:राजकुमार मल:
भाटापारा- सुबह की कांव- कांव अब सुनाई नहीं देती। घरों की छत पर उड़ान
भरना छोड़ दिया है कौवों ने। याद इसलिए आ रही है क्योंकि पितृ पक्ष शुरू
हो रहा है जिसमें कौवों को भोजन करवाने की परंपरा पीढ़ियों से चली आ रही है।
कैसे पूरी करेंगे पितृ तर्पण की परंपरा ? सवाल इसलिए उठ रहा है क्योंकि शहरी पारिस्थितिकी का सबसे सामान्य पक्षी कौवा शहर से दूर हो चुका है। प्रारंभिक जांच में भोजन स्रोत में बदलाव को कौवों की शहरों से दूरी बड़ी वजह मानी जा रही है। दूसरी वजह प्राकृतिक आवास का खत्म होना भी है।

भोजन स्रोत में बदलाव
कूड़ा घर, सब्जी मंडी, होटल और ढाबे हैं तो सही लेकिन यहां से निकलने वाले अपशिष्ट में अर्ध सड़े जैविक पदार्थ की बजाय प्लास्टिक, थर्मोकोल और रसायन जैसे अजैविक अपशिष्ट की मात्रा अधिक होती है। इससे कौवों का पोषण आहार प्रभावित हो रहा है। यही वजह है कि कौवों ने शहरी परिवेश से दूरी बना ली है।
प्रदूषण और रासायनिक प्रभाव
कीटनाशक और कीटनाशक युक्त अपशिष्ट अवशेष की मात्रा हर साल बढ़ रही है। यह गिद्धों की असमय मौत का कारण और कौवों की प्रजनन क्षमता और रोग प्रतिरोधक क्षमता को कमजोर कर रहे हैं। भारी धातु जैसे लेड और मरकरी के अलावा प्लास्टिक के सेवन से कौवों के अंडों का आवरण पतला होने लगा है, जिससे चूजे सुरक्षित रूप से बाहर नहीं निकल पाते।
प्राकृतिक आवास का विनाश
बरगद, पीपल और नीम के वृक्ष कौवों के लिए सुरक्षित प्राकृतिक आवास माने जाते हैं लेकिन शहरी क्षेत्र के विस्तार ने इन वृक्षों की संख्या घटा दी है। जगह कंक्रीट के जंगल और ऊंची इमारतों ने ले ली है, जहां कौवों के लिए आवास बना पाना लगभग दुष्कर है। इसके अलावा कबूतर, मैंना और चील जैसे प्रतिस्पर्धी पक्षियों की बढ़ती आबादी भी कौवों की घटती संख्या का कारण बन रही है।

शहरी पारिस्थितिकी के लिए गंभीर चेतावनी
कौवों की घटती संख्या शहरी पारिस्थितिकी के लिए गंभीर चेतावनी है। जैविक कचरे की जगह प्लास्टिक और रसायन, कीटनाशकों का बढ़ता उपयोग और बरगद-पीपल जैसे वृक्षों की कमी ने इनके भोजन और आवास दोनों को प्रभावित किया है। यदि तत्काल उपाय नहीं किए गए तो कौवे आने वाले वर्षों में केवल लोककथाओं और पितृपक्ष की परंपराओं तक सीमित होकर रह जाएंगे।
अजीत विलियम्स, साइंटिस्ट (फॉरेस्ट्री), बीटीसी कॉलेज ऑफ़ एग्रीकल्चर एंड रिसर्च स्टेशन, बिलासपुर