साभार: संगम पांडे की फ़ेसबुक वॉल से
लद्दाख की बर्फीली घाटियों में खड़े होकर जब कोई व्यक्ति अपने लोगों, अपनी ज़मीन और अपने पर्यावरण के लिए आवाज़ उठाता है, तो वह केवल स्थानीय नेता नहीं रहता, बल्कि राष्ट्र की आत्मा का दर्पण बन जाता है। सोनम वांगचुक ने यही किया। उनका नाम केवल शिक्षा सुधारों या नवाचार के प्रयोगों से नहीं जुड़ा, बल्कि लद्दाख की अस्मिता और पर्यावरणीय संतुलन के प्रतीक के रूप में गूंजा। जब ऐसे व्यक्ति को गिरफ्तार किया जाता है, तो सवाल उठता है कि राष्ट्रहित किसे कहते हैं—सत्ता का हित या जनता और पर्यावरण का संरक्षण?
सोनम वांगचुक की गिरफ्तारी ने देशभर में असहजता पैदा की है। यह असहजता इसलिए भी गहरी है क्योंकि वे हिंसा या उग्रवाद की राजनीति से नहीं जुड़े हैं। उनका संघर्ष अहिंसा, संवेदनशीलता और विज्ञान आधारित चेतना पर टिका है। वे भू-राजनीति की जटिलताओं को समझते हुए भी लद्दाख की नाजुक पारिस्थितिकी और वहां के लोगों की आजीविका को सबसे ऊपर रखते हैं। उनकी चेतावनी थी कि अंधाधुंध विकास, खनन और जलवायु संकट ने लद्दाख की नदियों और ग्लेशियरों को खतरे में डाल दिया है। यह चेतावनी किसी राजनीतिक भाषण का हिस्सा नहीं थी, बल्कि आने वाले विनाश की वैज्ञानिक झलक थी।

लेकिन सत्ता को यह स्वर असुविधाजनक लगा। शायद इसलिए कि जब जनता को सच्चाई का आईना दिखाया जाता है, तो व्यवस्थाएं सवालों के घेरे में आ जाती हैं। सोनम वांगचुक का अपराध यह नहीं था कि उन्होंने कोई कानून तोड़ा, बल्कि यह था कि उन्होंने मौन रहने से इनकार कर दिया। उन्होंने राष्ट्रहित की परिभाषा को चुनौती दी, जो अक्सर सत्ता के हित में गढ़ी जाती है। उनके अनुसार राष्ट्रहित का अर्थ है—लोगों का जीवन सुरक्षित रहे, जल और जंगल बचे रहें, और आने वाली पीढ़ियों को सांस लेने योग्य हवा और जीने लायक ज़मीन मिले।
सोनम वांगचुक की गिरफ्तारी को लेकर एक बड़ा सवाल यही उठ रहा है कि क्या यह केवल “कानून-व्यवस्था” का मामला है या इसके पीछे लद्दाख के लिथियम भंडार से जुड़ा कोई गहरा सच छिपा है। लद्दाख आज न सिर्फ सामरिक दृष्टि से, बल्कि वैश्विक ऊर्जा राजनीति में भी केंद्र में है। लिथियम को “सफेद सोना” कहा जा रहा है, और इलेक्ट्रिक वाहनों व बैटरियों की बढ़ती मांग ने इसकी कीमत और महत्व को कई गुना बढ़ा दिया है। वांगचुक लगातार चेतावनी देते रहे हैं कि अंधाधुंध खनन से हिमालयी पारिस्थितिकी और लद्दाखियों की जीवनरेखा खतरे में पड़ जाएगी। उनकी पर्यावरणीय मुहिम सीधे-सीधे उन कॉर्पोरेट हितों को चुनौती देती है जो लिथियम खनन से अपार मुनाफ़ा कमाना चाहते हैं। ऐसे में यह आशंका निराधार नहीं लगती कि उनकी गिरफ्तारी उस दबाव का हिस्सा हो सकती है, जिसमें राष्ट्रहित के नाम पर खनन को प्राथमिकता दी जा रही है और स्थानीय विरोधी स्वर को चुप कराया जा रहा है।
भारत के इतिहास में ऐसे कई प्रसंग मिलते हैं जहां सत्ता और जनता के बीच टकराव हुआ। स्वतंत्रता संग्राम इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। गांधी, भगत सिंह, या जयप्रकाश नारायण जैसे लोगों ने जब आवाज़ उठाई, तो उन्हें भी कारावास झेलना पड़ा। लेकिन उनके संघर्ष को बाद में ही राष्ट्रहित की संज्ञा मिली। यही परंपरा आज वांगचुक के साथ दोहराई जा रही है। सवाल यह है कि क्या राष्ट्रहित केवल सीमाओं की रक्षा तक सीमित है, या फिर यह भी सुनिश्चित करना ज़रूरी है कि उन सीमाओं के भीतर रहने वाले लोग सम्मान, न्याय और पर्यावरणीय सुरक्षा पा सकें?
वांगचुक की गिरफ्तारी से यह भी स्पष्ट होता है कि सत्ता अब असहमति को खतरे के रूप में देखने लगी है। लोकतंत्र की ताकत उसकी बहस और असहमति की गुंजाइश में होती है। जब किसी वैज्ञानिक, शिक्षक या पर्यावरणविद् की आवाज़ को जेल की सलाखों में बंद किया जाता है, तो असल में राष्ट्र की आत्मा को कैद किया जाता है। यह विडंबना है कि जिस व्यक्ति ने दुनिया भर में भारत का नाम नवाचार और सतत विकास के प्रयोगों से रोशन किया, उसे अपने ही देश में आंदोलनकारी और उपद्रवी कहकर खामोश किया जा रहा है।
सत्ता और जनता के बीच संवाद का टूटना किसी भी लोकतंत्र के लिए घातक होता है। वांगचुक की आवाज़ लद्दाख के छोटे से भूभाग की नहीं, बल्कि पूरे देश की पर्यावरणीय चेतना की आवाज़ है। हिमालय केवल लद्दाखियों का नहीं, बल्कि करोड़ों भारतीयों की जीवनरेखा है। गंगा, यमुना और ब्रह्मपुत्र जैसी नदियाँ इन हिमालयी ग्लेशियरों से ही जन्म लेती हैं। अगर हिमालय पिघलता है, तो पूरा भारत प्यासा होगा। ऐसे में क्या यह राष्ट्रहित है कि हम चेतावनियों को नज़रअंदाज़ करें और उन पर आवाज़ उठाने वालों को कैद कर दें?
राष्ट्रहित का असली अर्थ जनता की भागीदारी और उनकी आकांक्षाओं का सम्मान है। यह वह शक्ति है जो सत्ता और समाज को जोड़ती है। सोनम वांगचुक जैसे लोग हमें यह याद दिलाते हैं कि राष्ट्र केवल नक्शे पर खींची रेखाओं का नाम नहीं है। राष्ट्र खेतों में उगती फसल है, गाँवों में गूंजती हंसी है, और नदियों में बहता पानी है। राष्ट्र उसकी मिट्टी, उसकी हवा और उसकी आत्मा से बनता है।
इसलिए वांगचुक की गिरफ्तारी केवल एक व्यक्ति को कैद करना नहीं है, बल्कि राष्ट्रहित की गहरी परिभाषा को सीमित करना है। यह हमें सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हम ऐसे भारत का निर्माण कर रहे हैं जहां असहमति और सत्य के लिए कोई जगह नहीं? इतिहास गवाह है कि सत्य को दबाया जा सकता है, लेकिन समाप्त नहीं किया जा सकता।
आज ज़रूरत है कि राष्ट्रहित को सत्ता के चश्मे से नहीं, बल्कि जनता और पर्यावरण की आंखों से देखा जाए। सोनम वांगचुक की गिरफ्तारी हमें चेतावनी देती है कि अगर हमने पर्यावरणीय न्याय और लोकतांत्रिक संवाद को दरकिनार किया, तो आने वाली पीढ़ियाँ हमें माफ़ नहीं करेंगी। राष्ट्रहित का अर्थ तभी सार्थक है जब उसमें हर नागरिक की आवाज़ शामिल हो, चाहे वह सत्ता के खिलाफ ही क्यों न हो। यही असली राष्ट्रप्रेम है और यही भविष्य की रक्षा का मार्ग