कहि न जाइ का कहिये !
राजाराम भादू जयपुर राजस्थान: संजीव बख्शी से मेरा परिचय मामूली ही कहा जायेगा। वर्षों पहले उनका कविता संग्रह- भित्ति पर बैठे लोग- मिला था। उसमें सादी- सी निरंलकार कविताएँ थीं लेकिन साथ ही छत्तीसगढ़ अंचल के ठेठ बिंब- प्रसंग थे। उसके बाद सूत्र सम्मान के एक कार्यक्रम में रायपुर जाना हुआ तो पता चला कि वे प्रशासनिक अधिकारी हैं और मुख्यमंत्री कार्यालय से सम्बद्ध हैं। तब अजीत जोगी छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री थे। सूत्र सम्मान के आयोजन में वे भी आये थे और उन्होंने रजत कृष्ण को स्वचालित साईकिल प्रदान की थी। यह 2000 के बाद का कोई साल था और सूत्र समारोह में लघु पत्रिका आन्दोलन पर चर्चा रखी गयी थी। अगली सुबह संजीव जी के घर जाना हुआ। मैं ने एक और सच्चे कर्तव्यनिष्ठ अधिकारी को अपनी परिचय- सूची में शामिल किया। तब मेरी बस्तर- जगदलपुर यात्रा उन्ही के सौजन्य से संभव हुई। अभी पिछले वर्षों सूत्र सम्मान के ही आयोजन में फिर रायपुर जाना हुआ। इस बार प्रशासनिक सेवा के ही अधिकारी संजय अलंग को सम्मानित किया गया था। इसमें बाकी सभी लोगों से मुलाकात हुई लेकिन संजीव नहीं मिले। त्रिलोक महावर तो मंच पर साथ ही थे।
संजीव बख्शी का चर्चित उपन्यास मैं ने बया में ही पढ लिया था। बाद में यह स्वतंत्र पुस्तक के रूप में छपा। मैं ने अपनी पढते- पढते श्रृंखला में उसमें चित्रित न्याय व्यवस्था के आधार पर भारत में उत्तर- औपनिवेशिक न्याय- तंत्र का विश्लेषण किया था। उनसे फोन पर चर्चा हुई तो उन्होंने बताया कि अपने सेवा काल पर वह व्यवस्थित रूप से लिख रहे हैं। तभी मैं ने उनसे निवेदन कर दिया था कि प्रकाशित होते ही मुझे भेजें। उन्होंने यथासमय भेज भी दिया किन्तु मुझे ही यह टिप्पणी लिखने में देर हुई। भारत में शासन व्यवस्था को अभी भी नितांत गोपनीयता और रहस्यात्मक रखा जाता है। यह भी एक उत्तर औपनिवेशिक परिघटना है जो लोकतंत्र के प्रतिकूल है। इसे पारदर्शी और जबावदेह बनाने के लिए इसका रहस्योद्घाटन और विखंडन जरूरी है। मैं अपने प्रशासन- पुलिस व अन्य एजेंसियों में सेवारत मित्रों से अपने अनुभवों पर लिखने के लिए आग्रह करता रहा हूं। शक्ति- संरचना के तंत्र और उसकी प्रक्रिया को उजागर करके वे इस प्रणाली के लोकतंत्रीकरण में योगदान कर सकते हैं। तहसील सेवा में रहे हमारे मित्र सवाई सिंह शेखावत ने कुछ प्रसंग लिखे थे। तहसील से प्रशासनिक सेवा तक पहुंचे अंबिका दत्त ने अपनी डायरी की तीन पुस्तकों में तंत्र को कहीं छुआ तक नहीं है। प्रशासन और पुलिस के शीर्ष पदों पर रहे क्रमशः हेमंत शेष और हरिराम मीणा अनुभवों को लगता है, सेल्फ सेंसर करते रहे हैं।
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अंग्रेजी में ऐसा लिखने का चलन हो जिनमें प्रायः चर्चित रहे प्रकरणों और कुछ सनसनीखेज प्रसंगों को उजागर कर पुस्तक बाजार का दोहन करने का प्रयास रहता है। इससे इतर कुछ किताबें प्रशासनिक अकादमियों में शैक्षणिक उपयोग की दृष्टि से लिखी जाती हैं। यद्यपि इन सबका महत्व है लेकिन प्रणाली को सामान्य जन के निकट लाने के सरोकार एक लोकतांत्रिक देश में होने चाहिए, जहां विषमता वंचितों को मुख्यधारा से अलगाये रखती है। यह सुखद है कि संजीव बख्शी की प्रस्तुत पुस्तक इसी मंतव्य से लिखी गयी है। इसकी भाषा और शैली में संजीव के व्यक्तित्व की सादगी और सहजता प्रतिबिंबित है।
इस वृत्तान्त में संजीव ने अच्छे अधिकारियों पर ज्यादा लिखा है और उनके लिखे से लगता है कि वे संख्या में कम थे। संयोग यह भी रहा कि उन्हें प्रायः अच्छे अफसर और अनुकूल परिस्थितियाँ मिलती गयीं। इन्ही से उनके सीखने और बनने की प्रक्रिया प्रतिफलित होती है। इसमें एक रचनाकार के रूप में उनका उभरना भी शामिल है। अच्छे अवसरों में बह्मदेव शर्मा और हर्ष मंदर के संक्षिप्त प्रसंग हैं। यदि कोई अफसर अपने पद के प्रति निष्ठावान है जो उसके किये का सीधा लाभ जनता को मिलता है। स्वयं संजीव न केवल आम लोगों के प्रति संवेदनशील हैं बल्कि उन्हें लगातार जंगलों व प्राणियों का भी खयाल रहता है। उन्हें जेल का प्रभार मिलता है तो कैदियों के कौशल को आगे लाते हैं।
उन्होंने लोककलाकारों- साहित्यकारों से निरंतर सक्रिय संपर्क- संवाद बनाये रखा जिनमें आरंभ से लाला जगदलपुरी, जयदेव बघेल और हरिहर वैष्णव जैसे व्यक्तित्व शामिल हैं। हरिहर वैष्णव का लोककला के लिए किया गया काम तो उल्लेखनीय है। लोककला को संरक्षित- विकसित करने में काश सरकारी तंत्र ऐसे ही सन्नद्ध रहा होता। ऐसा नहीं कि संजीव का रास्ता सदैव निरापद रहा, बुरे लोगों और मुश्किलों से उन्हें भी जूझना पडा। ऐसे अनुभवों से निकले उनके निष्कर्ष मूल्यवान हैं : … ईमानदारी यदि है तो उसे अपने पूरे प्रमाण के साथ होना चाहिए। आजकल भ्रष्टाचार बुरी तरह से प्रचारित है किन्तु ईमानदारी चुपचाप है। कोई किसी ईमानदार को एकाएक ईमानदार मानने को तैयार नहीं होता या उसकी ओर ध्यान नहीं देता। होना यह चाहिए कि जैसे भ्रष्टाचारियों को सजा देने का प्रावधान है, वैसे ही ईमानदारी को भी चिन्हित कर उसे सम्मानित करना चाहिए।
अधिकारियों में अपनी शक्ति और समृद्धि के निर्लज्ज प्रदर्शन का चलन बढता गया है जो नव- सामंती रूप है। संजीव जैसे व्यक्ति उसके जीवंत प्रतिपक्ष हैं। सत्ता के सबसे बड़े केन्द्र ( मुख्यमंत्री ) के निकट काम करते हुए भी वे रुतवे से संपृक्त रहते हैं। वहाँ रहते छत्तीसगढ़ मूल के लगभग विस्मृत होते फिल्मकार किशोर साहू की आत्मकथा के प्रकाशन और मुक्तिबोध की स्मृति में साहित्यकारों के लिए सृजन संवाद भवन का निर्माण कराते हैं। मुख्यमंत्री कल्याण कोष से जरूरतमंदों की मदद सुनिश्चित करते हैं। अधिकारियों के किसी प्रशिक्षण को संबोधित करते हुए उनके द्वारा आमंत्रित कवि- कथाकार विनोद कुमार शुक्ल ने कहा था कि नौकरी जीवन जीने की तरह करनी चाहिए। संजीव ने नौकरी ऐसे की, बोझ अथवा लूट का अवसर मानकर नहीं।
इस पुस्तक में संजीव बख्शी अपने लेखन- प्रकाशन और साहित्यकारों से रिश्तों पर भी विस्तार से लिखते हैं, इसमें कोई बुराई भी नहीं है। उनके वृतान्त से रमेश अनुपम का बहुआयामी व्यक्तित्व उभर कर आता है, मुझे अफसोस है कि मेरा उनसे परिचय नहीं है। भूलन कांदा प्रसंग में एक जगह विष्णु खरे संजीव से पूछते हैं- क्या आदिवासी अपने मुखिया के सामने बीडी पी सकते हैं? संजीव का जबाव है कि क्यों नहीं बल्कि कई बार तो मुखिया ही उन्हें बीडी पीने को देता है। इससे पता चलता है कि हमारे साहित्यकारों के यथार्थ से कितनी विच्छन्नता है। यह आरोप विष्णु खरे पर नहीं है, उन्होंने ने तो सहजता से यह पूछ लिया। बल्कि उनके प्रति है तो न केवल अपनी अज्ञानता को छुपाते हैं बल्कि धडल्ले से आदिवासी व ग्रामीण यथार्थ का मनमाना चित्रण करते हैं। भूलन कांदा के संदर्भ में भुजिया समुदाय के बारे में उल्लिखित जानकारियां बहुत अहम् हैं। अभी भी ऐसे अनेक समुदाय हमारे साहित्य परिसर से परे हैं।