बाजार नहीं, तो बोनी भी नहीं,’कुसुम’ से किसान कर रहे किनारा…कम कीमत, कम तेल तथा अधिक पारिश्रमिक

तिलहन फसलों में कभी नाम होता था कुसुम का। बर्रे के नाम से पहचानी जाने वाली यह फसल परिपक्वता अवधि के पूर्व भाजी के रूप में सेवन की जाती है, तो उम्र पूरी करने के बाद हासिल उपज से खाने का तेल बनता था। हाथों-हाथ खरीदी करती थीं ऑयल मिलें लेकिन बीते 5 साल से इकाइयां सोयाबीन की खरीदी को प्राथमिकता दे रहीं हैं। ऐसे में कुसुम को वह जगह नहीं मिल रही है, जैसा होना चाहिए था।


इसलिए खत्म हो रहा रुझान

सोयाबीन। तिलहन फसलों में एकमात्र ऐसी फसल है जिसकी खेती देश स्तर पर हो रही है। प्रति क्विंटल तेल का प्रतिशत ज्यादा होना और संगठित बाजार की आसान उपलब्धता। यह दो ऐसे प्रमुख कारक रहे, जिसकी वजह से सोयाबीन आगे,तो कुसुम पीछे होता चला गया। कुसुम के पीछे होने का क्रम आज भी जारी है।


थी सर्वोत्तम, यहां की कुसुम

कवर्धा, मुंगेली और बेमेतरा जिले के अलावा तखतपुर के किसान कुसुम की व्यवसायिक खेती करते थे। तैयार फसल को भाटापारा कृषि उपज मंडी में बेहतर कीमत और बेहतर प्रतिसाद मिलता था। आज इन उत्पादक क्षेत्रों में कुसुम की व्यावसायिक खेती का किया जाना लगभग खत्म होता जा रहा है।


खुली नई मंडियां, फिर भी…

बेमेतरा, मुंगेली, कवर्धा और तखतपुर। यहां भी कृषि उपज मंडियां अस्तित्व में आ चुकीं हैं। कारोबार भी बढ़ा है लेकिन नहीं बढ़ा कारोबार, तो केवल कुसुम का। विकट थी यह स्थिति क्योंकि मंडियां तो संचालन में आ गई लेकिन बर्रे की खेती को प्रोत्साहन की नीतियां कारगर नहीं हो पाई। ऐसे में कुसुम के किसान इसकी खेती से किनारा कर रहे हैं।

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