:साभार डी.एन. ओझा के फेसबुक वाल से:
जिनकी उपस्थिति मात्र से वातावरण में सिनेमा, संस्कृति, बतकही और ठहाकों का एक अनोखा रसायन घुल जाता था वे थे अजित राय वे जो करते थे। डंके की चोट पे करते थे। उनकी ज़िंदगी में कोई ज़्यादा लुकाव-छिपाव नहीं था और इसके लिए बहुत साहस चाहिए होता है। अपने मित्र के व्यक्तित्व का स्मरण करते हुए डी.एन. ओझा ने अपने फेसबुक वाल में उनसे जुड़ी यादें साझा की।

अपने मित्र की बात याद करते हुए डीएन ओझा ने लिखा कि 18 जुलाई 2025, आधी रात को मुझे लंदन से अजित जी का फ़ोन आता है — “ओझा जी, सोए तो नहीं हैं न?” मैंने कहा, अरे नहीं। मुंबई का टिकट ले लिया आपने?
अभी नहीं। वह बोले, लेकिन यहाँ से 22-23 जुलाई तक निकल जाऊँगा।
लेकिन 22-23 जुलाई तक “यहाँ से” को नियति ने “जहाँ से” में बदल दिया और उस तारीख़ को अजित जी दुनिया को अलविदा कह गए। वह शख़्स, जिसकी मात्र उपस्थिति से वातावरण में सिनेमा, संस्कृति, बतकही और ठहाकों का एक अनोखा रसायन घुल जाता था। एक से एक अद्भुत संस्मरण और दिलचस्प बातों के साथ घड़ी की सुइयाँ मानो तेज़ी से दौड़ने लगतीं, पर न तो रोचक किस्सों की कमी होती, न विश्व सिनेमा की बातों की। ऐसे हँसोड़ और खुशमिज़ाज व्यक्तित्व का अचानक चिरनिद्रा में सो जाना…।
ज़िंदगी की हवा किसी की नहीं होती। सबके चिराग़ बुझने हैं, लेकिन बेवक़्त जीवन-दीप का बुझ जाना बहुत आहत और दुःखी कर जाता है।
एक सद्गुरु से किसी ने पूछा—दुनिया का वह कौन-सा पाप है जिसे ईश्वर माफ़ नहीं करता? उन्होंने जवाब दिया— पाखंड।
अजित राय पाखंडी नहीं थे। वे जो करते थे। डंके की चोट पे करते थे। उनकी ज़िंदगी में कोई ज़्यादा लुकाव-छिपाव नहीं था और इसके लिए बहुत साहस चाहिए होता है। फिरोज़ अब्बास ख़ान के साथ क्रिकेट क्लब, चर्चगेट में हों, हिंदुजा बंगले, जुहू में, या अपने फ़िल्म इंडस्ट्री और थिएटर-जगत के मित्रों के यहाँ या मुंबई वर्सोवा गाँव के किसी स्ट्रगलर अभिनेता के घर, हर जगह वे उसी अंदाज़ और आत्मीय भाव से जाते और उनके साथ रसरंजन करते हुए ठहाके लगाते।

अपने अंदाज़, ज्ञान और व्यवहार के कारण वे युवाओं के बीच ग़ज़ब की लोकप्रियता रखते थे। युवा रंगकर्मियों को आगे बढ़ाने और प्रोत्साहित करने के लिए हमेशा तत्पर रहते। उन्होंने युवा रंगकर्मियों को एक नया नाम दिया था—“थिएटर के चंद्रगुप्त” और युवती रंगकर्मियों को “थिएटर की वीरांगनाएँ” कहा करते थे। रंगमंच पर उन्होंने जितना लिखा, पढ़ा और सुना था, वे सारे अनुभव और ज्ञान इन युवाओं के साथ खुलकर साझा करते थे।
देश के अज्ञात कोनों में काम कर रहे रंगकर्मी पर जैसे ही उनकी नज़र पड़ती, वे अपनी लेखनी से उनकी प्रतिभा को दुनिया के सामने लाते। चाहे वह राजस्थान के टोंक ज़िले में थिएटर करने वाले राजकुमार रजक हों, मध्यप्रदेश के सीधी के रंगकर्मी नीरज कुंदेर, आज़मगढ़ में रंग-थिएटर की अलख जगाने वाले अभिषेक और ममता पंडित, हिसार के रंगकर्मी मनीष जोशी, पटना के बिजयेन्द्र टांक, मुंबई के चित्रगुप्त विकास बाहेरी, अतुल सत्यकौशिक, या रंग-वीरांगना मुस्कान गोस्वामी—इन सबके रंगकर्म पर अजित राय ने हमेशा लिखा।
जब वे नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा की पत्रिका रंग प्रसंग के संपादक बने, तो उन्होंने उसमें ऐसे ही ‘थिएटर के चंद्रगुप्तों’ और ‘वीरांगनाओं’ के कार्यों को प्रमुखता दी।
अजित राय की प्रतिभा ऐसी थी कि जैसे ही उन्होंने दूरदर्शन की सरकारी पत्रिका दृश्यांतर के संपादन का कार्यभार संभाला, पहले ही अंक से वह पत्रिका एक साहित्यिक दस्तावेज़ बन गई। साहित्य और पत्रकारिता के बड़े नामों के आलेख लगातार छपने लगे। उस पत्रिका का सबसे बड़ा आकर्षण था अजित राय के लिखे संपादकीय—जैसे “संस्कृति अब किसी भयानक अपराध में बदलने लगी है”, “मोहब्बत की ये किस्मत थी कि पैदा हो गए तुम”, “पेरिस की हवा में रोमांस है”—ऐसा संपादकीय लेखन, जो आपकी रीढ़ की हड्डी में फुरफुरी जगा दे।
अजित जी जितना अच्छा लिखते थे, उतना ही अच्छा बोलते भी थे। वे अक्सर बिना किसी पूर्व-तैयारी के बोलते, और उनकी वक्तृत्व-क्षमता अद्भुत थी।
उनका ज्ञान का विस्तार सचमुच एक बड़े वृक्ष की भाँति था, जिसकी जड़ें साहित्य और संस्कृति में गहरे धँसी हुई थीं और जिसकी शाखाएँ भारतीय रंगमंच से लेकर विश्व सिनेमा तक फैली हुई थीं। विश्व सिनेमा पर उनकी समीक्षाएँ हम नियमित रूप से पढ़ते आ रहे हैं।

उनकी समीक्षाओं का सबसे बड़ा आकर्षण यह था कि वे कभी भी बॉक्स ऑफिस की ठंडी आँकड़ों वाली बातें नहीं करते थे। वे फ़िल्म की कथा-वस्तु पर आने से पहले उस देश के भूगोल और इतिहास के रंग-बिरंगे संदर्भों से समीक्षा का प्रारंभ करते थे मानो किसी अजनबी नगर में पहुँचने से पहले उसकी पुरानी गलियों की खुशबू और मौसम की ठंडक को महसूस कराना चाहते हों। वे फ़िल्म की कहानी की परतों को किसी कवि के बिम्बों की तरह एक एक कर खोलते थे। अभिनय और लेखन पर लिखते समय वे फ़िल्म के जादुई लय- रंग, प्रकाश और ध्वनि के उतार-चढ़ाव को इस तरह रेखांकित करते कि पाठक स्वयं पर्दे के सामने बैठा महसूस करता। उनकी तीक्ष्ण दृष्टि और गहरी संवेदना सन्नाटे में छिपी आवाज़ों को खोज निकालने में माहिर थी।
अजित जी, निःसंदेह, विश्व सिनेमा पर हिन्दी में लिखने वाले एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर थे, जिनकी अनुपस्थिति अब एक लम्बे समय तक खलेगी।
मेरी मुलाक़ात उनसे उनके लेखों के ज़रिए हुई। एक दिन फेसबुक पर मैंने आधुनिक हिन्दी के प्रतिष्ठित कवि केदारनाथ सिंह पर एक यात्रा-वृत्तांत पढ़ा, जिसे इंडिया टुडे ने प्रकाशित किया था और उसे लिखा था अजित राय ने। वह लेख इतना अद्भुत था कि मैं उसे एक साँस में पढ़ गया। उसमें वर्णित घटनाएँ और उसकी चमत्कृत भाषा ने मुझे भीतर तक प्रभावित किया।
उस आलेख की कई घटनाएँ तो आज भी मेरे मन में बसी हुई हैं, जिन्हें केदारनाथ सिंह ने अपनी यात्रा के दौरान अजित जी को सुनाया था।
एक घटना मास्को की थी। रूसी कवि मायाकोव्स्की के घर का टेलीफ़ोन अचानक बजता है। उनकी पत्नी रिसीवर उठाती हैं। दूसरी तरफ़ से आवाज़ आती है—कामरेड स्टालिन मायाकोव्स्की से बात करना चाहते हैं। पत्नी घबराई-सी फ़ोन अपने पति को थमा देती हैं। उधर से स्टालिन की भारी, ठंडी आवाज़ आती है—सुना है, मास्को के एक कैफ़े में एक कवि ने मेरी आलोचना में कविता पढ़ी। उसने मेरी नीतियों का भी विरोध किया। आप उस दिन वहाँ मौजूद थे ?
मायाकोव्स्की शांति से जवाब देते हैं, जी हाँ। स्टालिन पूछता है क्या वह कवि हमारे मुल्क के लिए कीमती है, या वह साधारण रचनाएँ करता है ?
मायाकोव्स्की कहते हैं वह कोई बहुत महत्वपूर्ण कवि नहीं है। स्टालिन कहता है क्यों, आप अपने शिष्य को बचाना नहीं चाहेंगे ? कुछ पलों की चुप्पी के बाद फोन कट जाता है।
मायोकव्स्की की पत्नी गुस्से में फट पड़ती हैं, आप चाहते तो उसे कीमती कवि कहकर बचा सकते थे ।
सच में उस दिन के बाद, उस कवि के बारे में कभी कोई ख़बर नहीं मिली। यह साम्यवाद और मानवतावाद के नाम पर सत्ताशाही की वह निर्दयी क्रूरता थी । मगर ध्यान देनेवाली बात यह है कि उस राष्ट्राध्यक्ष को पता था कि एक कवि की क्या कीमत होती है।
अजित राय रंगमंच और सिनेमा के लिए बहुत कीमती थे। उनकी दूरदृष्टि में भारत के छोटे-छोटे कस्बे और शहर भी सिनेमा के उत्सव से जगमगाते दिखते। यही कारण था कि उनके अथक प्रयासों से यमुनानगर फ़िल्म फ़ेस्टिवल, आज़मगढ़ अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म फ़ेस्टिवल और रायपुर अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म फ़ेस्टिवल केवल आयोजन नहीं रहे, बल्कि वे समय के साथ बड़े और प्रतिष्ठित फेस्टिवल के रूप में पहचाने जाने लगे।

अजित जी का मानना था कि किसी भी आयोजन की आत्मा उसकी रचनात्मकता में बसती है। शायद यही वजह थी कि उनका जन्मदिन भी एक साधारण तारीख़ नहीं, बल्कि एक विचारोत्सव होता। जहाँ देश के नामी बुद्धिजीवी, फ़िल्मकार, कलाकार और रंग-निर्देशक जुटते। दिल्ली से शुरू हुआ यह सिलसिला मुम्बई तक विचार और कला की सतत धारा के रूप में अनवरत बहता रहा।
मैंने खुद ऐसे कई नौजवानों से मुलाक़ात की है, जो अपनी ज़िंदगी में अजित राय के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष योगदान को स्वीकार करते हैं। वह एक ऐसे शख़्स थे जिनके चाहनेवालों की सूची हिंदुस्तान के हर शहर, हर कस्बे में फैली थी। वे नए प्रतिभाओं का खुले दिल से स्वागत करते, और किसी नए काम को देखने-सुनने में सदा उत्सुक रहते।
अभी हाल ही में वह विश्व सिनेमा और रंगमंच पर अपनी नई किताबों की तैयारी में लगे थे । अपनी अगली यात्रा का मानचित्र बना रहे थे। तभी अचानक उनका यूँ चले जाना हम सबको स्तब्ध कर गया।
कहते हैं, जब एक नदी मरती है तो सिर्फ़ पानी का स्रोत नहीं सूखता बल्कि एक पूरी संस्कृति मर जाती है। अजित राय का जाना भी वैसा ही है, मानो एक उत्सव थम गया हो, एक संस्कृतिकर्मी का दीप बुझ गया हो, सिनेमा का चलता-फिरता विश्वकोश खो गया हो, और हँसी-ठिठोली से भरी ज़िंदादिल संगत अचानक खामोश हो गई हो।
विनम्र श्रद्धांजलि…शत शत नमन🌹🙏