करके केवल सूद ही चुकाता रहता है, मूलधन तो कभी खत्म ही नहीं होता।
सरकार को ग्रामीण क्षेत्रों में माइक्रोफाइनेंस और सहकारी बैंकों को बढ़ावा देना चाहिए, ताकि सस्ते कर्ज की सुविधा मिल सके। कानून का सख्ती से पालन करना होगा। इसके अलावा साहूकारों के खिलाफ सख्त कार्रवाई और नियमित निगरानी की जरूरत है। पुलिस और प्रशासन को जवाबदेह बनाना होगा। जब हम डिजिटल इंडिया की बात करते है तो हमें डिजिटल लेंडिंग प्लेटफॉर्म को बढ़ावा देना चाहिए, जो पारदर्शी और कम ब्याज दरों पर कर्ज प्रदान करते हैं। श्रमिकों और मज़दूरों को उनके वेतन दिवस पर ही कर्ज की अदायगी के लिए धमकाया जाता है। रायपुर में फैक्ट्री गेट पर खड़े होकर वसूली करने का जो तरीका अपनाया जा रहा है, वह मसल पॉवर आधारित बैंकिंग का भयावह रूप है। हाल के सालों में, कुछ निजी बैंक और माइक्रोफाइनेंस कंपनियां भी वसूली के लिए दबाव और डराने की रणनीतियां अपनाने लगी हैं। यही नहीं, कर्जदारों से गिरवी दस्तावेज रखकर उन्हें ब्लैकमेल किया जाता है—जैसा कि बीएमडब्ल्यू की फाइनेंसिंग में देखा गया, जहां कर्ज देने के बाद भी दस्तावेज नहीं लौटाए गए।
सूद पर सूद चढ़ता जाता है और किसान की जिंदगी उस चक्रव्यूह में उलझ कर दम तोड़ देती है। सूदखोरी केवल एक आर्थिक अपराध नहीं है, यह एक सामाजिक शोषण तंत्र है, जो गऱीबी, अशिक्षा और कानूनी अक्षमता के सहारे चलता है। जब तक राज्य और समाज मिलकर इसके विरुद्ध कठोर कदम नहीं उठाते, तब तक लाखों गरीब इस आर्थिक गुलामी में फंसे रहेंगे। तोमर बंधुओं का मामला सिर्फ एक उदाहरण नहीं बल्कि एक बड़ी सामाजिक बीमारी का लक्षण है। अब समय आ गया है कि हम सिर्फ खबरों में इसे देखना बंद करें और इसके खिलाफ ठोस कार्रवाई की मांग करें।