अलविदा 2025- जो बीत गया सो बीत गया !


सौरभ मिश्र

दिसंबर की बाँहों में जब साल का अंतिम दिन धीरे-धीरे उतरता है, तब समय अपने सबसे गंभीर और सबसे कोमल रूप में हमारे सामने खड़ा दिखाई देता है। यह वह क्षण होता है जब एक ओर हम पीछे छूटे दिनों की ओर लौटकर देखते हैं, वहीं दूसरी ओर आने वाले वर्ष के पन्नों को कल्पना में पलटने लगते हैं। जीवन का यह दोआब जहाँ स्मृति और आकांक्षा एक दूजे से मिलती हैं, मानव अस्तित्व का सबसे सुंदर अनुभव है। बीते हुए साल की परतें खुलती हैं तो कहीं पछतावे के बिखरे हुए पत्ते दिखते हैं, कहीं सीख और समझ की चमकती हुई रेखाएँ। और साथ ही यह एहसास भी कि जो समय बीत गया, वह केवल तारीख में नहीं था, वह हमारी यात्रा था, हमारे भीतर की दुनिया को बदल देने वाला एक पूरा संसार।
साल बीत जाता है, लेकिन वह हमसे कुछ लिए बिना नहीं जाता। वह हमारी आदतें बदलता है, हमारी सोच को आकार देता है, संबंधों को परखता है, और परिस्थितियों की धूप-छाँह में हमारी परिपक्वता की धुन तैयार करता है। इसलिए साल का अंतिम दिन किसी कैलेंडर का सूना पृष्ठ नहीं होता। यह आत्ममंथन का पर्व होता है। इस पर्व में हम स्वयं से पूछते हैं कि क्या पाया? क्या खोया? किन रास्तों ने हमें मंजि़ल के निकट पहुँचाया और किन गलियों में भ्रम का कुहासा छाया रहा? यह बीते हुए साल का आत्मविश्लेषण अक्सर हमें अपने भीतर झाँकने और सच को स्वीकारने की शक्ति देता है।
हर साल की यात्रा में कुछ ऐसे क्षण आते हैं, जिन्हें हम सहेज कर रखना चाहते हैं जैसे किसी प्रिय की मुस्कान, कोई उपलब्धि, कोई छोटा-सा सुख, कोई अनपेक्षित सौगात, कोई सफल संवाद। यादों के ये मोती जीवन की माला में तब और चमकते हैं, जब हम समय के इस पड़ाव पर उन्हें फिर से थामते हैं। वे हमें बताते हैं कि आशा का रास्ता कभी खत्म नहीं होता। सुख का संगीत कभी मौन नहीं होता। जीवन चाहे कितना भी कठिन क्यों न हो जाए, उसमें कोमलता के कुछ स्वर हमेशा बच रहते हैं।
लेकिन इसी साल में कुछ ऐसी घटनाएँ भी थीं, जिन्हें हम भूल जाना चाहते हैं। अपूर्ण कार्य, टूटे विश्वास, थकान भरी दौड़, असफलताएँ, कुछ अप्रिय चेहरे, उलझी परिस्थितियाँ, अधूरी इच्छाएँ। यह सब भी जीवन के साथ चलते हैं और नए वर्ष की दहलीज़ पर खड़े होकर सबसे पहले इन्हीं की समीक्षा होती है। लेकिन इस समीक्षा में पछतावे का भार नहीं होना चाहिए। आखिरकार बीती गलतियाँ आने वाले दिनों की रोशनी बन सकती हैं। सबसे सुंदर बात यह है कि समय हमें हमेशा एक और मौका देता है। अपने को पुनर्निर्मित करने का, अपने सपनों को फिर से आकार देने का और अपनी गलतियों को समझकर आगे सही दिशा चुनने का।
यही कारण है कि वर्षांत केवल यादों का चौराहा नहीं है, यह निर्णयों का प्रारंभिक क्षण भी है। नए वर्ष के स्वागत से पहले हम अपने भीतर संकल्पों का एक दीपक जलाते हैं, जीवन को थोड़ी और सजगता से जीने का, संबंधों को अधिक प्रेम से थामने का, स्वास्थ्य और आत्मविकास को महत्व देने का, अपने कार्य को ईमानदारी और उत्साह से करने का। संकल्पों का यह दीपक हमें आने वाले वर्ष के अँधेरे में रास्ते दिखाता रहता है। संकल्प चाहे छोटे हों या बड़े, वे मनुष्य को भीतर से मजबूत बनाते हैं। वे बताते हैं कि जीवन निरंतर गतिमान है और हम उसमें सक्रिय यात्री हैं।
साल के अंतिम दिन हम एक और गहरी बात समझते हैं, जो बीत गया सो बीत गया। उसे पछतावे के साथ देखना व्यर्थ है। उस पर रोने का कोई अर्थ नहीं। क्योंकि बीता हुआ साल हमें जितना जानता है, उतना कोई दूसरा नहीं। उसने हमें गिरते देखा है, सँभलते देखा है, हँसते देखा है, रोते देखा है, हारते और जीतते देखा है। वह हमारा साक्षी है और साक्षी को हमेशा सम्मान मिलना चाहिए। इसलिए बीते वर्ष को क्रोध या निराशा से विदा नहीं किया जाना चाहिए, बल्कि उसकी पीठ थपथपा कर, मुस्कुराहट के साथ उसका आभार व्यक्त करना चाहिए।
वर्षांत का यह समय हमें जीवन के मूल तत्व की याद दिलाता है, अस्थिरता। समय ठहरता नहीं, परिस्थितियाँ स्थायी नहीं होतीं, दुख और सुख दोनों यात्री हैं। और इस नश्वरता के बीच जो स्थायी है, वह है हमारी दृष्टि। यदि दृष्टि संतुलित और सकारात्मक है, तो वर्षांत केवल तारीख़ का परिवर्तन नहीं महसूस होगा, यह आत्मा के विकास की अनुभूति बन जाएगा। इसलिए दिसंबर के आखऱी दिन यह सोचने का समय है कि हमने दुनिया को देखने का अपना तरीका कितना बदला? क्या हम थोड़े उदार बने? क्या हमारी संवेदनाएँ व्यापक हुईं? क्या हमने दूसरों के दुख को महसूस किया? क्या जीवन के प्रति हमारा आचरण और अधिक सजग हुआ? यही प्रश्न हमें नए वर्ष में बेहतर मनुष्य बनने की प्रेरणा देते हैं।
बीते हुए अच्छे दिनों को सहेज कर रखने की आवश्यकता इसलिए है क्योंकि स्मृतियाँ हमारी पहचान का हिस्सा हैं। स्मृति हमें जड़ों से जोड़ती है। व्यक्ति तभी संपन्न बनता है, जब उसके पास अनुभवों का खजाना हो। अच्छे समय का स्वाद हमें बुरे दिनों में शक्ति देता है। और जीवन की यही निरंतरता मनुष्य को संघर्षशील और सहिष्णु बनाती है। दुखों के बाद ही सुखों का मूल्य समझ आता है, और सुखों के बाद विनम्रता का महत्व जाना जाता है।
इस पूरे चिंतन के बीच दिसम्बर की ठंड में एक बात और होती है, व्यक्ति खुद को साल के आरंभ में खड़े पाता है। यह ठंड, यह कोहरा, यह धुँधलापन किसी मोहभंग की तरह प्रतीत होता है, पर इसके भीतर भविष्य की सीढिय़ाँ छुपी होती हैं। जैसे खेत में बीज को ठंड सहनी पड़ती है, तभी बसंत में वह हरी लहर बनकर उठता है, वैसे ही मनुष्य की आशाएँ भी कठिन दिनों से गुजरकर चमकती हैं।
तो आने वाले वर्ष को एक दीया चाहिए, दीपक की लौ चाहिए, और वह लौ है आशा। आशा मनुष्य का अनन्त साथी है। वह वर्ष बदलते समय के साथ नहीं बदलती, वह उसके भीतर ही जलती रहती है। यही आशा नए वर्ष को खुले बाहों से स्वागत करने का हौसला देती है। यही हौसला बताता है कि जीवन सुंदर है, क्योंकि उसमें सुधार का अवसर है।
साल का अंत दरअसल साल का स्वागत है। यह विदाई और अगवानी का संगम है। यह समापन और आरंभ का उत्सव है। जब बारह महीने की थकान आँखों में उतर आती है और बारह महीने की उम्मीद होंठों पर मुस्कुराने लगती है, तब मनुष्य अपने सबसे सच्चे रूप में खड़ा होता है, ईश्वर और समय के बीच।
और यही है दिसंबर का जादू—बीते हुए साल को सलाम और आने वाले वर्ष को प्रणाम। नया साल दरवाज़े पर खड़ा है। उसकी ओर बढ़ते कदमों में आत्मविश्वास हो, कृतज्ञता हो, और यह विश्वास हो कि आने वाला समय हमारे भीतर कुछ नया खिलाएगा। साल की विदाई सिर्फ तारीख़ का परिवर्तन नहीं है। यह आत्मा के परिष्कार की यात्रा है। नया वर्ष हम सबके लिए अधिक रोशनी, अधिक अर्थ और अधिक मानवीयता लेकर आए। इसी आकांक्षा के साथ पुराने वर्ष को धन्यवाद और नए वर्ष का स्वागत!

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