:नवनीत कमल:
आदिम समय से ही जनमानस में क्षेत्रीय बोलियों का बहुत ही ज्यादा महत्व रहा है,
बोलियाँ हमारे जीवन को सरस और सहज बनातीं हैं, बोलियों से मानवीय संवेदनाएं
विकसित होती हैं, दो कोस में बोली चार कोस में पानी बदलने की बात हमेशा से ही सुनते आएं हैं।
आज की जनधारा अखबार के जगदलपुर संस्करण के लोकार्पण के अवसर पर जाने माने
साहित्यकार नवनीत कमल का लेख आज की जनधारा की पत्रिका में प्रकाशित किया गया.

बोलियाँ ही वे कारक हैं, जिनसे हम अपनी परंपराएं,रीति-रिवाज,संस्कृति को सुरक्षित रख सकें हैं, बोलियों से ही हमारे भीतर एक गहरा भावात्मक जुड़ाव भी पनप जाता है, जो सामाजिक एकता के भाव को समृद्ध करता है,ज्यादातर हमारी बचपन की बोली,क्षेत्रीय बोलियां ही होतीं हैं।
आजकल देश के कई राज्यों में प्रारंभिक शिक्षा में वहां की बोलियों को महत्व दिया जा रहा है, भाषायी कौशलता, समस्या समाधानों की क्षमता एवं आपसी भाईचारा भी बोलियों के विकास से ही उन्नत एवं संभव है।
वर्तमान स्थिति में यह देखा जा रहा है की बोलियां लुप्त हों रहीं हैं इसका मुख्य कारण हमारे गांवों का शहर हो जाना हैं, विकास होना चाहिए विकास जरूरी भी है, पर यह जरूरी नहीं की उस विकास के लिए हम अपनी बोलियों का ही बलि चढ़ा दें, आधुनिकता के चकाचौंध में, कभी भाषाई विद्वता के प्रदर्शन में जरूरी नहीं की हम अपनी अभिव्यक्ति की मौलिकता को ही खो दें। हमें गंभीरता से सोचना होगा कि हम इन बोलियों को कैसे सुरक्षित रख सकतें हैं, कैसे इन बोलियों को लुप्त होने से बचा सकते हैं।

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा स्थानीय भाषा बोलियों को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न कार्यक्रमों एवं योजनाओं का प्रचार प्रसार करती है आ रही है, निश्चित ही यह पहल उत्तम और सराहनीय है, क्षेत्रीय बोलियों पर पुस्तक लिखने का लक्ष्य भी रखा गया है, क्षेत्रीय शब्दावलियों का निर्माण हो रहा है, अनुवादों को आधार बनाकर बोलियों का प्रचार किया जा रहा है। बोलियों के विकास की प्रक्रिया में भाषाओं का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है,आज लुप्त होती हुई बोलियों को बचाने के लिए हमें कुछ बातों का अनुसरण करना पड़ेगा ताकि हम अपनी संस्कृति शिक्षा दोनों को ही जीवंत रख सकें।
प्राथमिक कक्षाओं में ही क्षेत्रीय बोलियों को पाठ्यक्रम में शामिल करना चाहिए, बच्चों से हमें जन्म से अपनी बोली भाषा में बात करना चाहिए, क्षेत्रीय बोलियां ही लोकगीत लोक नृत्य लोक, लोक कथाओं, परंपराओं के संवाहक होतें हैं, शासन प्रशासन स्तर में भी बोलियों को महत्व देना चाहिए,अपनी विशेष योजनाओं के अंतर्गत बोलियों के संवर्धन के लिए योजनाओं का विस्तार करना चाहिए ताकि हम अपनी लुप्त होती हुई बोलियों को बचा सकें।
आज ऐसे ही बस्तर में भी कुछ बोलियां हैं जो लुप्त होने के कगार पर है जिन्हें बचाना होगा इसका मुख्य कारण है पलायन, काम की तलाश में लोग शहरों की ओर जा रहे हैं और वहीं के होकर रह जाते हैं वहीं की भाषा बोली को अपना लेतें हैं,
पलायन के कारणों को समझ कारगर कदम उठाना चाहिए, पढ़ लिखकर व्यक्ति अपनी बोली में बात करने के लिए स्वयं को कमतर समझने लगा है, इस तरह पीढ़ी दर पीढ़ी अपनी बोलियों लोग भूलते जा रहे हैं।
बस्तर जिले में भी दोरली और गदबा दो ऐसी बोलियां हैं जो धीरे-धीरे लुप्त होने के कगार पर हैं हम इन बोलियों को बचा सकतें हैं जिसके लिए निरंतर जागरूकता अनिवार्य है।