-सौरभ शर्मा
बात कुछ साल पुरानी है, सुकमा में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह जी का कार्यक्रम था। मेरी वहां ड्यूटी थी और मंत्री जी को वहां एजुकेशन सिटी का लोकार्पण करना था। उनके आने में कुछ विलंब था और मैं वहां लाइब्रेरी में पुस्तकें देखने लगा। दो घंटे समय था और एक अद्भुत पुस्तक मेरे हाथों में आई। मुरिया एंड देयर घोटुल, वेरियन एल्विन की यह पुस्तक थी। मैंने शुरूआत में बस पन्ने पलटने की गरज से किताब खोली, मुझे भ्रम था कि यह एंथ्रोपोलाजी की किताब होगी और इसमें आदिवासी जीवन का नीरस और ठहरा हुआ वर्णन होगा। अचानक एक बीच का पेज खोला, इसमें घोटुलों का क्लासिफिकेशन था। हर घोटुल की अलग विशेषता और उसमें चल रहे जीवन से जुड़े प्रश्नों के संबंध में गंभीर समीक्षाओं का सुंदर वर्णन था। युवा स्त्री पुरुषों के बीच नोंकझोंक का सुंदर वर्णन था। मुझे लगा कि इस पुस्तक में बस्तर का और इनकी जनजातियों का विजडम छिपा है। इस घटना ने आदिवासी जीवन और इसकी संस्कृति को देखने की मेरी दृष्टि बदल दी और मैं अद्भुत तथा चकित भाव से उनके जीवन को देखने लगा, इस पुस्तक के माध्यम से मैंने बस्तर को प्राप्त किया। मेरे घर की बालकनी में मेरे हाथ में चाय होती और सुबह-सुबह मैं लोकगीत गाते झूमते हुए स्त्री पुरुषों को कतारबद्ध रूप से जाते देखता।
लेकिन मुझे मालूम था कि ये वही आदिवासी हैं जो शहर से नजदीकी होने की वजह से माओवाद के दंश से छूटे हुए हैं। भीतर से बस्तर सुलग रहा है। वेरियर एल्विन के पात्र इस बात पर चर्चा करते कि किस तरह अपने प्रेमी या प्रेमिका के लिए लिखे गये एक सुंदर गीत के भाव किस तरह हों, वहीं उस समय लिखे जा रहे बस्तर पर पुस्तकों के पात्रों के हाथों में गन होते। वेरियन एल्विन के पात्र हंसते-खेलते हुए हाटबाजार के लिए निकलते और नये लेखकों की किताबों के पात्र हाथ में बंदूक थामे नया एंबुश घेरने के लिए।
यह नया बस्तर माओवादियों ने बनाया था जिसके लोग लिंगो देवता पर चर्चा नहीं करते थे, फागुन मड़ई की उत्सुकता उसके भीतर नहीं थी, यह इस बात पर चर्चा करता था कि किस तरह सुरक्षाबलों पर अगला टारगेट किया जाए। माओवादियों ने अपनी विचारधारा की प्रयोगशाला बस्तर को बना लिया था और लोगों का सामूहिक ब्रेनवाश करने की कोशिश की। कुछ दिन पहले मैंने बीबीसी में एक आत्मसमर्पित महिला नक्सली का इंटरव्यू देखा जो अब तेलंगाना में रहती है। उसने बताया कि एक बार फोर्स को हताहत करने के लिए एंबुश लगाया गया लेकिन ग्रामीण इसके शिकार हो गये। उसे गहरा धक्का पहुंचा और उसने माफी मांगी। इस महिला से जब यह पूछा गया कि क्या फोर्स पर हुए हमलों में मारे गये शहीदों का उसे दुख नहीं हुआ। उसने कहा कि नहीं, मुझे इनका दुख नहीं हुआ।
इस इंटरव्यू में ही बस्तर की पीड़ा का सूत्र है। जो मारे गये जवान हैं वो भी किसी निम्नमध्यवर्ग परिवार से अथवा किसी आदिवासी गांव से आये युवा हैं जब उनकी चिताएं सजती हैं तो उनकी पत्नियां भी चीत्कार करती हैं लेकिन अर्बन नक्सलियों को इसका दुख नहीं होता, उनकी पीड़ा सलेक्टिव पीड़ा है। एक बड़े एलीट क्लास में ये बस्तर की पीड़ा का सलेक्टिव वर्णन करते हैं। उन्होंने जवानों को अपना वर्गशत्रु बनाया है।
भारत में महात्मा गांधी ने अहिंसा तथा लोकतांत्रिक तरीकों से अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करना सिखाया। बस्तर में और पूरे छत्तीसगढ़ में जंगल सत्याग्रह इसका सबसे अच्छा उदाहरण रहे। नक्सलियों ने बस्तर को शील्ड बनाकर देश में एक आयातित विचारधारा को थोपना चाहना लेकिन उनका प्रयोग विफल हो चुका है।
बस्तर ने यह साबित कर दिया है कि उसका जनजीवन प्रकृति की सुंदरता और असीम शांति में बसता है। बस्तर के किसी भी गांव में चले जाएं, किसी हाटबाजार में चले जाएं, एक गहरी किस्म की शांति और लोगों के चेहरे में मृदुल उत्सुकता नजर आती है। इस सहजता पर कुछ समय के लिए माओवादी ग्रहण लग चुका था लेकिन अब यह ग्रहण छंटने को है और बस्तर तेजी से विकास के लिए अपने कदम बढ़ा चुका है। नई शताब्दी में विकास का सबसे चमकीला सितारा होगा हमारा बस्तर।
उपसंचालक, जनसंपर्क