तकनीक और सोशल मीडिया ने हमारे जीवन को जितनी सुविधाएँ दी हैं, उतनी ही चुनौतियाँ भी दी हैं। इनमें सबसे खतरनाक है सेल्फी का जुनून। यह महज तस्वीर खींचने तक सीमित नहीं रहा, बल्कि आज यह जानलेवा लत बन चुका है। लोग अपनी पहचान, आत्ममुग्धता और लोकप्रियता की दौड़ में इस हद तक उतर आए हैं कि अपनी जान को खतरे में डालकर भी सेल्फी लेने से नहीं चूकते। भारत के आंकड़े इस प्रवृत्ति को सबसे स्पष्ट रूप से सामने रखते हैं।
सेल्फी ले, सोशल मीडिया पर डाल
पहले कहा जाता था नेकी कर, दरिया में डाल।
उत्तर-आधुनिक समय का नया स्लोगन है सेल्फी ले, सोशल मीडिया पर डाल।
यह आत्ममुग्धता का दौर है। शहर के चौक-चौराहे, बिजली के पोल, दीवारें और दुकानें रातों-रात नेताओं और उनके शुभचिंतकों के फ्लैक्स से चमक उठती हैं। यह नया किस्म का पौधारोपण है। जो अगले ही दिन एक ताज़ा फ्लैक्स के साथ अपनी मौत खुद मर जाता है। मजे की बात यह कि जिन नेताओं के जन्मदिन या आगमन पर बैनर लगते हैं, उनसे भी बड़े फोटो उनके चाहने वालों के होते हैं। सत्ता में आने से पहले जिन नेताओं को ये लोग नहीं पूछते, वही सत्ता में आते ही अखबारों, टीवी और सोशल मीडिया पर लालो-लाल कर दिए जाते हैं। सत्ता बदलते ही ये चेहरे नए रंग में फिर उग आते हैं।
बहरहाल, बात जब सोशल मीडिया और सेल्फी की है, तो अनायास किशोर कुमार का गाया हर हसीं चीज़ का मैं तलबगार हूँ या आशा भोंसले का सजना है मुझे सजना के लिए याद आ जाता है। फर्क सिर्फ इतना है कि आज सजना के लिए नहीं, बल्कि लाइक और कमेंट के लिए सजना है। लड़कियाँ हों या लड़के – सबको जल्दी है, सबको वायरल होना है। गानों के मायने बदल गए हैं। यह दौर तलबगारों का नहीं, यूज़र्स का है। और यही यूज़ एंड थ्रो की डिजिटल फिलॉसफी अब नई मनोवैज्ञानिक बीमारियों को जन्म दे रही है। मार्च 2014 से मई 2025 के बीच दुनिया भर में हुई सेल्फी मौतों पर नजर डालें तो तस्वीर चौंकाने वाली है। इस दौरान भारत में कुल 271 हादसे दर्ज हुए, जिनमें 214 लोगों की जान चली गई और 57 घायल हुए। यानी अकेला भारत दुनिया में सेल्फी से होने वाली मौतों का 42.1 प्रतिशत हिस्सा रखता है। तुलना करें तो अमेरिका में 45, रूस में 19, पाकिस्तान में 16 और ऑस्ट्रेलिया में 15 लोगों की जान गई है। इंडोनेशिया, केन्या, ब्रिटेन, स्पेन और ब्राज़ील जैसे देशों में भी कुछ घटनाएँ हुईं, मगर संख्या बेहद कम रही। इन तथ्यों से साफ है कि यह समस्या भारत में कहीं ज्यादा गंभीर है।
सवाल यह है कि आखिर ऐसा क्यों है? इसके पीछे सबसे बड़ा कारण है भारत की विशाल और युवा आबादी। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर सबसे सक्रिय यूजर्स की तादाद भारत में ही है। युवाओं की एक बड़ी संख्या लाइक्स, कमेंट्स और फॉलोअर्स के दबाव में हर दिन नए-नए तरीके ढूंढती है। ऊंची पहाडिय़ों, समुद्र तटों, नदी किनारों, रेल की पटरियों और खतरनाक जानवरों के बीच खड़े होकर तस्वीर लेना यहां फैशन बन चुका है। कई बार यह स्टंट उनके लिए आखिरी साबित होता है। यह प्रवृत्ति केवल तकनीक की उपलब्धता का परिणाम नहीं है, बल्कि सामाजिक-मानसिक स्थिति का भी आईना है।
विशेषज्ञ कहते हैं कि बार-बार सेल्फी लेने और उन्हें सोशल मीडिया पर डालने की प्रवृत्ति बॉडी डिस्मॉर्फिक डिसऑर्डर जैसी मानसिक विकृतियों को जन्म देती है। जब किसी व्यक्ति की आत्मछवि पूरी तरह से सोशल मीडिया की प्रतिक्रिया पर निर्भर हो जाए, तो उसका आत्मविश्वास भीतर से खोखला हो जाता है। यह लत धीरे-धीरे डोपामीन की खुराक जैसी बन जाती है, जिसे पाने के लिए लोग और खतरनाक परिस्थितियों में तस्वीरें लेने की कोशिश करते हैं।
भारत जैसे देश में यह प्रवृत्ति इसलिए भी खतरनाक है क्योंकि यहां माता-पिता अक्सर बच्चों की ऑनलाइन गतिविधियों पर ध्यान नहीं देते। शिक्षण संस्थान भी इसे गंभीर मुद्दा नहीं मानते। इसके अलावा, पर्यटन स्थलों पर सुरक्षा इंतजामों की कमी और प्रशासनिक उदासीनता भी हादसों की बड़ी वजह है। अब सवाल उठता है कि इसका समाधान क्या है? केवल आंकड़े गिनाना या हादसों पर अफसोस जताना काफी नहीं है। समाज, प्रशासन और परिवार—तीनों को मिलकर कदम उठाने होंगे। सबसे पहले सभी राज्यों को पर्यटक स्थलों और खतरनाक जगहों पर नो-सेल्फी जोन घोषित करना होगा। वहां साफ-साफ चेतावनी बोर्ड लगाए जाएं और नियम तोडऩे वालों पर जुर्माना भी लगाया जाए। दूसरी ओर स्कूल-कॉलेजों में सेफ सेल्फी अभियान चलाना जरूरी है। छात्रों को यह समझाया जाना चाहिए कि लोकप्रियता की कीमत जान देकर नहीं चुकाई जा सकती।
साथ ही परिवारों की भूमिका भी बेहद अहम है। माता-पिता को अपने बच्चों की सोशल मीडिया गतिविधियों पर नजर रखनी होगी। सेल्फी का जुनून काबू में लाने के लिए कुछ बुनियादी सावधानियाँ अपनाना अनिवार्य हैं। सबसे पहले कभी भी ऊंचाई, नदी, ट्रेन या जंगली जानवरों के पास सेल्फी न लें। पानी और बिजली के खंभों से दूरी बनाए रखें। समूह में तस्वीर खींचते समय सावधानी बरतें। मोबाइल से ज्यादा ध्यान अपने आसपास के माहौल पर दें और सबसे महत्वपूर्ण किसी भी हालत में जोखिम भरे स्टंट न करें। यह पांच नियम अगर हर युवा मान ले तो कई जिंदगियां बचाई जा सकती है।
सेल्फी का अर्थ केवल खुद को देखने या दिखाने तक सीमित होना चाहिए, उसे मौत का सौदा नहीं बनने देना चाहिए। आज जब भारत डिजिटल शक्ति के रूप में उभर रहा है, तब ऐसी घटनाएँ हमारी सामाजिक जिम्मेदारी पर सवाल उठाती हैं। तकनीक का इस्तेमाल जीवन को सुंदर और सुरक्षित बनाने के लिए होना चाहिए, न कि उसे खतरे में डालने के लिए। आज जरूरत है कि इस जुनून को संयम से संतुलित किया जाए। समाज, प्रशासन और परिवार यदि मिलकर इस पर नियंत्रण नहीं करते तो तस्वीरें तो चमकेंगी लेकिन पीछे रह जाएंगी अधूरी जिंदगियों की दर्दनाक कहानियां।